S R Daemrot (उल्लास भरतपुरी)

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S R Daemrot (उल्लास भरतपुरी)

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सामाजिक असहयोग कितना घातक

सामाजिक असहयोग कितना घातक

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आमतौर पर तो यही सुना जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, लेकिन दिन सौ बार ऐसा लगेगा मनुष्य सामाजिक प्राणी न होकर स्वार्थी, अवसरवादी और निहायत ही घटिया किस्म का जीव है जो दूसरे के किसी काम का नहीं है। ये इल्जाम निराधार नहीं लगा रहा हूँ अपितु वर्षों के अनुभव के बाद यह सच्चाई सामने आई है। आइये इसी को समझने का प्रयाश करते हैं..


कुछ वर्ष पूर्व की बात है गांव के एक आदमी के पीछे कुछ लोग इस प्रकार अंधे होकर लग गए थे जैसे कि वह बहुत बड़ा व्यक्ति है और उसकी हर बात को मानते थे , दरअसल यह व्यक्ति तेज तर्रार दिमाग वाला ,बहुत मीठा बोलने वाला ,खतरनाक मनोवृत्तिवाला साथ ही लोगों को झांसा देने में इसे महारत हासिल थी इनका नाम था "मीतू" । हालांकि मीतू सपरिवार दूर किसी शहर में रहता था। वैसे तो इसके कारनामों की एक लंबी सूची हैं परंतु इस समय उसकी राम कहानी लिखने का मेरा इरादा बिल्कुल नहीं है । 


      इस कहानी में मैं गांव के लोगों की संवेदनहीनता, आपसी असहयोग, एक दूसरे की टांग खिंचाई, ईर्ष्या, जलन तथा परिवार और रिश्तेदारों की गैर जिम्मेदाराना हरकतों के ऊपर आप सभी का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। मीतू ने किसी तरह जुगाड़ करके गांव के ही एक नौजवान को सरकारी नौकरी दिलाने में अपनी भूमिका अहम निभाई थी जिसका असर गांव के लोगों पर पड़ रहा था । मीतू भी अपने हाव भाव से दिखाना चाहता था कि जैसे वह गांव के कई अन्य लोगों को भी सरकारी नौकरी दिलवा सकता है । गांव के एक परिवार के लोग तो मीतू की बातों से इतने प्रभावित हो चुके थे कि समझ रहे थे मीतू उनके लड़के को भी कहीं छोटी मोटी नौकरी का बंदोबस्त करा कर ही रहेगा। वैसे यह परिवार गरीब था साथ ही इसके सदस्यों का दिमाग औसत दर्जे का था। कुछ दिन बाद जब गांव लोगों को यह पता चला कि यह परिवार मीतू के जाल में ठीक तरह से फंस गया है तो इसी गांव के कुछ लोगों ने इनको समझाने का प्रयास किया और आशंका जताई कि आप लोग अपने मोहल्ले को छोड़कर दूसरे मोहल्ले में जाकर मीतू से मिल तो रहे हो लेकिन सावधान रहना कहीं "अंगूर खट्टे न हो जायें" ।


हालांकि इस बात में दम था लेकिन मीतू इस परिवार के लोगों की बुद्धि के न्यूनतम बैलेंस का फ़ायदा उठाकर उन पर न केवल पूरी तरह से आधिपत्य जमा चुका था अपितु इनको जैसे सम्मोहित कर चुका था। परिवारका अशिक्षा और अहंकार के कारण इनका बुद्धि पर नियंत्रण नहीं के बराबर था। इस परिवार में मां बाप के अलावा दो भाई मन्नू और सन्नु थे मन्नू शादी शुदा और उसके कई बच्चे थे ,छोटा मोटा काम करके अपने परिवार की गुजर बसर कर रहा था, जबकि उस छोटा भाई सन्नू बेरोजगार था । ये परिवार अंधे होकर मीतू के पीछे पड़ गया था। ये लोग मीतू के घर, खेती या जो भी काम उनको बताता नौकरी के लालच में नि:शुल्क सेवा देने से भी नहीं हिचकिचाते थे बल्कि स्वयं को उसके काम करते समय गौरवान्वित भी महशूस करते थे। मीतू भी इनको नौकरी के लालच में इस तरह प्रयोग करने लगा जैसे कि बहुत बड़े स्तर का अधिकारी हो। 


