दिव्य प्रेम
दिव्य प्रेम
दिव्य प्रेमानुभूति के दायरे में तृप्त सी
मेरी रूह की परिकल्पना..!
केसरिया शाम को सजती हरकिपेड़ी पे
गंगाघाट की आरती की लौ सी तुम्हारी चाहत मेरे प्रति..!
मैं मणिकर्णिका घाट में लबलबाती दहकती उस अंतिम ज्वाला सी..!
एक तुम्हारी पावन लौ, एक मेरी दाहक लौ,
ना फ़र्क नहीं कोई दोनों दिव्य प्रभु प्रीत सी..!
मिल जाते है दोनों बहती है किसी की अस्थियाँ
पवित्र गंगा नीर में जब मोक्ष को पाने होते गतिशील सी..!
हम थाम लेते है हाथ एक दूजे का
प्रार्थना में उठाते उस जीव के मोक्ष की
याचना में समर्पित करते है प्रभु चरणों में
अपने सब यथार्थ कर्म..!
अपने लिए ना चाहा कुछ ना चाहिए
करना है दोनों को हर जीव के लिए कामना सतअंत की..!
यही तो प्रेम है
देह की वासना के परे,
जगोद्धार में लीन दोनों हर कदम एक साथ चलें
प्रेम शब्द को आओ सार्थक करें।