वो अजनबी अनकहे रिश्ते
वो अजनबी अनकहे रिश्ते
कहीं तो ये दिल कभी मिल नहीं पाते......कहीं से निकल आये जन्मो के नाते...रेडिओ में फ़िल्म आनंद का बड़ा ही सुंदर गाना बज रहा था,मैं गाना सुनते सुनते खो गयी बीती यादों में....
दो साल पहले की बात है,मैं अपने निकट के रिश्तेदार के यहाँ मुम्बई गई थी.जब भी फोन पर बात होती,वो हर समय मुम्बई आने के लिए कहतीं-"अरे एक बार तो आ जाओ,काफी समय हो गया मिले हुए। हम सब तो बहुत याद करते तुम्हें। हाँ जब भी आना,समय लेकर आना ये नहीं कि बस दो दिन के लिए आए और चल दिए" इतने अपनेपन से कोई बुलाए तो एक बार तो मन करता ही है कि चलो मिलकर आते हैं।
बेटे को बोला,चलो प्रोग्राम बना लो और टिकिट जल्दी से बुक करवालो क्योंकि अभी बच्चों की छुटियाँ होने वाली हैं फिर टिकिट नहीं मिलेगी।बेटे को ज़्यादा छुटियाँ नहीं थीं ,इसलिये केवल दो दिन का ही प्रोग्राम बनाकर जाने का टिकिट बुक कर दिया।आने का टिकट वेटिंग का था,बेटे ने कहा कन्फ़र्म हो जाएगा।हमने उनको अपने आने की सूचना दे दी।
हम दोनों मुंबई पहुँच गए,गाड़ी से उतरकर मैंने उन्हें फोन किया कि हम लोग पहुँच गए हैं बस १ घंटे में आपके पास पहुँच जाएंगे।मैंने सोचा दूसरी तरफ़ से जोश व उत्साह से भरी आवाज आएगी....अरे वॉ..!! पहुँच गए...चलो जल्दी से आ जाओ सब इंतज़ार कर रहें हैं .....!! पर ऐसा कुछ नहीं हुआ बस उन्होंने कहा....ओके,आ जाओ।एक बार को मुझे उनका इस तरह की प्रतिक्रिया देना अच्छा नहीं लगा,पर मेने हँसकर कहा हाँ पहुँच रहे हैं दीदी।बेटे को मैंने कुछ नहीं कहा क्योंकि वो मुझे ही सुनाता,आपको ही सबसे मिलने की पड़ी रहती है...बस जरा से किसी ने बोला नहीं और आ जाती हैं बातों में...!
सोचती हूँ बच्चों का क्या क़ुसूर ? मैं हूँ ही ऐसी सीधी सरल,नहीं समझती लोगों के दोहरे स्वभाव को।
कुछ ही समय में हम घर पहुँच गए,दीदी ने दरवाजा खोला.... हम दोनों अन्दर आ गए।बेटे ने दीदी जीजा जी के पैर छुए,दोनों ने खुश रहो कहकर बैठने को कहा।छुट्टी का दिन था सो जीजा जी घर पर ही थे,दीदी चाय और नाश्ता ले आईं इधर उधर की बातें होती रहीं और बातों ही बातों में दोनों ने हमारा प्रोग्राम भी पूछ लिया।उन्हें इस बात की तसल्ली हो गयी कि हम दो दिन से ज्यादा नहीं रुकेंगे।
मैं जो मिठाई व सबके लिए गिफ्ट्स लाई थी,वो दीदी को दे दिए।वह बोलीं-"अरे इनकी क्या जरूरत थी,हम लेने देने में विश्वास नहीं रखते" "अरे दीदी अब इतने दिनो बाद मिली हूँ,कौंनसा रोज रोज आ रही हूँ....फिर बच्चों की माँसी हूँ, उनके लिए कुछ नहीं लाती क्या ?" मेरी बात सुनकर दीदी चुप तो हो गईं,पर उनके चेहरे को देखकर लग रहा था मानो उनके ऊपर कितना बोझ लद गया हो। दिनभर कैसे बीत गया,मालूम ही नहीं पड़ा.दीदी के बेटे ओर बेटी भी मेरे बेटे के हम उम्र ही थे इसलिए आपस में जल्द ही घुलमिल गए। मैं ये सोचकर ख़ुश थी,कि चलो बेटे को कम्पनी मिल गई नहीं तो बोर हो जाता।