मीतू का गांव में उसके पड़ोसी से पुराना भूमि विवाद चल रहा था, जिसके निपटारे के लिए उसने मन्नू और सन्नु का उपयोग करना बेहतर समझा। हालांकि इसका पड़ोसी बहुत ही शरीफ़ आदमी था, लेकिन मीतू ने एक दिन उसके ऊपर मन्नु के परिवार वालों और गांव के कुछ अन्य नवयुवकों की मदद से पड़ोसी पर अचानक लाठी डंडों से हमला करवा कर लहूलुहान कर दिया जिसमें दोनों पक्ष के लोगों को चोटें आई थी। झगड़ा होजाने के बाद मीतू के पड़ोसी ने गाँव के लोगों की राय और समर्थन से पुलिस थाने में एफ.आई.आर.दर्ज कराई और मुख्य अभियुक्तों में मीतू के साथ मन्नू तथा उसके परिवार के नाम भी लिखवा दिया। 


जैसा कि पहले बताया गया है मीतू और मन्नू दोनों के मोहल्ले अलग थे। झगड़े होजाने के बाद मीतू ने अपने खतरनाक दिमाग का प्रयोग करते हुए ,क्रॉस पुलिस केस बनाने के लिए मन्नू के परिवार वालों का ही प्रयोग किया और मन्नू की वृद्ध माता के नाम से भी झूँठा पुलिस केस बनाया ताकि पड़ोसी के ऊपर दबाव बनाकर झगड़े वाले मसले में राजीनामा कराके कुछ पैसे खाये जा सकें। यहां पर बताना उचित रहेगा कि मन्नू के मोहल्ले के लोग मन्नु और मीतू दोनों के खिलाफ थे उसका कारण ये था कि जिस मीतू के पड़ोसी से इनका झगड़ा हुआ था वह क़तई झगड़ालू किश्म का आदमी नहीं बल्कि डरपोक कहुँ तो गलत नहीं होगा। मीतू के पड़ोसी के समर्थन में मन्नू के मोहल्ले के अधिकतर लोग थे, साथ ही ये लोग मीतू और मन्नू की गतिविधियों से खासे नाराज भी थे। ये सभी लोग मौके के इंतजार में थे। हमने देखा है गांव के कुछ लोगों में बदले की भावना कूट-कूट कर भरी होती है और अक्सर ये सुनने को मिल जाएगा कि "कोई बात नहीं, एक साल में 365 दिन होते हैं" और सिर्फ बोलते नहीं हमेशा ध्यान भी रखते हैं । कब,कहाँ और किस पर शिकंजा, कहां कसा जायेगा इसके लिए शारीरिक और मानसिक रूप से सदैव तैयार रहते हैं । 


           इस सिद्धांत के के मद्देनजर मन्नू के परिवार को अच्छी तरह से उलझाने, फंसाने का प्रयास किया जा रहा था । यहां अत्यंत अफ़सोस की बात है मन्नू के परिवार पर धोखे के दोहरे फंदे का प्रयोग किया जा रहा था मगर ये बात मन्नु की समझ से परे थी। दरअसल मीतू इनका दुरुपयोग करके झूँठा पुलिस केस करवा कर इन्हें कानून और पुलिस के शिकंजे में फंसा चुका था, दूसरी बात मौहल्ले के लोग भी चाह रहे थे की मन्नू के परिवार का दिमाग ठिकाने लाया जाये। यहां पर मोहल्ले के लोगों की दूसरी सबसे बड़ी नाराजगी इस बात की थी कि मन्नू के पिताजी की एक बेवकूफी ने गांव के ऊपर सामाजिक दबाव बना दिया था। दरअसल हुआ यह कि सन्नु की सगाई कुछ साल पहले हो गई थी और ब्याह की पीली चिट्ठ आचुकी थी, कुछ दिन में ही बारात जाने वाली थी लेकिन सन्नू के परिवार को कहीं से ये पता चला कि दुल्हन में कोई शारीरिक दोष है । इसी बात पर परिवार ने शादी नहीं करने का इक तरफा फैसला कर लिया था, जिससे गांव के गणमान्य लोगों पर समाज और बाहर गांवों के प्रबुद्ध लोगों द्वारा सामाजिक दबाव बनाया जा रहा था कि लड़के वालों को गलती का अहसास कराया जाए। 


   क्योंकि पीली चिट्ठी के बाद शादी से इनकार करना न केवल सामाजिक गलती मानी जाती है बल्कि गैर कानूनी भी है। लड़की वालों की तथा गांव के समझदार लोगों ने बहुत प्रयास किए कि रिश्ता बेकार न हो परंतु मन्नू का परिवार बिल्कुल मानने को तैयार नहीं था, वैसे भी ये परिवार किसी की बात कम ही मानता था और छोटे मोटे झगड़े करना इनकी आदत में शुमार था।


