उफ ! यह चश्मा... जी का जंजाल

उफ ! यह चश्मा... जी का जंजाल

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हफ्ते भर पश्चात् होने वाली किटी पार्टी में कामिनी अपना नया चश्मा पहनकर गई । उसे देखते ही उसकी अभिन्न मित्र सुषमा ने कहा, ‘ अरे कामिनी, तुम्हें चश्मा लग गया !! ’


‘ हाँ...।’ कहते हुये कामिनी ने गर्वोन्मुक्त मुस्कान के साथ ऐसे कहा जैसे पूछना चाह रही हो कि बताओ मैं कैसी लग रही हूँ ?


‘ अरे, मुझे तो चश्मा जी का जंजाल लगता है । मजबूरी न हो तो मैं कभी लगाऊँ ही नहीं । कोई भी काम करना हो तो आधे समय तो चश्मा ही ढूंढते रहो...।’ कविता ने अपना चश्मा ठीक करते हुये कहा ।


‘ कब तक बचेगा कोई, चालीस के बाद तो सबको ही चश्मा लगाना ही पड़ता है ।’ पूर्णिमा ने अपने ज्ञान का प्रदर्शन करते हुए कहा ।

‘ सच...तो क्या कामिनीजी, आप चालीस की हो गईं लेकिन लगती तो नहीं है ।’ रंजना की आवाज में आश्चर्य था ।


क्या चालीस के बाद सभी को चश्मा लग जाता है...? क्या वह चालीस की हो गई...? उसे यह मामूली सी बात क्यों पता नहीं थी...? उसे अपनी नासमझी पर क्रोध आया था पर अब क्या कर सकती थी...!! चश्मा लगाने के जनून में देखने में थोड़ी सी परेशानी होने पर वह डाक्टर के पास चली गई और उन्होंने उसको उसका मनचाहा उपहार पकड़ा दिया ।   सच्चाई सामने आते ही उसे लगा जैसे उसे भरे बाजार में नंगा कर दिया गया हो...कितने यत्न से उसने अपने शरीर को सहेजा था...बढ़ती उम्र को नियमित योगाभ्यास के जरिए रोक रखा था । उसकी सुगठित देहायष्टि को देखकर उसकी जवान होती बेटी को भी लोग उसकी बहन समझने की भूल कर जाते थे....पर इस मरदूद चश्मे ने उसकी रूकी उम्र को एकाएक सबके सामने बेनकाब कर दिया था...।


लौटकर आई तो बुझी-बुझी थी । मानव उसके पति और बच्चों ओम और स्वीटी ने उससे पूछा पर उसने कोई उत्तर नहीं दिया बार-बार उसके मनमस्तिष्क में यही आ रहा था कि उसे यह पता क्यों नहीं था कि चालीस के बाद सबको चश्मा लग जाता है पर उसे तो बुद्धिजीवी बनने का शौक सवार था !!  


बचपन से ही शुभा को चश्मा लगाने का शौक था । पता नहीं कैसे उसके मन में एक धारणा बन गई थी कि जो भी चश्मा लगाता है, वह बुद्धिमान होता है....भइया चश्मा लगाता है, पापा चश्मा लगाते हैं, यहाँ तक कि मम्मी भी कुछ दिनों से चश्मा लगाने लगी हैं फिर वह क्यों नहीं लगायेगी...उसे भी औरों की तरह बुद्धिमान बनना है...चश्मे के लिये जिद करती तो माता-पिता हँसकर कहते,‘ अरे, बुद्धू, चश्मा वह लगाता है जिसकी आँखें कमजोर हों ।’