रात को खाना खाने के बाद बच्चें सोने चले गए दीदी जीजा जी बोले चलो थोड़ा बाहर घूम आतें हैं। हम तीनों घूमने निकल गए,आधा पॉन घंटा घूमने के बाद घर आ गए।पहला दिन ठीक ठाक निकल गया दूसरे दिन भी सबको छुट्टी थी,किंतु दीदी के बच्चे नाश्ता करने के बाद कोई ना कोई बहाना बनाकर चले गए...किसी को कहीं जाना था तो किसी को कही और...खेर क्या कर सकते थे ? सबकी अपनी अपनी लाइफ़ है।जीजा जी दीदी से बोले-"सुनो मेरे कुछ क्लाइंट आए हुए हैं,इसलिए होटल जाना हैं तुम इन्हें लेकर चली जाना कोई मॉल दिखा देना।दीदी बोलीं-"मेरे सर में रात से ही दर्द हो रहा है,अभी अभी दर्द की गोली ली है...अगर ठीक हो जाता है तो...मैंने बीच में टोकते हुए कहा-"अरे दीदी हम तो बस आप लोगों से मिलने आए हैं,घूमना फिरना तो होता रहता हैं।आप अपनी तबियत पर ध्यान दें" जीजा जी चले गए,दीदी दिन भर सर पर पट्टी बांधे घूमती रहीं,मैंने लंच तैयार कर दिया।दीदी थोड़ी थोड़ी देर में यह कह रही थीं..अरे तुम भी क्या सोचोगी,दीदी ने काम पर लगा दिया।मैंने कहा-"तो क्या हुआ दीदी,घर पर भी तो काम करती हूँ ना"
लंच पर बच्चे भी आ गए ,सबने खाना खा लिया,सब काम हो गया तो दीदी भली चंगी हो गईं।दिन भर यूँही निकल गया,ना दीदी ने नाही बच्चों ने घूमने का नाम लिया।मेरा भी अब घूमने का कोई मूड नहीं रहा गया था,मैं भी थक चुकी थी।
रात को जीजा जी घर आए तो उन्होंने एक बार को भी नहीं पूछा,कि दिन भर क्या किया ? कहाँ गए? मुझे अब इन सबकी योजना स्पष्ट नजर आ रही थी।रात को सोते समय अचानक मेरे घुटनों में काफी दर्द शुरू हो गया और सुबह तक इतना बड़ गया,कि चलने में बहुत दिक्कत हो रही थी।मुझे चिंता होने लगी,कि आज शाम को तो हमारी ट्रेन है कैसे सफर करूँगी ? तभी बेटे ने बताया,कि माँ टिकिट कन्फर्म नहीं हुआ। सुनकर थोड़ी राहत मिली,चलो कल की ट्रेन देख लेंगे तब तक दर्द में भी आराम आ जाएगा।लेकिन दीदी जीजा तो सुनकर परेशान हो गए,बेटे को समझाने लगे-"अरे कोई दूसरी ट्रेन में देख लो,सेकंड AC में ट्राई करो नहीं तो कहो तो में किसी से बात करूँ।यानी की वो चाहते थे,कि हम जैसे तैसे आज ही निकल जाएं।
बेटे ने कहा-"अंकल जी कल की ट्रेन में देख लेता हूँ,माँ को भी दर्द मे आराम आ जाएगा" बेटे की बात सुनकर दीदी लपक कर बोली-"अरे बेटा माँ को तो में ऐसी पेन किलर दूँगी की तुरंत आराम आ जाएगा" अब तो हद हो गई थी,मैंने बेटे को कहा-"रात की ही ट्रेन में ही देख ले,चाहे फ़र्स्ट AC में ही क्यों ना मिले" मन तो कर रहा था एक पल भी ओर ना रुकूँ यहाँ
बेटे ने जैसे तैसे रात की ट्रेन की टिकिट बुक कर दी। मैंने दर्द की दवा ले ली,थोड़ी राहत मिली पर चलने में अभी भी तकलीफ हो रही थी.शाम हो गई,बच्चे व जीजा जी ऑफ़िस से आ गए थे हमारा भी जाने का समय हो रहा था क्योंकि स्टेशन जाने में भी १ घंटा लगता था। दीदी बड़े बेमन से बोली साथ का खाना बना दूँ। मैंने कहा, रहने दो दीदी ट्रेन में ही कुछ ले लेंगे।बेटे ने समान उठाकर बाहर रखा।ना किसी ने उसकी मदद की नाहीं कोई बोला,कि आप लोग आए अच्छा लगा..फिर आना।नीचे तक भी कोई नहीं आया बस लिफ़्ट तक आकर बाय बाय कर दी।