    लेकिन इस बार ये बहुत बुरी तरह से उलझ गए थे। उधर तो मीतू इनको अपने पड़ोसी के झगड़े में ढाल के रूप में प्रयोग करके अपना बचाव और पड़ोसी को पुलिस केस में फंसा कर मन माफिक दबाव बनाना चाहता था दूसरी ओर इस मोहल्ले वाले मन्नु के परिवार की गलती का गांव पर बनाए गए सामाजिक दबाव का हिसाब भी करना चाहते थे।    


          भागदौड़ के बाद मीतू के पडोसी का पुलिस केस बेहतर बन गया था क्योंकि गांव के सरपंच और सर्व समाज के लोग भी इसके साथ थे। पुलिस की तहकीकात में मीतू और मन्नु का केस पूरी तरह झूठा साबित हो चुका था और मीतू के पड़ोसी के केस के ऊपर कार्रवाई चलती रही।    जब मीतू का केस झूँठा साबित हो गया तो वह मन्नु के परिवार से दूरी बना धीरे से धोखा देकर शहर भाग गया था। अब मन्नु को समझ में आ गया था किगांव लोग सही बोल रहे थे। लेकिन "अब पछताए होत क्या ? जब चिड़िया चुग गई खेत"।


    मामला काफी उलझ गया तो मन्नु ने मीतू के पड़ोसी से किसी तरह हाथ पांव मारकर गांव के अन्य लोगों से इस केस में राजीनामा करने की पेशकश की और मीतू का पड़ोसी गांव के लोगों की बात मानकर राजीनामा के लिए राजी हो गया, राजीनामा का मसौदा लिखवाया गया। अब होता क्या है मन्नु के मौहल्ले वालों ने "साल में 365 दिन" वाले सूत्र का बदले की भावना के रूप में प्रयोग करते हुए मन्नु के विरोधियों ने चाल खेलकर राजीनामा के कागज़ात में लिखा पढ़ी तो कर दी थी ,दोनों पक्षों व जिम्मेदार लोगों के हस्ताक्षर भी करा दिए थे लेकिन साजिश के तहत दस्तावेज पुलिस को जमा नहीं कराये।या फिर जो भी किया गया हो ,यहाँ समझने वाली बात है कि जब भी थाने से पुलिस इस गांव में दबिश देने आती तो मन्नु के घर नहीं आती,न ही उसके परिवार के आरोपित लोगों को कोई खबर दी जाती कि उन्हें थाने में हाज़री देनी है कहने का अर्थ है इन्हें सोची समझी रणनीति के तहत धोखे में रखा गया। ये धोखा ऐसे ही लगातार बीस साल तक चलता रहा लेकिन इस दौरान जो कुछ मन्नु के परिवार के साथ हुआ उसके बारे में भी संक्षेपमें बताना चाहता हूं 


          जब राजीनामा के कागज़ लिखवा दिया गया तो स्वाभाविक सी बात है कोई भी यही समझेगा कि अब केस तो खत्म हो ही गया है। काफी दिनों तक पुलिस की तरफ से कोई हरकत नहीं हुई तो मन्नु का परिवार आश्वस्त हो गया कि अब मीतू वाला मामला शांत हो गया है। इसी दौरान मन्नु के परिवार के संबंध मीतू से भी खराब हो जाते हैं क्योंकि जिसके लिए वो मीतू के पीछे घूमते थे उसके लिए मीतू ने साफ इनकार कर दिया था साथ ही पुलिस केस में भी किसी प्रकार की मदद से स्पष्ट मना कर दिया था। इसका बहुत अफ़सोस मन्नु और उसके परिवार को होता है।