                बुद्धू शब्द पर उसके आक्रोश प्रकट करने पर खेद प्रकट करते हुए वह उसे समझाने का प्रयास करते पर उसे किसी की कोई भी बात समझ में नहीं आती थी । उसे लगता कि सब उसके विरूद्ध कोई साजिश रच रहे हैं...वह लड़की है न, कोई नहीं चाहता है कि वह बुद्धिमान बने । दादी ने एक बार उससे कहा था कि उसके जन्म पर माँ खूब रोई थी क्योंकि उन्हें लड़की नहीं लड़का...इस घर का वारिस चाहिए था...उसे लगने लगा था कि शायद इसी कारण भइया के छोटा होने पर भी माँ पापा ने उसे चश्मा लगवा दिया गया है जबकि वह उससे चार साल बड़ी है फिर भी चश्मा नहीं लगवाया गया । भइया क्लास में फस्र्ट आता है तो सब खूब खुश होते हैं लेकिन वह खूब पढ़ने के बाद भी फस्र्ट नहीं आ पाती है...उसे इसका कारण पता था पर उसकी बात कोई समझना ही नहीं चाहता था...अपनी उपेक्षा से चिढ़कर उसके बालमन पर एक ही धुन सवार थी कि उसे चश्मा लगाना हैै । एक दिन उसने अखबार में पढ़ा कि जो बच्चे पढ़ते या टी.वी. देखते समय बार-बार आँख बंद करते है या जिन बच्चों के सिर में अक्सर दर्द होता है, उनकी आँखें कमजोर हो सकती हैं अतः उनकी आँखों का परीक्षण करवा लेना बेहतर हउसे तो रामबाण औषधि मिल गई । अब वह पढ़ते या टी़. वी. देखते समय जानबूझकर आँखे मिचमिचानेेे तथा अक्सर सिर में दर्द होने की शिकायत करने लगी...जब किसी ने कोई विशेष घ्यान नहीं दिया तब अपने लक्षणों के बारे में ध्यान आकर्षित करते हुए कारण तथा साथ-साथ निवारण भी बता दिया ।

आखिर जब उसे डाक्टर के पास ले जाने का कार्यक्रम बना तो उसे लगा कि बस अब उसकी इच्छा पूरी होने ही वाली है, पर नहीं, डाक्टर ने परीक्षण करके उसके सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया...।


दिन गुजरते रहे...बचपन से जवानी में पैर रखा पर चश्मे का शौक बदस्तूर जारी रहा...विवाह हुआ बच्चे हुए पर उसकी आँखे ठीक ही रहीं...चश्मा नहीं लगना था, नहीं लगा ।


एक दिन उसे लगा कि अखबार पढ़ने में परेशानी हो रही है, मानव को बताया तो वह परीक्षण करवाने डाक्टर के पास ले गये...डाक्टर ने उसे मायोपिया बताकर पावर का चश्मा पहनने की सलाह दी...मन बल्लियों उछलने को आतुर हो उठा...वर्षो की साध जो पूरी हो रही थी ।आखिर सैकड़ों फ्रेम देखने के पश्चात् एक फ्रेम पसंद आया और अंततः चश्मा बन ही गया...शीशे में स्वयं को निहारा तो लगा वास्तव में आज वह बुद्धिजीवी लग रही है...मन की बात जब मानव को बताई तो वह हँस पड़े तथा कहा,‘ अरे भाग्यवान, चश्मे का अक्ल से क्या संबंध ? ’ 


मानव की हँसी सुनकर उसे बहुत क्रोध आया सोचा कहे...वाह रे वाह, कैसे इंसान हैं आप, जो बीबी की जरा सी तरक्की सह नहीं पातेे...पर चुप ही रह गई थी, सोचा क्यों तर्क वितर्क करके अपनी इस खुशी में बाधा डाले । वैसे इन मर्दो के लिये सदा दूसरे की बीबी गोरी लागे ही लागे पर अपनी बीबी घर की मुर्गी दाल बराबर होती ही है...।


और आज यह घटना....चश्मा लगाने की खुशी एकाएक तिरोहित हो गई थी...यह चश्मा उसकी बुद्धिमता को नहीं, उसकी बढ़ती उम्र को इंगित कर रहा है...दुख तो इस बात का था कि इतनी साधारण सी बात उसे पता नहीं थी वरना उसका यूँ मजाक तो नहीं बनता...अतः उसने घर आकर चश्मा जो उतारा लगाया ही नहीं ।

