पूत पाँव और पालना

पूत पाँव और पालना

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रात के तीन बजे थे।

सुकरात थरमस लेकर सीढ़ियों पर चढ़ रहा था। उसे थरमस की कॉफी बड़ी नर्स दीदी को देकर शिफ़्ट बदलने का अलार्म बजाना था।

अकस्मात पूरे हॉस्पिटल की बत्ती गुल हो गई। सुकरात के हाथ से थरमस छूटते छूटते बचा। पैर में चोट लगी सो अलग। रेलिंग में पैर की उंगलियां गुथ न जाती तो कॉफी भी गिरती और वो खुद भी। अलार्म बजाना तो रह जाता ही, ऊपर से नर्स दीदी को ही उसकी मरहम पट्टी भी करनी पड़ती।

एक हाथ से थरमस को पकड़े, दूसरे हाथ से दीवार को टटोलता हुआ सुकरात स्टोर की ओर बढ़ा। माचिस तो उसकी जेब में थी पर मोमबत्ती का पैकेट स्टोर में ही पड़ा था।

उसने स्टोर में दाख़िल होकर सावधानी से थर्मस को अंधेरे में ही एक ओर टिका दिया और पैकेट खोलकर एक मोमबत्ती के सिरे पर तीली सुलगा दी।

मोमबत्ती का उजास देख भी न पाया था कि लाइट आ गई।

अस्पताल फ़िर से उजला गया। मद्धम मद्धम, नीला नीला, सोया सोया आलम!

मोमबत्ती बुझा कर उसने वहीं पड़ी छोड़ दी और कांच के गिलास में कॉफी लेकर दीदी के केबिन की ओर दौड़ा।

- अरे, ये क्या? दीदी तो वहां थी ही नहीं। कहां चली गई? महीनों बाद शायद पहला मौका था जब दीदी बिना कॉफी पिए ही ड्यूटी ऑफ करके निकल गई। पर इतनी जल्दी आख़िर गई कहां? सुकरात को हैरानी हुई।

नहीं नहीं... जा नहीं सकती। शायद वाशरूम में होगी। नहीं तो किसी पेशेंट ने चिल्ला- पुकार कर उसका जीना हराम किया होगा।

दीदी बिना कॉफी पिए हॉस्टल तो जा नहीं सकती, जो हॉस्पिटल के पीछे ही इसी अहाते में था।

दिनभर में बीस- बाईस कप कॉफी पीने वाली दीदी अक़्सर कहा करती थी कि सोने ही नहीं, मरकर कब्र पर लेटने भी जाऊंगी तो एक कप गर्मा गरम कॉफी तो मुझे चाहिए ही। आख़िर ड्यूटी ही ऐसी थी।

दीदी का यह शौक़ इस लड़के सुकरात के भरोसे ही तो पल रहा था। ये कितना भी व्यस्त हो, डॉक्टर कोई भी काम बताएं, मरीज़ कितनी भी चीख पुकार मचाए, काम से उड़न छू होकर किसी न किसी तरह कैंटीन पहुंच दीदी की कॉफी तो समय पर हाज़िर कर ही देता था।

दोपहर की शिफ्ट वाली शिखा मैडम तो कई बार कहती थी कि ये छुटका सुकरात एक चौथाई सैलरी तो काम करने की लेता है और तीन चौथाई दीदी को कॉफी पिलाने की!

दीदी को ढूंढने के लिए दो तीन हल्की आवाज़ें सुकरात ने निकालीं।

महिला वार्ड था। ज़्यादातर औरतें अच्छी खासी गहरी नींद में थीं। दीदी किसी बेड के पास दिखाई न दीं।

बाथरूम में भी भला इतनी देर कैसे लगेगी?

सुकरात ने बाथरूम वाली गैलरी में झांका तो उसे अचंभा हुआ। अगर दीदी वहां जाती तो कम से कम भीतर लाइट तो जली हुई होती? न कोई लाइट और न कोई आहट।

आख़िर कैसे और कहां निकल गई वो? फ़िर दीदी जाती भी तो इन्हीं सीढ़ियों से है। दूसरी सीढ़ियां तो पूरा गलियारा पार करके फर्लांग भर की दूरी पर हैं। पूरी शिफ्ट ड्यूटी करने के बाद थकी हारी दीदी भला इतनी कवायद क्यों करेगी?