          वक़्त की सुई घूमते घूमते कुछ दिन बाद मन्नु के छोटे भाई की शादी विशाखा नाम की एक लड़की से हो जाती है और परिवार के साथ हंसी खुशी समय गुजरता है। एक दिन मन्नु का स्वयं के पड़ोसियों से फिर से झगडा होता है जैसा कि मैंने पूर्व में ही बताया था इनका झगड़े से पुराना रिश्ता रहा है अगर किसी से नहीं हुआ तो हफ़्ते के अंदर अपने परिवार में ही झगड़ा कर लेंगे मगर झगड़ा जरूर करेंगे पड़ोसियों से मारपीट का केस हो जाता है और ये बहुत ही बड़ा झगडा बन जाता है जिसमें मन्नु के ज्यादातर पड़ोसी इनके विरुद्ध होते हैं चाहे वो समाज के हों या गैर समाज के। काफी दिन ये केस चलता रहा। इस केस के बाद मन्नु के परिवार पर लगातार मुसीबतों के पहाड़ टूटते रहते हैं। कुछ दिन बाद पारिवारिक अंतर कलह के चलते मन्नु अपने छोटे भाई को अलग कर देता है। एक दिन मन्नु की मां लकवाग्रस्त हो जाती है जिसके के शरीर की एक साइड बिल्कुल काम नहीं करती और वह चारपाई में में ही खाना-पीना, शौचादि करती है। किसी ने सच ही कहा है "वक्त जब पलटी मरता है तो पता नहीं चलता कब क्या होने वाला है"। एक दिन एक दर्दनाक हादसा होता है, मन्नु को बिजली का करंट लग जाने से उसका कमर से नीचे का हिस्सा बिल्कुल काम नहीं करता । काफी इलाज के बावजूद फायदा नहीं होता। मन्नु किसी तरह अपनी बेटियों की शादी करके अपने फ़र्ज को पूरा कर देता है । कुछ माह बाद ही इलाज और पैसे के अभाव में दुनिया को अलविदा कहकर हमेशा के लिए चला जाता है। मन्नु की मौत परिवार पर वज्रपात से कम नहीं थी। परिवार को खाने के लाले पड़ जाते हैं। दूसरा मन्नु की माँ का लकवा ग्रस्त होना भी अपने आप में बड़ी समस्या बनजाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में आजकल आमतौर पर देखा गया है जिसके ऊपर परेशानी है वो ही जाने कोई मदद करने को तैयार नहीं होता, पहले ऐसा नहीं होता था।


        लगभग कुछ के बाद ही उनके पिताजी और लकवा से पीड़ित मां भी इस दुनिया से चले जाते हैं। 4-5 वर्षों में ही एक हंसता खेलता परिवार बर्बाद हो जाता है। अब परिवार में मन्नु की बेवा, छोटे छोटे बच्चे तथा उसका भाई और उसकी बीवी और दो बच्चे पीछे रहते हैं। सन्नू भी छोटा मोटा काम करके अपने परिवार की गुजर बसर करता है , समय धीरे धीरे मगर बड़ी कठिनाई से गुज़रता जाता है। 


मन्नु की मौत के 2-3 साल बाद दोपहर बाद बाहर से कोई आदमी सन्नू के पड़ोसी के साथ सन्नू के घर का पता पूछता है। जैसे ही वह सन्नू के घर पहुंचता है तेजी से घर में कुछ खोजने लगता है उसी समय सन्नू की पत्नी विशाखा उससे पूछती है कि वो क्या ढूंढ रहे हैं ? अजनबी व्यक्ति विशाखा से पूछता है कि सन्नू कहां है? वह बेचारी अनपढ़ बिना कुछ जाने समझे उस व्यक्ति को सन्नू के बारे में बताती है कि वह मज़दूरी के लिए गया है साथ ही सन्नू का मोबाइल नंबर भी दे उस अजनबी को दे देती है। बाद में विशाखा को पता चलता है कि वह व्यक्ति सन्नू को पकड़ कर ले जाते हैं। सुनते ही घर में चिंता हो जाती है क्योंकि पकड़ कर ले जाने वाले कौन हैं मालूम नहीं । सवाल पर सवाल विशाखा के दिमाग में घूमते हैं। 


         अंधेरा होने तक विशाखा को मालूम हो जाता है कि सन्नू को ढूंढने वाला वो व्यक्ति पुलिसवाला था ,जिसको उसने अपने पति की सारी खबर दे दी थी । यह सुनकर विशाखा न केवल घबरा जाती है बल्कि काफी देर तक रोती है । उसकी समझ में कुछ नहीं आता कि अब क्या किया जाना चाहिए। शाम का खाना भी नहीं बनाती और भूखी ही लेट जाती है। मोबाईल द्वारा यह खबर उसके मायके वालों देती है और जैसे तैसे रात काटती है । सुबह होते ही गांव में इधर -उधर मदद के लिए गुहार लगाती है मगर कोई भी व्यक्ति उसकी मदद के लिए तैयार नहीं होता विशाखा की आर्थिक स्थिति बेहद नाजुक है वह मदद मांगती रही परन्तु किसी से उसको मदद नहीं मिली। यहां सवाल है , क्या हम खुद को इंसान कहलाने के लायक हैं ? जब एक महिला घनघोर मुसीबत में है और कोई उसको मदद नहीं देना चाहता क्या हम लोग सामाजिक जीव हैं ? शायद नहीं।


बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इंसानियत का सबसे पहला काम यही है कि जरूरतमंद को वक़्त पर आवश्यक सहयोग करे । सहयोग भी कई प्रकार की होता है , उदाहरण के लिए:- 


1. सामाजिक सहयोग।     2. मनोवैज्ञानिक सहयोग ।  3. सांस्कृतिक सहयोग।    4. शैक्षणिक सहयोग और   5. आर्थिक सहयोग ।                                     मानव जीवन की सुरक्षा, उन्नति तथा विकास के लिए सहयोग अर्थात मदद आवश्यक प्रक्रिया है सहयोग सिर्फ किसी निर्धन या गरीब को ही नहीं बल्कि किसी धनाढ्य या ताकतवर को भी दी जा सकती है । किसी के द्वारा दी गई मदद ये साबित करने के लिए काफ़ी है कि मदद देने वाला इंसान है और उसमें इंशानियत जिन्दा है। यहां ध्यान में रखने वाली बात ये है कि किसी भी जरूरत मंद की मदद करते समय बदले में कुछ नहीं मांगना चाहिए क्योंकि मदद के बदले में कुछ मिलेगा ऐसा सोचना ही अमानवीय है। जब भी किसी को सहायता देने की सोचते हैं तो इस महान उद्देश्य के साथ मदद की जानी चाहिए। अमुक व्यक्ति की मदद की है वह भी बदले में कुछ करेगा या बदले में हमें कुछ लोटाएगा अगर ऐसा सोचकर मदद कर रहे हैं तो फिर मदद करने का इरादा ही छोड़ देना बेहतर है। कारण, यह जरूरी नहीं कि व्यक्ति जिसकी मदद करना चाह रहे हैं दुबारा मिल भी पाएगा या नहीं। अथवा वह अहसान को लोटा भी सकेगा या नहीं । साथ ही इतना जरूर समझना चाहिए कि कोई मनुष्य किसी की मदद करके कोई अहसान नहीं करता है बल्कि यह मानव होने के नाते हरेक का कर्तव्य है जो सभी को बिना किसी लालच के करना ही चाहिए।


             किसी व्यक्ति को कितनी मदद, की जा सकती है ये समय, परिस्थितियों और मदद देने वाले की बुद्धि के विकास पर निर्भर करती है। कई बार सिर्फ किसी को मानसिक रूप से मदद करनी भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही होती है जितनी कि आर्थिक सहायता । किसी भी व्यक्ति पर इस जीवन में कब क्या मुसीबत आने वाली है कोई नहीं जानता लेकिन कठिन समय में यदि किसी को ये बोल दिया जाय कि "घबराइए नहीं, हम आपके साथ हैं" इन्ही दो शब्दों से जरूरतमंद को कितना संबल,सहारा मिलता है कि अंदाजा लगाना भी कठिन है।


            विशाखा के सहयोग में जब कोई भी नहीं आया तो सच में ऐसा लगा जैसे गांव मोहल्ले में लोग ही नहीं रहते हों। सोचने वाली बात है क्या इंसान इतना संवेदनाहीन, दुष्ट प्रकृति का हो सकता है? हमें क्या समाज से यही उम्मीद रखनी चाहिए? चलो आगे और देखते हैं समाज में और क्या क्या होता है । विशाखा को ये तो पता चलता है कि सन्नू को पुलिस वाले पकड़ कर ले गए हैं, लेकिन कहाँ ले गये हैं ऐसी कोई खबर उसे मालूम नहीं थी । जबकि पुलिस प्रशासन को इस संदर्भ में कानूनी रूप में भी परिवार को बताना ही चाहिए था। विशाखा रोती बिलखती रही परंतु कोई उसेढाढ़स बंधाने, नहीं आया। क्या पडोसियों का कोई फर्ज नहीं बनता है? अगर गांव से अचानक किसी को पुलिस उठा ले जाये तो गांव के लोगों के दिमाग में कितने सवाल उठते हैं? क्यों पकड़ा गया? जुर्म क्या होगा ? गांव के जो लोग पढ़े लिखे नहीं हैं उनका तो और भी बुरा हाल होता है। क्योंकि ये तो सभी जानते हैं अगर किसी को पुलिस ने पकड़ा है तो पैसे तो लगेंगे ही। एक निर्धन व्यक्ति को पैसे कौन देगा? गांव में तो पैसे की वैसे ही क़िल्लत हो रही है पिछले दो सालों से तो कोरोना ने और भी हालत खस्ता कर दी है।