कभी मार्केट जाती तो रैपर पर लिखे प्राइस को न पढ़ पाने के कारण ऐसे ही रख लेती । एक दिन टोमेटो साॅस की बोतल खरीदते वक्त उसकी एक्सपाइरी डेट देखने की कोशिश करते हुये आँख मलने लगी । उसी समय उसकी पड़ोसन रमा आ गई तथा बोतल उसके हाथ से लेकर चश्मा ठीक कर डेट बताते हुए बोली,‘ कामिनी जी अब आप चश्मा लगवा ही लीजिये...सच इन सब प्रोडक्ट पर इतने महीन अक्षरों में लिख रहता है कि बिना चश्मे के पढ़ना मुश्किल हो जाता है । सहज स्वर में कहा रमा का वाक्य भी न जाने क्यों उसे मर्माहत कर गया । कैसी विडम्बना है ? एक समय था...जब वह चश्मा लगाने को लालायित रहती थी और अब जब लग गया है तब उससे दूर भागने लगी है ।

एक दिन दाल में कंकड़ आने पर मानव ने कहा,‘ अरे भाग्यवान, दाल जरा ढंग से बीना करो....इतना बड़ा कंकड़ भी नहीं दिखाई पड़ा....अब तो चश्मा भी बन गया है ।पहले तो मन में मिलावट करने वालों को गाली दी....कहाँ तो दुनिया इक्वकीसवीं सदी में प्रवेश कर चुकी है पर घर की गृहणी अभी भी अपना आधा समय अनाज चुनने में ही बिता देती है...आखिर कब सुधरेंगे लोग...? पर प्रकट में कहा,‘ चश्मा नहीं मिल रहा था, पता नहीं कहाँ रखकर भूल गई हूँ ।’


‘ अभी तो आंखें ही खराब हुई हैं...पर क्या यादाश्त भी कमजोर होनी प्रारंभ हो गई है ? तुम भी बच्चों के साथ आयुर्वेद का शंखपुष्पी सिरप पीना शुरू कर दो...आखिर बच्चे बूढ़े एक समान होते हैं ।’ मुस्कराते हुए मानव ने कहा ।

हो सकता है मानव ने यह सब मजाक में कहा हो फिर भी बूढ़े शब्द ने उसके आत्मविश्वास को डिगा दिया था...नहीं...नहीं वह बूढ़ी नहीं हुई है...। हाँ उम्र अवश्य थोड़ी बढ़ी है, उम्र के साथ शरीर में परिवर्तन भी आयेंगे...इन परिवर्तनों के साथ सामंजस्य बैठाना ही होगा । तभी सहज जीवन जीया जा सकता है, सोचकर टूटे आत्मविश्वास कोे एकत्रित करने का प्रयास किया चश्मा भूलने की बीमारी कामिनी को ऐसी लगी कि कभी वह किचन में चश्मा भूल आती तो कभी सिलाई मशीन पर और पूरा घर छानती फिरती । अब हाल यह हो गया कि जिस योजनाबद्ध रूप में वह काम करती आई थी उसमें बिलम्ब होने लगा । उसका अधिकतर समय चश्मा ढ़ूँढ़ने में ही निकलने लगा था । मानव के साथ बच्चे भी नसीहतें देते कि आप चश्मे की एक निश्चित जगह क्यों नहीं बना लेती जिससे आपको ढूँढना ही नहीं पड़े...।

बार-बार एक ही बात सुनते-सुनते एक दिन कामिनी ने झुँझलाकर कहा,‘ अब एक स़्त्री को सिर्फ पढ़ना ही नहीं है कि अपना चश्मा स्टडी टेबल पर रखे...कभी उसे किचन मे दाल बीननी है तो कभी सिलाई करनी है तो कभी बुनाई...तुम लोगो की फरमाइशें पूरी करते-करते इतना हड़बड़ा जाती हूँ कि ध्यान ही नहीं रहता कि चश्मा कब, कहाँ रख दिया ।उस दिन के पश्चात् सब चुप हो गये थे किन्तु सचमुच चश्मा अब जी का जंजाल बन गया था...कितना भी ध्यान से रखने की कोशिश करती लेकिन फिर भी गलती हो ही जाती थी...।


