सुबह का भूला : मन ही मन
सुबह का भूला : मन ही मन
मैं बूढ़ी हो चुकी हूँ। मैंने तो आज तक कभी ऐसा नहीं माना। पर आज मुझे इस बात को सोचना पड़ा। बड़ा मजबूर होकर सोचना पड़ा। यदि कोई ऐसी वजह होती कि उम्र की वजह से मुझे ये महसूस होता, तो मैं मान भी लेती। बदन की थकान और उम्र की झुर्रियों से परेशान होने पर भी खुद को किसी तरह समझा लेती। लेकिन मुझे अपनी सोच बदलकर इस सोच पर ढलने के लिए मजबूर किया गया। और मजबूर करने वाला भी कोई और नहीं, नलिन था।
एक जिंदगी के जुड़ने से जिंदगी कितनी बदल जाती है! इतनी बार देखा, इतनी बार महसूस किया, पर एक बार भी नये जुड़ाव को लेकर ये नयापन एक पल को कम न हुआ।
पहले मैं माँ से जुड़ी। फिर माँ ने खुशियों की सौगात बनाकर एक भाई तोहफे में दिया। फिर पापा एकदम से जाने कहाँ चले गये? माँ ने फिर एक पापा भी लाकर दिया। नया मिलने की खुशी उतनी ही थी, पर शायद उनको नहीं। फिर नये पापा ने एक-एक करके चार बहनें मेरी गोद में लिटा दीं। चार बहनों के बाद एक बार फिर से एक भाई मेरी गोद में खेलने के लिए तैयार था। पर उस भाई के आने के बाद माँ हमें छोड़कर चली गयीं। फिर थोड़े दिन बाद नये पापा एक नयी माँ घर में ले आये। सात भाई बहनों ने मिलकर नयी माँ को ढेर सारा प्यार दिया। नयी माँ ने भी उतना ही प्यार सभी को हिस्से से बाँटा। सबसे बड़ी होने के नाते सबसे ज्यादा प्यार मेरे हिस्से में आया। पर ज्यादा वक्त के लिए नहीं। नयी माँ ने दुलहन बनाकर मुझे मेरे घर से अलग कर दिया।
घर से निकलते हुए लगा था, जैसे मुझसे मेरा सबकुछ छीन लिया गया हो। पर इतना कुछ छीनने के बाद जिंदगी फिर से नये तरीके से मुझसे इतना ज्यादा जुड़ जायेगी, अन्दाजा न था। शादी के बाद से तो पति के लिए जैसे मैं ही सबकुछ थी। माँ-पापा, भाई-बहन हर कोई था उनकी जिंदगी में। पर जितनी मैं, उतना कोई नहीं।
पति के प्यार के संग नये घर में कब दो साल गुजर गये, कुछ पता ही न चला। और फिर अचानक से जिंदगी ने एक मोड़ और बदला। मैं खुद माँ बनी। अजनबी सी खुशियाँ जैसे ढेर बनकर मुझ पर बरस पड़ीं। पर भगवान जी को शायद इतना ज्यादा मेरे हिस्से में मंजूर न था। बेटे को माँ और पिता का दुलार मुश्किल से आठ महीने के लिए नसीब हुआ होगा। एक दुर्घटना में पति चल बसे। भगवान ने खुशियों का एक सहारा दिया था, तो दूसरा छीन लिया। तकदीर के खेल के मायने अब अच्छी तरह से समझ आने लगे थे मुझे। इसी तकदीर के सहारे अब जिंदगी को जीना था।
एक बार तय हो गया कि जिंदगी क्या है, फिर तो कुछ भी ज्यादा मुश्किल न था। पति के छोड़कर चले जाने के बाद ससुराल वालों ने तो जैसे मुँह ही फेर लिया। जिस घर से एक बार विदाई हुई थी, दो-चार दिन वहाँ गुजारने के बाद ही पता चल गया कि अब ये घर वो घर न था, जहाँ पूरा बचपन बीता था। पति के छोड़कर जाने के महीने भर के भीतर ही पता चल गया कि अब अपनेपन की ख्वाहिश को पूरा करने वाला केवल ये बेटा ही था, जो मेरी गोद में था।