          लगभग 10 दिन बाद सन्नू को पुलिस वाले जब अदालत में पेशी को ले जा रहे थे तो वहां पर भीड़ से एक व्यक्ति जोर से चिल्ला रहा था कि "सन्नू को जैल तो जाना ही चाहिए तभी इसका दिमाग ठिकाने आएगा, जब तक पुलिस के पटे नहीं पड़ेंगे। इसका दिमाग ठिकाने नहीं आने वाला। ये सुनकर एक पुलिस वाले ने उससे पूछा "कि आप सन्नू के क्या लगते हैं" वह बोला कि सन्नू का जीजाजी हैं। इस पर पुलिस वाले ने उसको लताड़ते हुए कहा "तुझे शर्म नहीं आती तुम अपने ही साले के बारे में इतनी गंदी सोच रखते हो अगर तुम लोग मदद ही नहीं कर सकते तो क्यों आये यहाँ? पार्टी मना रहे हो, कोल्ड ड्रिंक पीकर, खर्चे को बढ़ा रहे हो।हरामखोरो! तुम कब के रिश्तेदार हो इस गरीब आदमी को मौके पर मदद नहीं करके उल्टे तुमको अपने ही रिश्तेदार पर नेतागिरी करते शर्म नहीं आती?


      विशाखा के भाई की मदद और काफी जद्दोजेहद के बाद उसने यह मालूम करने में सफलता प्राप्त कर ली थी कि उसके पति को 15-16 साल पुराने मीतू वाले केस में पुलिस खोज रही थी जिसका राजीनामा हो चुका था मगर राजीनामा के कागज़ किसी की साजिश के कारण अदालत में पेश नहीं हो सके थे। अदालत की ओर से पुराने केसों के निपटारे का दबाव पुलिस प्रशासन पर था जिसके कारण पुलिस ने छापेमारी अभियान के तहत सिर्फ सन्नू ही नहीं इलाके के कई और लोगों को त्वरित कार्यवाही के तहत धर दबोचा था। गांव के लोगों की तरफ से सहयोग नहीं मिलने से ये स्पष्ट हो चुका था कि मोहल्ले में पहले से ही इनकी अनावश्यक हरकतों, झगड़ालू प्रवृति के कारण तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता था।    


         विशाखा की माँ और भाई आ जाने से वो स्वयं को सहज महसूस कर रही थीं लेकिन बड़ी चिंता थी कि सन्नू को कारागार से बाहर कैसे लाया जाए? न पैसा है न कोई साथ देने वाला आखिर क्या करे ? काफी मेहनत के बाद एक वकील का प्रबंध किया गया जिसका नाम था राजू। उसने कागज तैयार करने के बाद सन्नू को रिहा करने की कार्रवाई तेज की। एक दिन कई रिश्तेदार सत्र न्यायालय के बाहर एक चाय की दुकान पर एकत्रित ये लोग संख्या में 8-10 थे गांव से आये थे उनमें एक व्यक्ति ने बड़े रोब से सन्नू के साले से कहा "अरे ! सुनो, सबको एक एक कोल्ड ड्रिंक की बोतल दीजिये बाकी काम बाद में होगा"। ये बात सन्नू के वकील ने सुनी तो उसे बड़ी हैरत हुई ये । वकील ने इसे कहा कि आप लोग इस गरीब आदमी को क्यों मारना चाहते हैं? इससे कौनसे जन्म का बदला ले रहे हो? आपसे हमने कहा था कि दो आदमी मोटर साईकिल पर आ जाना मगर आप लोगों भीड़ लेकर नेतागिरी करके मेरे पक्षकार को आर्थिक रूप से नुकसान कर रहे हैं। अगर ऐसा ही रहा तो जैल से निकलने से पहले सन्नू कज़र्दार हो जाएगा। वकील राजू ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा और ये भी बताया कि कल आप सब लोगहमें बदनाम करते हुये कहोगे कि वकील ने ज्यादा पैसा खर्च करवा दिया।