एक दिन सुबह वह किचन में नाश्ता बना रही थी कि स्वीटी और ओम ने उसके पास आकर कहा,‘ हैपी बर्थ डे ममा ।’


‘ थैंक यू बेटा ।’


‘ बच्चों इस खुशी में आज बाहर पार्टी...।’ मानव ने भी उसे विश करके बच्चों से कहा ।


‘ हिप-हिप हुर्रे...।’ दोनों ने एक साथ कहा । अपनी खुशी को व्यक्त करने का उनका यह पेटेंट वाक्य था ।


‘ अच्छा यह बताओ आज पार्टी के लिये कहाँ चलना है ?’


‘ और कहाँ, ममा के पसंददीदा रेस्टोरेंट बारबीक्यू नेशन में ।’ ओम ने कहा ।


‘ ओ.के...तुम्हारी ममा का या तुम दोनों का...।’


‘ पापा आप भी...।’


‘ ओ.के... तुम दोनों की इच्छा सर आँखों पर...।’


कामिनी की इस बार जन्मदिन मनाने की तनिक भी इच्छा नहीं थी...होती भी कैसे बुड्ढे होने का ठप्पा जो लग गया था उस पर…!! आखिर हर जन्मदिन बढ़ती उम्र को ही तो इंगित करता है...वह बच्चों को हत्तोसाहित भी नहीं करना चाहती थी । जैसे हम दोनों ओम और स्वीटी के जन्मदिन का इंतजार करते थे....वैसे ही वे दोनों भी हमारे जन्मदिन का इंतजार करते हैं । मना करने के बावजूद अपनी पाकेट मनी से पैसे बचाकर कुछ न कुछ उपहार भी देते हैं सच अपने नाम की तरह ही दोनों मन के बहुत ही अच्छे और सच्चे हैं ।

मानव आफिस से लौटते हुये केक ले आये थे...बच्चे और मानव जहाँ खुश थे वहीं आज कामिनी तैयार होते हुये पता नहीं क्यों अपने मन में पहले जैसा उत्साह एकत्रित नहीं कर पा रही थी...केक काटने के पश्चात् सबने अपने-अपने उपहार पकड़ाये...ओम और स्वीटी के इसरार पर जब उसने उन्हें खोलकर देखा तो तीनों में चश्मे पाकर वह आश्चर्यचकित मुद्रा में उन्हें देखने लगी ।

उसे आश्चर्यचकित देखकर ओम ने संयत स्वर में कहा,‘ डाॅट वरी माॅम, आप अपना चश्मा भूल जाती थी जिसके कारण आपको काम करने में परेशानी होती थी । अब एक चश्मा आप किचन में रख लीजिएगा, एक सिलाई मशीन पर तथा एक टी.वी. के पास....क्योंकि बुनाई तो आप टी.वी. देखते हुए ही करती हैं और हाँ एक अपने पर्स में...मार्केट जाने के लिये...। आपकी परेशानी कम करने के लिये ही इस बार हम सबने आपको एक ही उपहार देने का फैसला किया है । ’


ओम की बात सुनकर कामिनी को समझ में नहीं आ रहा था कि हँसे या रोये...। दुख तो उसे इस बात का था कि बच्चे तो बच्चे मानव भी इस योजना में शामिल थे...वह यह भी समझ पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी कि उन्होंने ऐसा सचमुच उसकी परेशानी दूर करने के लिये किया है या उसका मजाक बनाने के लिये...उफ ! यह चश्मा...सचमुच उसके जी का जंजाल बन गया है...कहकर वह बुदबुदा उठी थी ।


 

 

          







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