एक बार जिंदगी हर हाल में जीने की जो ठान ली, अब हर खुशी बेटे से ही थी। बेटे को जो पसंद, वो मुझे पसंद। जो बेटे को चाहिए होता था, वही घर में आता था। जिसके लिए एक बार बेटे ने गुजारिश भर कर दी, उसे तो जैसे पूरे घर की ही सबसे बड़ी जरूरत बना देती थी मैं। पहले घर, फिर स्कूल, फिर कालेज, कोई ऐसी जगह नहीं थी, जहाँ बेटे के मन की कोई ख्वाहिश अधूरी रह गयी हो। समय के इस सफरनामे के दौरान ध्यान ही न रहा कि उम्र नाम की हकीकत पंख लगाये उड़ती जा रही थी।
बेटा नलिन जवान हो चुका था। जवानी के रंग में ढले उसके अपने सपने थे, उसकी अपनी ख्वाहिशें थीं। जिस बेटे के बचपन को अपनी कुर्बानियों से संवारा, उसकी जवानी की जरूरतों का ध्यान रखने में भला क्या परेशानी थी!
कॅालेज के बाद आगे और ऊँची पढ़ाई के लिए मोटी रकम की जो जरूरत आन पड़ी, तीर्थ-यात्रा के बहाने से बेटे से दूर जाकर अपनी किडनी तक बेच डाली। नये माहौल में नये दोस्तों के बीच बेटे की इज्जत के दिखावे के लिए रोज-रोज की हर नयी फर्माईश पर रूपयों की जरूरत को कभी अपनी मजबूरी न बनने दिया। जिस तरह जवानी के दिनों में दूसरों के घर बर्तन माँजकर, झाड़ू-पोछा करके और सिलाई-कढ़ाई वगैरह-वगैरह करके पाई-पाई जोड़ती थी, वही सब काम बदन की हर कमजोरी, बुढ़ापा दिखाती हर सूरत के बावजूद जारी रखा।
इतना जो सब्र दिखाया, आखिरकार उस दिन उसका नतीजा भी आया। बेटे ने खुद आकर खुशखबरी सुनायी। खुशखबरी भी सुनायी और मंदिर के भगवान से पहले मेरा मुँह मीठा कराया कि उसको नौकरी मिल गयी थी। बेटे की नौकरी का मतलब था कि जिस माँ ने इतने बरसों जो तिल-तिल करके जिन्दगी काटी, उसे अब दो जून की रोटी के लिए घर से बाहर नहीं निकलना था। अब उस माँ को खुद काम माँगने के लिए किसी के सामने हाथ नहीं फैलाने थे। अब उस माँ के लिए घर में बैठने और आराम का वक्त था।
माँ ने जो कुछ भी दिल में सोचा, नलिन ने ठीक वही जिन्दगी, वही खुशियाँ माँ के पैरों में लाकर रख दीं। नलिन ने अपनी माँ को मशीनी मजदूरों की तरह काम करते देखा था। अपनी माँ के दर्द, उसकी जरूरतों को वो आखिर भला कैसे न समझता। पर इतना सबकुछ करने के बावजूद, जरूरत की हर चीज खरीदकर लाने के बावजूद, घर के भीतर माँ को वो जो आराम देना चाहता था, उसका कोई इलाज नलिन के पास न था। नलिन की इस परेशानी को ताड़ते माँ को जरा भी वक्त न लगा। माँ ने फौरन ही जान-पहचान और वक्त की दहलीज पर पीछे छूट गये रिश्तेदारों की ओर रूख किया। कोशिशों से अंजाम निकलने में बस उतना ही वक्त लगा, जितना वक्त जान-पहचान वालों तक खबर पहुँचने में लगा। बस फिर मुश्किल से महीने भर की बात रही होगी और माँ के लिए एक खूबसूरत सी बहू नलिन की बीवी बनकर उनके घर में आ गयी।
जैसा नलिन चाहता था, शादी के बाद घर के भीतर खुशियाँ बिल्कुल उन्हीं रंगों में फबने लगीं। नलिन की बीवी सारिका ने बहू होने के सारे फर्ज बड़े अच्छे से निभाये। सुबह की चाय से लेकर घर की साफ-सफाई, नाश्ता, खाना, आने-जाने वालों का स्वागत और ऐसी किसी एक भी चीज के लिए माँ को अपने बिस्तर से हिलने की जरूरत भी न पड़ती। बहू ने माँ को इतने सुख दिये कि किसी और तमन्ना की तो जैसे आस ही न रह गयी। पर खुद की तमन्नायें पूरी होने से जो जिन्दगी की खुशियाँ पूरी हो जातीं, फिर तो बस बात ही क्या थी!