सुकरात को दीदी से ज़्यादा फ़िक्र अब कॉफी की हो आई थी, वह उसे थरमस से निकाल कर गिलास में डाल चुका था।

ये रात वाली आख़िरी दौर की कॉफी दीदी गिलास में ही लेना पसंद करती थी।

वह कहती थी कि कॉफी पीने से पहले थोड़ा पानी भी पी लिया जाए तो इससे नींद न आने की शिकायत नहीं होती। सुकरात गिलास में कूलर से पानी भर कर लाना नहीं भूलता था, जिसे आख़िरी बूंद तक दीदी हलक में डाल लेती फ़िर इसी गिलास में वह कॉफी डालता।

आज बीच में बत्ती चले जाने से सुकरात पानी नहीं ला पाया था और आज ही दीदी बिना कॉफी पिए चली गईं।

सुकरात ने सोचा, क्या करे? क्या हॉस्टल में फोन करके पूछे! ज़्यादा से ज़्यादा वॉचमैन गोरखा नींद से उठ कर दो बात बड़बड़ाएगा,पर ये तो बता देगा कि दीदी कमरे में पहुंच गई या नहीं।

सुकरात अभी इसी उधेड़बुन में था कि उसे कहीं दूर से ज़ोर ज़ोर से हँसने की आवाज़ आई। इस वक़्त भला कौन हँसी ठठ्ठा करके सबकी नींद खराब कर रहा है, उसे लगा।

ये तो हरगिज़ नहीं हो सकता कि कोई रोगी महिला दीदी से इतना हँसकर बोले, उनके रौबदाब से सब डरते थे। दीदी का अनुशासन उनके सैंडिल की एड़ी की तरह आगे से चपटा और पीछे से बहुत ऊंचा है, वहां से खट खट की आवाज़ ही आ सकती है, हँसने खिलखिलाने की नहीं।

सुकरात उसी दिशा में बढ़ गया जहां से हँसने की आवाज़ आ रही थी।

गलियारा पार करके वह जैसे ही मुड़ा, वहां का दृश्य देख कर सकते में आ गया।

वार्ड में एक खिड़की पर छह सात महिलाएं अपने अपने बिस्तर से उठ कर इकट्ठी हो गई थीं और हाथ के इशारे से एक दूसरी को खिड़की के बाहर का कोई दृश्य दिखा दिखा कर ज़ोर ज़ोर से हँस रही थीं।

एकाध के तो हँसते हँसते पेट में बल पड़ गए थे।

ग्यारह नंबर वाली मोटी औरत तो पलंग पर खड़ी होकर नज़ारा देख रही थी।

उन सब को इस बात की कतई चिंता नहीं थी कि रात के तीन बजे हैं, वे सब बीमार हैं और अपने अपने घर परिवार से दूर एक अस्पताल में भर्ती हैं, और ये समय दुनिया जहान के सोने के लिए मुकर्रर है।

वे ये भी बिसराए खड़ी थीं कि वे ऐसी रोगी हैं जो चंद दिन पहले तक हिलने डुलने तक न दी जा रही थीं।

सब प्रसव पीड़ा में थीं और सबकी हरकतों पर सास ननदों के पहरे रहे थे।

वे सब अपने अपने घर से संसार के एक खूबसूरत उपक्रम को अंजाम देने यहां आई थीं, ये जच्चा बच्चा वार्ड था।

सुकरात इतनी सारी महिलाओं को एक साथ देखकर डांट डपट करने की स्थिति में भी नहीं था। वार्ड बॉय होते हुए भी जो थोड़ा बहुत रौब दीदी के दम पर दिखा लेता था, तो दीदी भी ड्यूटी से जा चुकी थीं।

फ़िर भी उसने महिलाओं की भीड़ के बीच पहुंच कर उन्हीं के साथ तमाशबीन बनना गवारा न किया। आख़िर उसमें और इन महिलाओं में फ़र्क था।

ये सब चाहे सेठ साहूकारों की बीवियां हों या हाकिम अफसरों की, यहां तो ये सब रोगी थीं और वो अस्पताल का मुलाज़िम। छोटा ही सही। हर तरह छोटा, उम्र में भी, ओहदे में भी।

मगर इससे क्या? क्या वह भी इनके साथ इनके हँसी ठट्ठे में शामिल हो जाए? उसका काम तो ऐसी बातों को रोकना और न रोक पाने पर डॉक्टर या ड्यूटी पर तैनात सिस्टर से शिकायत करना ठहरा।

मगर सुकरात भी आख़िर था तो बचपन छोड़ता एक किशोर नवयुवक ही। मन उसके भी, जिज्ञासा उसके भी।

फ़िर इतनी हँसी मज़ाक की चीज़ का उसको भी तो पता चले, हुआ क्या?