         रिश्तेदारों के चेहरों पर बेशर्मी के भाव स्पष्ट दिख रहे थे। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आमतौर पर मुसीबत पड़ने पर समाज और रिश्तेदारों से ज्यादा मदद बाहर के लोग ही करते देखे गए हैं कुछ को छोड़ कर । जिंदगी में समय समय पर दिक्कतें, परेशानियों आती हैं लेकिन कुछ परेशानियॉं हमारी अपनी ओर से कमाई हुई होती हैं अपनी गलतियों से लोग मुसीबतों को निमंत्रण देते हैं। यही परिस्थिति सन्नू की थी। उसके परिवार ने विवेकहीनता का परिचय एक बार नहीं, बहुत बार दिया था उसमें सबसे बड़ी मूर्खता थी,नौकरी के लालच में मीतू के पास जाना, दूसरी बड़ी गलती मीतू के समर्थन में उसके पड़ोसी से झगड़ा करना और जिसका परिणाम आज पूरे परिवार की जगह अकेले सन्नू को भुगतना पड़ रहा था। तीसरी गलती , पीली चिट्ठी आने के बाद शादी से इनकार कर देना जिसके कारण मोहल्ले और गाँव के लोग सामाजिक दबाव के कारण इनके ख़िलाफ़ हो गए। एक बड़ी गलती सन्नू के पड़ोसियों से हुआ झगड़ा भी था जिसे चाहते तो टाला जा सकता था।

       वकील राजू के प्रयास से लगभग 20 दिनों में सन्नू की जमानत बड़ी मुश्किल से हो पायी थी ।क्योंकि कोरोना की गाइड लाइन के कारण मजिस्ट्रेट अदालत में बैठ ही नहीं रहे थे। जिस दिन सन्नू अपने घर आया तो सुनकर बहुत दुःख होगा कि मोहल्ले का कोई भी उससे मिलने या सांत्वना देने नहीं आया । क्या यह सब साबित नहीं करता है कि लोगों में पाश्विक प्रवृत्ति ही है। गांव के लोग बड़े-बड़े भाषण मारते हुए नैतिकता, समाज सुधार की बड़ी बड़ी बातें करते हैं, राजनीति के धुरंधर बनते हैं , छोटी-छोटी बातों में दूसरों की गलतियां ढूँढने वाले तथाकथित महान सामाजिक जीव अपनी गलतियों को कभी नहीं समझते। क्या ये सामाजिक जीवन में जाहिलपन का भोंडा प्रदर्शन नहीं है?

      केवल मोहल्ले के पुरुष बल्कि औरतों की तरफ से भी विशाखा को कितना सपोर्ट दिया जाना चाहिए किसी की भी समझ में क्यों नहीं आया ? इसका सीधा अर्थ है कि लोग वास्तव में मानवता की भावना, सामाजिक सहयोग, भाईचारा, से बहुत दूर हो चुके हैं, सरल शब्दों में लोगों के अंदर की मानवता मर चुकी है। अक्सर किसी इंशान की भावनाएं आहत होती रहती हैं जब देखते हैं किसी जरूरतमंद, परेशान हाल व्यक्ति को मदद करने के बजाय लोग उसकी मजबूरियों पर हंसते हैं या मदद से कतराते हैं तो क़तई अच्छा नहीं लगता चाहे हंसने वाला आपके परिवार का सदस्य ही क्यों न हो। सन्नू को इस जंजाल में फंसने का जितना योगदान उसके परिवार के पूर्व सदस्यों का था उतना ही स्वयं का भी है लेकिन उससे ज्यादा योगदान समाज ,मौहल्ले के उन बुद्धिजीवियों और पड़ोसियों का है जिन्होंने बदले की भावना के तहत आज से 15 साल पहले हुए मीतू के पड़ोसी के आपसी झगड़े के राजीनामा के कागज़ अदालत से छुपाये थे। अगर समाज के लोगों ने साजिश करके कागज छुपाए न होते तो आज सन्नू के सामने ये कुंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति पैदा नहीं होती न ही उसे आर्थिक हानि होती। 