शादी के बाद एक साल पूरा होते-होते नाते-रिश्तेदारों, अड़ोसियों-पड़ोसियों के मुँह खुलने लगे। सभी के हिसाब से इतने वक्त में सारिका की गोद में नलिन के वंश का चिराग आ जाना चाहिए था। ऐसा नहीं था कि नलिन और सारिका को इस बात का इल्म न था। लेकिन नलिन के लिए लोगों की बातों से ज्यादा जरूरी अपनी उस माँ की सेवा थी, जिसे अपनी जिन्दगी में उसने इससे पहले कभी ईत्मीनान से आराम करते न देखा था। लेकिन वही माँ अब खुद समाज के ठेकेदारों के सवालों की पैरवी करने लगी थी। आये दिन जब नलिन घर में नहीं रहता, वो सारिका को तरह-तरह से समझाती। दो-एक बार तो माँ ने खुद नलिन से इस बारे में बात की। नलिन ने माँ को बिठाकर बड़े आराम से समझाया कि उसे भी वक्त की जरूरत और वक्त की कीमत अच्छी तरह से पता है। पर जिन्दगी में कुछ प्राथमिकतायें होती हैं, जिनको नलिन अपनी जिन्दगी में अलग दर्जे पर रखता था। नलिन के लिए औलाद और समाज से ज्यादा कीमती उसकी खुद की माँ थी।
नलिन ने जो भी कहा, माँ ने सब चुपचाप सुन लिया। माँ ने सब समझ भी लिया। लेकिन घर में आने-जाने वालों को माँ भला कब तक और क्या समझाती! लोगों से वो जो कुछ भी सुनती, सब सीधा-सीधा सारिका को सुना देती। पूरा दिन घर के भीतर साथ रहने वाली बहू और सास के बीच बातों के लिए आखिर कोई तो मुद्दा चाहिए ही था। रोज-रोज की दलीलों और इतनी तरह की बातों का नतीजा ये हुआ कि शादी का दूसरा साल पूरा होते-होते सारिका को गोद में परी नाम का खिलौना आ गया।
अब जब सारिका की गोद में बच्ची थी, घर के कामों पर पहले की तरह उतना ध्यान दे पाना भला कहाँ उसके बस की बात थी! पर इस वक्त नहीं, नलिन ने तो उसी वक्त से सारिका के घर के कामों पर हाथ लगाने से पाबन्दी लगा दी थी, जब से उसे पता चला था कि सारिका के गर्भ में एक नयी जिन्दगी अपना वजूद पा चुकी है। तब से अब तक घर के अन्दर से लेकर सारे काम माँ ही करती आयी थी। माँ उन सभी कामों को करने में खुश थी, क्योंकि मुहल्ले-समाज वालों को जवाब देने के लिए ही ये सब करना पड़ रहा था। वैसे भी ये कुछ दिनों की ही बात थी। एक बार सारिका उनके वंश के चिराग को उन्हें सौंपती, उसके बाद तो घर की जिम्मेदारी उस बहू को ही तो निभानी थी।
होते-होते अब परी साल भर की होने को आयी थी, लेकिन सारिका ने घर के एक काम में हाथ बँटाने में जिम्मेदारी न समझी थी। माँ को पानी सर के ऊपर से गुजरता महसूस हुआ, तो मन की बात को होठों पर ला देना ही उसे सही लगा। बात उसने साीधे सारिका से की-