सचमुच हमारी ऐसी विदाई इससे पहले कभी नहीं हुई थी। हम दोनों बुझे मन से बस स्टॉप पहुँचे..काफ़ी इंतज़ार के बाद बस आई,सारी भीड़ उसमें चढ़ गई।खड़े खड़े मेरा तो बुरा हाल हो गया था,बड़ी मुश्किल से बैठने को एक सीट मिली तो बेटे ने मुझे बैठने को कहा और स्वयं खड़ा रहा। बहुत आहत थी ,एक तो दर्द से..दूसरा अपनो के व्यवहार से।बस बहुत ही रुक रूककर चल रही थी,लग रहा था समय से पहुँचेगी भी की नहीं।
कुछ ही देर में एक लड़का ,जिसके कंधे पर एक बेग लटका हुआ था मेरे बेटे के पास आकर खड़ा हो गया।शायद उसको भी स्टेशन जाना था,कहने लगा-"आप भी स्टेशन जा रहे हो" बेटे ने बोला, हाँ।शायद गाड़ी भी उसकी और हमारी एक ही थी तभी वह चिंतित होकर बोला-"जैसे बस चल रही है,लगता नहीं है कि समय पर स्टेशन पहुँचाएगी।मैं तो अगले स्टॉप पर उतरकर टैक्सी से स्टेशन चला जाऊँगा,क्या आपको भी चलना है?" बेटे ने कहा-"नहीं मेरे साथ माँ हैं,उनको टाँगों में तकलीफ है वह बार बार चढ़ उतर नहीं सकतीं" वह लड़का तो अगले स्टॉप पर उतर गया और मैं भगवान से यही प्रार्थना कर रही थी कि जैसे तैसे हम समय पर पहुँच जाए..!!
फाइनली हम स्टेशन पहुँच गए,गाड़ी प्लैट्फ़ॉर्म पर खड़ी थी,हम तेज तेज चलकर अपने कोच तक पहुँचे।अंदर जाकर अपनी सीट पर बेठे ही थे,कि गाड़ी चल पड़ी।अभी सब लोग अपना समान रख ही रहे थे,कि इतने में वो बस वाला लड़का हमें ढूँढता हुआ आ गया,बेटे को देखकर बोला-"आराम से चढ़ गए, कोई दिक्कत तो नहीं हुई? मुझे आप लोगों की चिंता हो रही थी,कहीं गाड़ी तो नहीं छूट गई ?आंटी जी का दर्द कैसा है?" बेटा बोला-"नहीं भैया बस थोड़ा भाग दौड़ करनी पड़ी,बाकी आराम से चढ़ गए थे.आपका कोच कोनसा है? " वो बोला,मेरा कोच तो पाँच डिब्बे पीछे है।बेटे ने कहा,थैंक यू भैया,आप हमसे मिलने इतनी दूर से आए।मेरे मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला,मैं तो बस अवाक् सी रह गई....!! सोच रही थी....जो घर में देखकर आई थी वो सच था,या जो मैं देख रही हूँ वो सच है।जहाँ आज के वयस्तम दौर में अपनो को अपनो के लिए समय नहीं है वहाँ इस अजनबी का जिसे हम जानते तक नहीं बस कुछ पलों की मुलाकात,हमारे लिए इतना फिक्रमंद होना,मेरे दिल को छू गया मेरी आँखे भर आईं..
वो अजनबी तो चला गया,सूरत तो उसकी याद नहीं पर सीरत उसकी आज भी मालूम है।जो दूसरे की माँ की इतनी फिक्र करता हो,वो अपनी माँ को कितना चाहता होगा? जिसके लिए चंद मुलाकात इतनी अहमियत रखती हो,वो रिश्तों को कितनी शिद्दत से निभाता होगा?
आज भी जब उस अजनबी को याद करती हूँ तो मन से यही आह निकलती है....काश ! मेरे अपने भी ऐसे ही होते।
