“आज दो दो भारत देखता हूँ देश में”
“आज दो दो भारत देखता हूँ देश में”
आज दो दो भारत देखता हूँ देश में
हर तरफ जो बेबसी है उन्नति के वेश में
भीड़ बढ़ती देखता हूँ सो रहे फुटपाथ पर
जैसे सजा कोई भोगता हो बिन किये अपराध पर
बारिशों में भीगते हैं ठिठुरते हैं ठण्ड में
तथाकथित विकसित भारत के एक अँधेरे खंड में
नेहरू और गाँधी के सपने टूटते हैं
हर झोपड़ी के क्लेश में
आज दो दो भारत देखता हूँ देश में
एक तरफ ऊँची इमारत एक तरफ नालों पे घर
एक तरफ है भुखमरी और एक तरफ लाखों के घर
आजतक ये हर सरकारी योजना से दूर हैं
इस चमकते हुऐ देश के जिस्म पर नासूर हैं
हाँ ये सब सम्भव है आज के परिवेश में
आज दो दो भारत देखता हूँ देश में