टूटी चप्पल का वो जोड़ा
टूटी चप्पल का वो जोड़ा
रफ़्तार से चलती ट्रेन अचानक एक छोटे से स्टेशन पर रुक गयी। सभी यात्री तेजी से चढ़ने -उतरने लगे। शायद दो मिनट का ही स्टॉपेज था। लेकिन अब पांच मिनट होने को आए और ट्रेन अभी भी रुकी हुई थी। सबको अंदेशा हो गया कि अभी ये ट्रेन इस स्टेशन पर आधा-पौना घंटा तो रुकेगी ही। छोटे शहरों के लोकल ट्रेनों का यही हाल होता है। जब चली तो ठीक वरना कोई एक्सप्रेस ट्रेन की सिग्नल हो जाने पर इसे किसी स्टेशन पर रोक ही दिया जाता है।जहाँ कभी कभी घंटे भी लग जाते है। लाइन क्लियर होने में।
गर्मी का दिन था। लोकल ट्रेनों में पंखे भी बंद थे। अच्छी चीज ये थी की ट्रेन किसी छोटे से स्टेशन पर रुकी थी। ट्रेन से कुछ यात्री पानी और खाने की सामग्री लेने प्लेटफॉर्म पर उतरने लगे। मेरे बेटा को भी गर्मी से परेशान था और ट्रेन को रुका हुआ देख उतरने की जिद्द करने लगा। मेरे पति और भाई भी साथ थे सो वो उसे प्लेटफार्म पर घुमाने लगे। मेरे बगल वाले ही कम्पार्टमेंट में एक मौलवी साहब बैठे थे। उनके साथ तीन खातूने बुर्क़ा पहने हुए बैठी थी। साथ में दो-तीन छोटे बच्चे भी थे। सलवार कमीज़ पहने लड़कियाँ भी थी। उनमें एक बच्ची, यही कोई आठ -नौ साल की होगी। काफी चुलबुल सी थी। ट्रेन रुकते ही पहले तो वो पूरे कम्पार्टमेंट में चक्कर लगाई। फिर ट्रेन से प्लेटफॉर्म पर उतर गई। वहाँ वो यूं ही कभी चापाकल चलाती। तो कभी फिर से उछल कर ट्रेन में चढ़ जाती।
एक दूसरी बच्ची जो उससे बड़ी थी, वो शायद चौदह साल की होगी। उसे बार बार डॉट कर बैठने को बोलती। पर वो छोटी बच्ची बहन की डांट सुनकर कुछ देर शांत बैठती। फिर वही उछल कूद शुरू कर देती। शायद वो तीनों खातूने माँ और दादी और बुआ थी। माँ छोटे बच्चे को सम्हालने में लगी थी। मौलवी साहब अपनी माँ - बहन से बातों में लगे थे। तभी प्लेटफॉर्म से ट्रेन में चढ़ने हुए उस छोटी बच्ची का चप्पल निकल गया और प्लेटफॉर्म और ट्रेन के बीच के गैप से पटरियों पर जा गिरा।
उछल कूद मचाती वो बच्ची एकदम से शांत ही गयी। बड़ी बहन भी उसे डांट कर वापस अपनी अम्मी के पास बैठ गयी। वो बच्ची ट्रेन के दरवाज़े का हैंडल पकड़े मायूस सी अपनी चप्पल को देखने लगी। मौलवी साहब भी ये देख कर आए और बच्ची को डांट कर आकर बैठने को बोले।
पर बच्ची वही दरवाज़े के पास खड़ी हो अपने चप्पल को निहार रही थी। उसके इस तरह खड़े होने के कारण कुछ लोग पास आकर वजह भी पूछने लगे। मेरे पति और भाई भी आकर माजरा समझने का प्रयास करने लगे। बच्ची के आँखों में अबतक तो आँसू आ गए थे। सभी उसे सान्त्वना देने लगे। जो चप्पल वो पहनी थी उसपर एक दो सिलाई भी चली थी। ये देख कुछ लोग बोले-
"जाने दो, जाकर बैठो। चप्पल तो टूटी ही है तुम्हारी। अब नया ही ख़रीद लेना।"
पर उसका बिसुरना बदस्तूर जारी रहा। मौलवी साहब भी अब थोड़े नरम पर गए। वे भी उसे नया चप्पल खरीदने का वादा करने लगे। पर बिटिया पर कोई असर ना था। कुछ लोग चप्पल निकलने का उपाय सोचने लगे, तो कोई लकड़ी की तलाश करने लगे, जिसके सहारे चप्पल को पटरी से प्लेटफॉर्म पर खिंचा जा सके। सभी इसी उधेड़बुन में थे, तभी ट्रेन खुलने की अनाउंसमेंट होने लगी सभी लोग अपनी अपनी सीट पर आकर बैठने लगे। और साथ ही उस बच्ची को भी ट्रेन में आकर बैठने को बोलने लगे।
अचानक वो बच्ची बिजली की गति से ट्रेन के दूसरे दरवाज़े से पटरियों पर जा उतरी और ट्रेन के नीचे से जाकर अपना चप्पल निकाल ली और उतनी ही तेजी से वापस फिर ट्रेन में चढ़ गई। उसकी इस हरकत को देख सबका दिल हाथों में आ गया। तब तक ट्रेन भी सीटी दे चुकी थी और पटरियों पर फिसलने लगी।
सारे लोग उसे घेर कर उससे इस हरकत की वजह पूछने लगे और कुछ तो डांट भी रहे थे।
पर वो मुस्कुराते मासूमियत से बोल रही थी -
"अगर टूटा वाला चप्पल गिरता तो छोड़ भी देती पर मेरा बढ़िया वाला चप्पल ही गिर गया। इसे कैसे छोड़ती।"
मुझे तो उसकी दलील ही सुनकर हँसी आ गयी।
सच में, बच्चों के दिमाग कब, कहाँ, कैसे और क्या सोच लेता हम भी अनुमान नही लगा पाते। कभी कभी उनकी ये शैतानीयाँ कितने बड़े खतरे को भी निमंत्रण दे देती है। पर दलीलें उनकी हमेशा लाजबाब ही कर जाती है। उस बच्ची को नये चप्पल का प्रलोभन भी पुराने चप्पल का प्रेम न मिटा पाया था।