      बहरहाल वक्त पर जिसने भी सन्नू की मदद की उसका धन्यवाद तो बनता ही है। बतौर एक इंसान हमें इंसान की मदद अपनी मर्यादा के अनुसार करनी चाहिए । जब सन्नू जैल से घर के खर्चे का अंदाज़ लगाया तो लगा 10-12 हजार रुपये का खर्च हुआ होगा परंतु यह अंदाज़ बिल्कुल गलत था । राशि इसकी पांच गुना ज्यादा थी जिसको बढ़ने का कारण उसके समाज और रिश्तेदार ही थे। कुछ ऐसे रिस्तेदारों ने भी मदद की थी जो जमानत होने के दूसरे दिन बाद ही पैसों को वापस मांगने लगे थे जैसे कि सन्नू के घर में पैसे की कोई कमी नहीं हो। इससे सिद्ध होता है उसके रिश्तेदार न केवल अपरिपक्व हैं बल्कि रिश्तों की गहराई का ज्ञान ही नहीं रखते वरना इतनी जल्दी पैसे नहीं मांगते। 

 कठिन समय जिंदगी में बहुत कुछ है। ऐसे वक्त पर व्यक्ति न केवल मज़बूत होता है अपितु उसको यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उसके साथ में कौन खड़ा है और विरोध में कौन? अपने परिवार, कुटुम्ब, रिश्तेदारों के अलावा गांव बस्ती में भी अपने पराये का भान हो जाता है 

कठिन समय जिंदगी में बहुत कुछ सिखाता है। ऐसे वक्त पर व्यक्ति न केवल मज़बूत होता है अपितु उसको यह भी स्पष्ट हो जाता है क अपने परिवार, कुटुम्ब, रिश्तेदारों के अलावा गांव बस्ती में भी अपने पराये का भान हो जाता है। कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे जो एक छोटी धनराशि देकर पीड़ित परिवार के ऊपर एहसान जीवन भर जताएंगे और उनके द्वारा की गई मदद को बार-बार बताकर ब्लैकमेल करेंगे बल्कि कई बार ज़लील भी करेंगे। अगर कोई बिल्कुल मूर्ख नहीं है तो समझने वाली बात है कि, जीवन में आने वाली कठिनाइयां हमें संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं साथ ही हमारे अंदर आत्मविश्वास भरती हैं और लगातार संघर्ष ही जीवन में सफलता दिलाता है। जिस व्यक्ति ने जीवन में कठिनाइयों से सामना नहीं किया हो वह जीवन में आने वाले वक़्त के अचानक के थपेड़ों से न केवल रेत की दीवार की तरह भरभरा कर गिर जाता है बल्कि संघर्ष और लड़ने की ताक़त खो देता है इसी संदर्भ में कवि शिव राज चौहान की इन पंक्तियों में ऐसा ही कुछ संदेश मिलता है :- 

मुश्किलें दिल के इरादे आजमाती हैं ।।    स्वप्न के परदे निगाहों से हटाती हैं।।  हौसला मत हार गिर कर ओ मुसाफिर।।    ठोकरें इन्सान को चलना सिखाती हैं।।

        इन्हीं पंक्तियों के साथ एक बार पुनः अर्ज है कि गांव बस्ती में सभी को एक दूसरे की सहायता करनी चाहिए क्योंकि किसी भी मानव में मानवता झलकनी ही चाहिए । आपका पड़ोसी अगर परेसान है चाहे वो किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, लिंग से ताल्लुक़ रखता है सभी का कर्तव्य बनता है , कठिनाई ,और जरूरत पड़ने पर सभी को उसकी बढ़ चढ़कर मदद करनी चाहिए अंत में ये कि औछी मानसिकता को छोड़कर हमें अपने अंदर की मानवता को जगाना होगा। 

        अंत में मैं कहना चाहता हूं कि औछी मानसिकता को छोड़कर हमें अपने अंदर व्याप्त ईर्ष्या,जलन, कपट तथा बदले की भावना को छोड़ मौके पर हर संभव  मदद करनी चाहिए । अगर हम मनुष्य होकर भी मनुष्य की मदद नहीं कर सकते तो इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता है कि हम शरीर और वस्त्रों से मानव जैसे दिखने वाले मानव न होकर असामाजिक , जाहिल, वहशी ,जंगली पशु ही हैं। 

     सन्नू और मन्नु के परिवार की ये दर्द भरी कहानी किसी एक मौहल्ले या गांव की नहीं है बल्कि एक आम कहानी है। आप अपने चारों तरफ निगाह दौड़ाएंगे तो हर गांव , शहर में इस कहानी के पात्रों के जैसे प्रताड़ित लोग अवश्य मिल जाएंगे।अब ये आप पर निर्भर करता है कि आप सहमत हैं या असहमत किंतु मेरा आग्रह है कि आपके कीमती विचारों और टिप्पणी से अनुग्रहित करने का कष्ट तो कर ही सकते हैं।

 नोट:-इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग माना जाएगा।          


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