तुम्हें अब भी चॉकलेट पसन्द है -4
तुम्हें अब भी चॉकलेट पसन्द है -4
घर आकर खाना खाने के बाद मैं अमरूद के पेड़ पर जा कर बैठ गई। छोटी बहन भी आकर पेड़ की दूसरी डाली पर बैठ गई। थोड़ी देर हम दोनों ही एक दूसरी को देखती रहीं फिर वह फुसफुसाई," खरीद ली तूने चॉकलेट?"
मैंने इंकार में गर्दन हिलाई। " क्यों?", उसने तुरंत गोली की तरह दूसरा सवाल दाग दिया वैसे भी वह जब बोलती थी तो ऐसा ही लगता था कि गोली मार रही हो हालांकि उसकी आवाज बहुत पतली थी पर उसके बोलने का अंदाज ऐसा ही था।
" क्यों का क्या मतलब है, नहीं खरीद पाई आज।", मेरा भी मूड खराब था इसलिए उसी की टोन में जबाब देकर मैं थोड़ी दूर पर लटके हुए अधपके अमरूद को देख कर उसे तोड़ने के लिए अपनी डाल से दूसरी डाल की तरफ जाने लगी। मुझे उस अमरूद की तरफ जाते देखकर उसने चेतावनी देते हुए कहा," उसे मत तोड़ियो, वो मेरा अमरूद है। पहले मैंने देखा था उसे।"
" तो मैं क्या करूँ! पहले क्यों नहीं बताया,अब तो मैं तोड़ रही हूं।", मैंने गुस्से में जबाब दिया। हम दोनों के बीच मे तय था कि जो भी अमरूद पहले देख लेगा, तोड़ने ला हक भी उसी का होगा।
" जब तुझसे बात कर रही थी तभी तो देखा था पर मेरे बोलने के पहले ही तू वहां जाने लगी।", उसने मेरी डाली पर आने की कोशिश करते हुए कहा। इस डाली से दूसरी डाली पर आने के कारण उसने जिन शाखाओं को पकड़ा हुआ था उनके कुछ पत्ते उसके हाथ से टूट गए, इससे पहले कि उसका संतुलन बिगड़ता उसने फुर्ती दिखाते हुए डाल के ऊपर वाली शाखाओं को पकड़ लिया।
" तू झूठ बोल रही है न, तूने मेरे बाद देखा था।", उसके सम्भल कर मेरे पास वाली डाल पर आ जाने के बाद मैंने उससे कहा।
" नहीं मैंने ही देखा था और अगर अब तूने मुझे उस अमरूद को नहीं लेने दिया तो सोच ले... बता दूं मम्मी को कि.....", उसने मुझे हल्का सा धमकाते हुए कहा।
वह मौके का पूरा फायदा उठा रही थी । कोई और दिन होता तो मैं अब तक उससे लड़ाई कर चुकी होती लेकिन आज उसका पलड़ा भारी था और मुझे उसकी सब बातें तब तक माननी ही थी जब तक मुझे उसकी कोई शिकायत न मिल जाय।
अपनी कत्थई आंखों से वह मेरी आँखों मे देखते हुए अपने छोटे से मुँह को गोल बनाकर सीटी बजाने की कोशिश कर रही थी लेकिन सीटी की जगह उसके मुंह से पीं पीं की आवाज आ रही थी क्योकि उसे सीटी बजाना तो आता नहीं था।
मैं अब तक बुरी तरह खिसिया गई थी। झल्लाकर मैं पेड़ से नीचे उतर गई और परदादी के कमरे में जाकर सोमेश की दी हुई ड्राइंग शीट पर फूल - पत्ती बनाने लगी। तभी मम्मी ने आवाज दी," गुड़िया, फरहा आई है खेलने के लिए!"