‘‘बहू! तुम काम करने की हालत में नहीं थी, तो मैंने खुद कुछ भी नहीं कहा। पर परी के आने के बाद से घर के अन्दर कामों की जिम्मेदारियाँ बढ़ गयी हैं। कम से कम रसोई के अन्दर अपनी बेटी के हिसाब से बनाने-खिलाने की जिम्मेदारी तो तुम्हें देखनी ही चाहिए।‘‘
सारिकी ने जैसे सुनी, वैसे सुना भी दी-
‘‘माँ जी, मुझे भी ऐसा कोई शौक नहीं कि कमरे के अन्दर बैठ कर पूरा दिन बच्ची के आगे-पीछे घूमती रहूँ। जो भी है, सब आपके बेटे का फैसला है। उन्होंने ही मुझसे कह रखा है कि न तो मुझे एक पल के लिए परी को अकेला छोड़ना है और न ही घर के किसी काम को हाथ लगाना है।‘‘
नलिन का ये फैसला माँ के लिए बड़ा अटपटा था। पर माँ भी समझ सकती थी। जिस तरह अपनी औलाद की खुशी के लिए उसने जाने कहाँ -कहाँ तक का जोर लगा डाला था, उसी तरह नलिन भी नहीं चाहता था कि उसकी नन्हीं बेटी को किसी भी पल में किसी कमी का अहसास हो। नलिन आखिर अपनी माँ का ही बेटा था। उसने अपनी औलाद के आराम और उसकी खुशियों के बारे में तब से सोचना शुरू कर दिया था, जब से परी अपनी माँ की कोख में थी। औलाद के लिए बेटे के फैसले माँ को जरा भी बेवजह न लगे। अपने बेटे और अपनी पोती के लिए उसे काम का हर रूप, हर फैसला हर हाल में मंजूर था और माँ को इस बात का जरा भी गम न था।
देखते-देखते परी ने उम्र कें पाँचवें बरस में कदम रखा। नलिन ने सारी जाँच-पड़ताल के बाद अपनी बिटिया का दाखिला शहर के सबसे अच्छे स्कूल में कराया। स्कूल जितना बड़ा था, उसके नियम भी उतने ही बड़े थे। बच्चे के स्कूल के अन्दर जाने के लिए और फिर स्कूल से बाहर आने के लिए ये जरूरी था कि बच्चे के परिवार का कोई न कोई सदस्य स्कूल के दरवाजे पर पहुँचे। साथ ही वहाँ ये भी नियम था कि बच्चे के परिवार का जिम्मेदार व्यक्ति स्कूल में दिन भर में बच्चे के किये गये कामों का बहीखाता बच्चे की डायरी में लिखवाकर जाये। परी के साथ स्कूल में ये सब काम करके आने के बाद भी घर के भीतर खाना बनाने की जिम्मेदारी अभी तक माँ की ही थी।
शुरू-शुरू में सब बड़े आराम से चलता रहा। परी के साथ स्कूल जाना, लौटकर आना, फिर खाना बनाना, फिर स्कूल जाना और परी को लेकर आना, शाम को फिर से खाना बनाना, माँ को बिना थके ऐसे काम करने की कई सालों की आदत थी। लेकिन परी को तो अभी जिन्दगी ने रंग दिखाने शुरू किये थे। परी के साथ के सभी बच्चों को छोड़ने के लिए अधिकतर उनके माँ-बाप ही संग आते थे। दादी की उम्र का जो असर उनके चेहरे और उनके डील-डौल में साफ नजर आता था, उसे परी ने महसूस करना शुरू कर दिया था। परी को महसूस होने लगा था कि दादी के साथ की वजह से उसके साथ के बच्चे उसे चिढ़ाते थे। स्कूल के अन्दर जाने के लिए और स्कूल से बाहर आने के लिए दादी का साथ उसकी मजबूरी थी। पर अब वो कोशिशें करने लगी थी कि उसके साथ के बच्चों को उसकी दादी उसके इर्द-गिर्द कम ही नजर आयें।
