STORYMIRROR

Krishna Khatri

Others

4  

Krishna Khatri

Others

वो दिवाली...!

वो दिवाली...!

3 mins
409

खिड़की के पास रखी चेयर पर अभी कुछ देर हुए बैठी ही थी कि बेल बजी। दरवाज़ा खोला सामने सीमा खड़ी थी, आते ही बोली - तू यहां बैठी क्या कर रही है? मैंने तुझे नीचे से देखा तो मिलने का मन किया, आ गई!


अरे यार कुछ नहीं, बस यूं ही बाहर की तरफ देख रही थी जहां इन ऊंची-ऊंची अटालिकाओं के पीछे से, तो कहीं बीच में से पहाड़ नज़र आ रहे है, देख ना! ऐसा लग रहा है जैसे कितने नजदीक है, बस एकाध फर्लांग की दूरी पर ही होंगे और इसी के साथ ही वो बीता बचपन भी याद आ रहा था, जो कितना पास लग रहा था लेकिन कितना दूर है जिस तक पहुंचना भी अब नामुमकिन है फिर भी ललचाता है!


देखते-देखते बाहर की दुनिया जाने कब खारिज़ हो गई और मैं पहुंच गई अपने बचपन में... साथ ही याद आ रही थी वो दिवाली जिसकी भनक एक-डेढ़ महीना पहले ही लग जाती थी, घर में साफ-सफाई का अभियान जो शुरू हो जाता था! हम बच्चे भी बड़े उत्साह से भाग लेते थे... लालच होता - मीठे-मीठे पकवानों का, नये-नये कपड़ों का, पटाखों का! इसमें भी साटिन के झिलमिलाते कपड़े और तीलीतारा (छुरछुरी) का! छुरछुरी तो बेहद प्रिय थी उससे निकलते सितारे मन मोह लेते थे, मैं तो सीधे आसमान के सितारों के बीच पहुंच जाती थी!


दिवाली का वो उत्सव तीन दिन पहले ही शुरू हो जाता था। धनतेरस से एक दिन पहले ही इतनी उत्सुकता रहती कि जल्दी उठने के चक्कर में नींद ही नहीं आती! हम तीनों बहनें जाने क्या-क्या सपने बुनते हुए रात आंखों में निकाल देती। मां ने बता रखा था - धनतेरस को सुबह चार बजे नहाने से खूब सारा धन मिलता है, रूपचौदस को जल्दी नहाने से रूप मिलता है और अमावस को जल्दी नहाने से साक्षात लक्ष्मीजी आती है!


इतने सारे प्रलोभन! मैं तो खुशी की खुमारी में ही डूबी रहती और सारे काम हम बहनें आगे होकर होड़ाहोड़ी में करती, जो जल्दी-जल्दी करेगा उसको सबकुछ ज्यादा मिलेगा! और सच में जब सबसे दिवाली की खर्ची मिलती तो उस दिन बहुत सारे पैसे इकट्ठे हो जाते, परिवार का जो मिलता, खर्ची देता! मां कहती - ये देखो धन मिला ना! नये कपड़ों में तुम्हारा रूप भी कितना निखर आया है, कितनी सुन्दर लग रही हो! फिर मैं अपने दादाजी से पूछती, सबकी लीडर मैं... दादाजी भी कहते - हां रे, तुम तो एकदम परियां लग रही हो और हम खुशी के मारे फूल कर कुप्पा!


ऐसा था हमारा दिवाली - उत्सव, जो आज भी जहन में तरोताजा है और जब तब आंखों के आगे घूमता रहता है!


हां री गीता तुम कितना सही कह रही हो! तुम बता रही थी और मैं उसमें डूब रही थी। वाकई तब इतने इलेक्ट्रॉनिक साधन नहीं थे फिर भी दिवाली मनाने का आनंद अद्भुत था, बहुत मज़ा आता था! मगर इन तीस सालों में कितना बदलाव आया है! आज के बच्चे हमारे बनिस्बत कितना कुछ और वो भी कितना अधिक जानते है और हम परियों की बातों से ही परिदेश में पहुंच जाते थे! लंबी सांस लेते हुए, चलो अब चलती हूं, बातों-बातों में वक्त का पता ही नहीं चला। अभी मुझे खाना भी बनाना है, मिस्टर आते ही होंगे और स्कूल से बच्चे भी आने वाले है, तुम्हारा सब हो गया?


नहीं यार, देख ना सब बिखरा पड़ा है! अब जुटना ही पड़ेगा, चल फिर मिलते है, बाय!


बाय-बाय... कहते हुए गीता निकल गई!


Rate this content
Log in