" आई मम्मी।", मैंने ड्राइंग शीट को बस्ते में रख दिया और लगभग भागते हुए बरामदे में आई। " चल फरहा, छत पर चलते हैं।"
हम दोनों अपने अपार्टमेंट की छत पर आ गए। फरहा को अटकते - अटकते बस इतना ही बताया कि बुआ जी मुझे जो पैसे दे कर गई थी उनसे मुझे चॉकलेट खरीदना है इसलिए मुझे क्रॉसिंग के मार्केट में जाना था।
"उसके लिए इतनी दूर क्यों जा रही थी! पागल, यहीं हॉस्पिटल के पास वाली दुकान पर ही मिल जाएगी।", फरहा ने मुझ पर तरस खाते हुए अंदाज में कहा।
" अरे बेवकूफ, वह पापा को बता देगा। पापा को जानते हैं न सब लोग।"
" अरे कोई नहीं बताएगा। अच्छा ,एक काम करेंगे, तू मत कहना कि तुझे चाहिए, मैं खरीद कर तुझे दे दूंगी।", फरहा के इस उपाय को सुनकर मैं खुशी से उछल पड़ी।
" हाँ , ये सही रहेगा। चलें लेने?", मेरे पूछते ही उसने सहमति में सिर हिला दिया। मेरी इतनी बड़ी समस्या उसने चुटकी में हल कर दी थी। हमारा घर हॉस्पिटल के बराबर में ही था इसलिए जाने में कोई परेशानी थी। अक्सर हम बच्चे हॉस्पिटल के ग्राउंड में खेलने भी चले जाते थे। दो-दो सीढ़ी कूद कर लांघते हुए हम नीचे उतर आए। मैंने फरहा को बाहर ही रुकने के लिए कहा और घर में आकर रसोई में झांका, मम्मी खाना बनाने की तैयारी कर रही थी क्योकि परदादी जी को शाम को खाना चाहिए होता था। दादी और दादाजी और पापा ड्राइंग रूम में बैठे हुए चाय पी रहे थे। परदादी बरामदे में चारपाई पर बैठकर रामायण पढ़ रही थीं और बहन उनके पास बैठ कर सुन रही थी। किसी को मेरे आने का पता न चले यह सुनिश्चित करते हुए मैं परदादी के कमरे में गई ।बिना आवाज किये बस्ते से पैसे निकाले और उसी तरह दबे पांव घर से बाहर निकल कर एक गहरी सांस ली।
" ले आई पैसे!", फरहा ने पूछा।
" हाँ", कहकर हम दोनों तेजी से हॉस्पिटल के पास वाली दुकान पर गए। रास्ते में ही मैंने पैसे फरहा को पकड़ा दिए थे ताकि वही दुकानदार को पैसे दे।
" अमूल चॉकलेट है अंकल?", फरहा ने दुकानदार से पूछा। मैं इस तरह दिखा रही थी जैसे मुझे फरहा की बात से मतलब ही नहीं, मैं तो बस यूं ही उसके साथ आ गई हूं इसलिए मैं दुकान के आस - पास देख रही थी मगर मेरे कान फरहा और दुकानदार की बातों पर ही लगे हुए थे।
" अमूल तो नहीं है।", यह सुनते ही मेरा दिल धक्क से बैठ गया। " फाइव स्टार है।"
फरहा उसके सामने मुझसे कुछ पूछ भी नहीं सकती थी इसलिए उसने दुकानदार से फाइव स्टार ही खरीद ली।
" यह पता नहीं कैसी होगी?", दुकान से वापिस आते हुए मेरा मन खिन्न था। फरहा ने चॉकलेट और बचे हुए पैसे मेरे हाथ में रखते हुए कहा, " तुझे पता है कि मुझे कितना डर लग रहा था... ले ली बस... और तुझे तो चॉकलेट खानी है न , इसे खा ले...और सुन, मुझे भी खिलाएगी न?", मैं उसे खिलाना नहीं चाहती थी लेकिन अब तो मजबूरी थी। हालांकि घर में और स्कूल में यही सिखाया गया था कि मिल - बाँट कर खाना चाहिए लेकिन इतनी स्वादिष्ट चॉकलेट और फिर इतनी महंगी( टॉफी की तुलना में तो काफी महंगी होती है चॉकलेट) ......, खैर जी कड़ा कर मैंने झूठी मुस्कुराहट बिखेर कर कहा," तू तो मेरी पक्की सहेली है, तुझे क्यों नहीं खिलाऊंगी। छत पर चलकर खाएंगे।"
छत पर जाकर मैंने उसे एक छोटा सा टुकड़ा तोड़ कर दिया और खुद भी एक छोटा सा टुकड़ा तोड़कर मुँह में रखा। " अहा, स्वाद तो इसका भी अच्छा है।"
" मैं कह रही थी न...", फरहा ने शेखी बघारी। " और दे न।"
" नहीं, अब ये बची हुई चॉकलेट मैं छोटी बहन को भी खिलाऊंगी।", अपनी चॉकलेट उस लालचिन फरहा से बचाने के लिए मैंने दुबारा झूठ बोल दिया।
फरहा का मुँह बन गया लेकिन वह मुझसे जबरदस्ती नहीं ले सकती थी आखिर खरीदी तो मैंने ही थी और उसको भी चखा दी थी।
" आज अम्मी और पापा में फिर से लड़ाई हुई।", थोड़ी देर चुप रहने के बाद फरहा ने बताया।
" क्यों?"