स्कूल से बाहर निकलते ही परी अपनी दादी के हाथ से अपनी उंगली छुड़ाकर आगे भागने लगती। सुबह स्कूल आते समय भी वो कुछ ऐसे ही आगे-आगे भागती कि दादी को डर ही लगा रहता कि कहीं कुछ उल्टा-सीधा न हो जाये। दादी ने कई बार परी को समझाने की कोशिश की। पर परी को तो जैसे उनकी किसी बात से कोई मतलब ही नहीं था। जाने-अनजाने कहीं कुछ अनहोनी न हो जाये, इससे पहले सारी मुश्किलें, सारी बातें बेटे को बता देना ही सही था।
माँ ने मौका देखकर एक दिन सारी बातें नलिन के सामने रख दीं। उनके आशय से कुछ-कुछ जाहिर हो रहा था कि वो चाहती हैं कि परी की जिम्मेदारी परी की माँ उठाये। और यही वो मौका था, जिसका नलिन जाने कितने दिनों से इंतजार कर रहा था। माँ के सामने उसकी जुबान खुली और वो बोलता गया-
‘‘बस थक गयीं आप जिम्मेदारी उठाकर। आप एक बच्ची की इतनी सी जिम्मेदारी संभाल नहीं सकतीं और इसी के लिए आप हमारे पीछे पड़ी थीं। आप ही को तो चाहिए थी न ये औलाद। अपनी औलाद और उसकी सेवा से आप भला कहाँ खुश थीं। आप को तो समाज वालों और रिश्ते-नातों वालों की सुननी थी न! आपकी बहू और मैं हम दोनों मिलकर चाह रहे थे कि मिलकर आपके दुःख-दर्द कम करें। पर आपकी तो कुछ और ही ख्वाहिश बन पड़ी थी। कर दी आपकी मर्जी पूरी। जिनकी सुनने से आपको सब अखर रहा था, लीजिये, अब सुनाइये सबको। जाकर बताइये कि आपके घर में बेटे ने चिराग खिलाकर दिया है। अब आप दादी हैं। बूढी सही, पर आप दादी हैं। ऐसी दादी हैं आप, जिससे आपकी ही पोती बचकर दूर भागने की कोशिश कर रही है। जाइये, सब बताइये सबसे जाकर।‘‘
नलिन चुप हुआ और फिर चुपचाप बाहर निकल गया। न मेरे पास अब कोई सवाल था और न ही कोई जवाब। हाँ! बस इतना जरूर पता था मुझे कि मैं बूढ़ी हो चुकी थी और मेरे बेटे के हिसाब से बुढ़ापे का ये दुःख मैंने खुद अपने हिस्से में चुना था। शायद ये मेरी ही गलती थी कि जिस समाज और जिन रिश्तेदारों ने कभी मेरे किसी गम की नहीं सुनी, मैंने उनकी सुन ली थी। और मेरा बेटा, जो अपने दिल ही दिल में मेरे जाने क्या-क्या सोचता रहा, मैंने कभी भी उसकी सुनी ही नहीं, कभी उसकी कुछ भी समझी ही नहीं। माँ सब सोच रही थी और बेटा नलिन अपने दिमाग की हर सोच को माँ पर खाली करके घर के एक अलग कोने में अकेला चुपचाप सुबक रहा था।