" पता नहीं, पापा कह रहे थे कि अम्मी को तलाक दे देंगे। अम्मी पापा के जाने के बाद खूब रोईं।", फरहा अपनी अम्मी के दुख से दुखी हो गई।
" तलाक क्या होता है?", मैंने अंसमजस में पड़कर पूछा।उस समय हमारी उम्र के बच्चे इन सब शब्दों के मतलब भी नहीं जानते थे लेकिन फरहा को शायद उसकी अम्मी ने बताया था।
" तलाक मतलब पापा अम्मी को उनके अम्मी अब्बू के घर छोड़ देंगे और हमारे लिए फिर नई अम्मी ले आएंगे।"
फरहा के चेहरे पर उदासी और गहरी हो गई।
" तू ऐसा मत होने देना फरहा।", मुझे बात अच्छी तरह समझ नहीं आई थी लेकिन मैं घबरा गई थी। अब रात होने वाली थी इसलिए हम दोनों छत से उतर कर अपने- अपने घर में चले गए। चॉकलेट मैंने अपने पेंसिल बॉक्स में छिपा दी थी। खाना खाते हुए भी मेरे दिमाग में फरहा की बताई बात ही घूम रही थी।
" दादी, आपको पता है, फरहा के पापा उसकी अम्मी को तलाक दे रहे हैं।", दादी के हाथ से कौर निगलते हुए आखिरकार मैंने उनको बता ही दिया।
" तुमको किसने कहा यह?", दादी जी ने पूछा।
" फरहा ने, बहुत उदास थी बेचारी।"
" कुछ नहीं होगा, ये सब बेकार की बातें हैं। गुस्से में कहा होगा। खाना खाओ।", दादी ने मुझे बहलाते हुए कहा और एक कहानी सुनानी शुरू कर दी। उस समय लोग इन सब बातों का जिक्र भी बच्चो के आगे करने से बचते थे, कम से कम हमारे घरों में तो यही माहौल देखा था मैंने।
दादी की कहानी सुनते- सुनते मैं फरहा की बताई बात भूल गई। खाना खाकर मम्मी के पास बैठकर होमवर्क पूरा करके मैंने सोने के लिए अपनी चारपाई बिछाई। बिस्तर पर बैठते ही मुझे अपनी चॉकलेट याद आ गई।
"कल स्कूल में चॉकलेट खाऊँगी, थोड़ी सी सोमेश को भी दे दूंगी,बेचारा अक्सर मेरे लिए टॉफी लाता है। ... नहीं , रहने देती हूं फिर कभी टॉफी ही दे दूंगी उसे।", इतनी मेहनत -मशक्कत के बाद हासिल हुई चॉकलेट को बांटने के लिए मेरा मन नहीं मान रहा था।
मेरे पास अब भी काफी पैसे बचे हुए थे। "उन पैसों से रोज खट्टा - मीठा चूरन और बर्फ का गोला खरीद सकती हूं।", पापा कभी भी इन चीजों को नहीं दिलवाते थे, उनका कहना था कि इन सबसे तबियत खराब हो जाती है और मुझे लगता था कि स्कूल के इतने बच्चे रोज खरीदते हैं वे फिर बीमार क्यों नहीं पड़ते। पापा की इस बात पर इसलिए भी भरोसा नहीं था क्योंकि बबीता ने मुझे कई बार चूरन खिलाया था पर मैं कभी बीमार नहीं पड़ी हाँ बर्फ का गोला कभी नहीं खाया था।
आज न जाने क्यों नींद नही आ रही थी। मैंने कमरे के साथ बने स्टोर रूम में जाकर चंपक निकाली और लेटे-लेटे कहानियां पढ़ने लगी। कहानी पढ़ते हुए मुझे आसानी से नींद आ जाती थी। थोड़ी देर बाद किताब तकिये के पास रखकर मैं सो गई।
( क्या होगा अगले दिन का मेरा प्लान... क्या वह चॉकलेट मैं अकेले खाऊँगी या फिर किसी के साथ शेयर करूँगी और अंजू... अंजू लंच टाइम में कहाँ जाती है? इन सब सवालों के जबाब के साथ मिलते हैं अगले भाग में। तब तक अपना और अपने परिवार का ख्याल रखिये।)