कुछ इस तरह से हो कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। उसे पता भी चल जाए कि खिड़की के पास इतनी हँसी मज़ाक का क्या मंज़र उपस्थित हुआ है, और उसकी ड्यूटी पर भी आंच न आए कि राउंड पर निकलता कोई डॉक्टर या नर्स उसे हा हू में शामिल समझ कर डांट डपट कर जाए।

सुकरात ने कॉफी की चिंता छोड़ी, दीदी की चिंता भी छूटी, और वह वार्ड के दूसरी तरफ़ से घूम कर आया तथा एक कमरे की खुली खिड़की से पर्दा उठा कर उसने बाहर झांका, जहां से वो कक्ष दिखाई दे रहा था।

उसने पूरी सावधानी रखी कि कहीं उस पर दूसरी ओर से झांकने वाली औरतों की नज़र न पड़ जाए। वह उन्हें रोकने की जगह खुद किसी मुसीबत में फँस जाए। ज़ीरो वॉट के हल्के प्रकाश में पर्दा हटा कर सामने की दीवार से झांकते लड़के को कोई चोर या उठाईगीरा न समझ लिया जाए।

सुकरात ने चारों ओर गर्दन घुमाई, आखिर रात के इस पहर में हल्की रोशनी के बीच कमरे में ऐसे हँसने वाली क्या बात है?

ये छोटा कमरा उन नवजात शिशुओं का था जिन्हें जन्म होने के बाद जांच आदि के लिए मां से कुछ समय दूर पालने में अलग रखा जाता था।

सुकरात ने जो दृश्य यहां देखा, वह भी बेहाल हो गया।

वह ये भी भूल गया कि वह यहां बाक़ी लोगों को रोकने आया था। उसने खिड़की से उस कमरे के भीतर कूद कर बड़ी लाइट जला दी और ताली बजा बजा कर ज़ोर से हँसने लगा।

लाइट जलते ही बाक़ी महिलाएं भी किसी शरारती बच्ची की तरह दौड़ दौड़ कर उस कमरे के भीतर आने लगीं।

यहां नवजात शिशुओं के कतारों में रखे दर्जनों पालनों के बीच बड़ी नर्स दीदी झूम झूम कर डांस कर रही थीं। वह कभी ताली बजा कर, कभी ठुमके लगा कर, कभी घूम घूम कर परिक्रमा करते हुए चक्कर लगातीं और भाव विभोर होकर नृत्य करतीं।

प्रेम दीवानी मीरा को जैसे साकार कर दिया था दीदी ने!

महिलाओं के साथ साथ सुकरात के भी भीतर चले आने से एक झटके से दीदी का डांस थमा।

बड़ी लाइट ने सबकी आँखों को चौंधिया दिया।

दीदी दोनों हथेलियों से मुंह छिपा कर शर्माती हुई तेज़ी से बाहर जाने लगीं।

सुकरात समझ गया कि अब दीदी उसे डांट लगाने वाली है, वह लाइट बुझा कर चुपचाप उनके पीछे पीछे चल दिया।

महिलाएं भी अपने अपने बेड पर जाकर कम्बल ओढ़ ओढ़ कर लेट गईं।

क्षण भर में माहौल ऐसा हो गया जैसे वहां कुछ हुआ ही न हो।

कॉफी बिल्कुल ठंडी हो चुकी थी लेकिन दीदी ने उसे गर्म कॉफी की तरह ही चाव से सिप लेकर पीना शुरू किया।

सुकरात समय पर अलार्म न बजा पाने की हड़बड़ी चेहरे पर लिए दोनों हाथ अपने कानों पर लगाए, कोहनियां मेज़ पर टिकाए दीदी की कॉफी खत्म होने का इंतजार कर रहा था।

वह अच्छी तरह जानता था कि कॉफी खत्म होने के बाद दीदी कुछ भी बोलेगी नहीं, और सीधी हॉस्टल चली जाएगी।

वह आश्वस्त था कि ड्यूटी से थकी हारी दीदी अगली दोपहर नहा धोकर जब वापस अपनी ड्यूटी पर लौटेगी तभी उसे पता चल पाएगा कि दीदी इस तरह आधी रात बच्चों के वार्ड में जाकर बदहवास होकर क्यों नाची!

सुकरात दीदी की आदत जानता था। कॉफी पीकर वह सोएगी। उसके किसी भी सवाल का जवाब तभी मिलेगा जब वह अगले दिन ड्यूटी पर लौटेगी।

इसी डर से उसने कुछ न पूछा कि दीदी उसे डांट न दे।

और अगले दिन ही सुकरात सारा माजरा जान पाया...

बेहद सख़्त अनुशासनप्रिय, आधी रात तक अस्पताल में जी तोड़ कठिन ड्यूटी निभाने वाली प्रौढ़ा दीदी ज्योतिष में बहुत विश्वास किया करती थी।

वैसे तो उसे समय मिलता ही नहीं था, किन्तु जो भी समय मिलता, उसमें वह अपने कमरे में कंप्यूटर पर बैठ कर उन बच्चों की जन्मकुंडली तैयार किया करती थी,जिनका जन्म उसके वार्ड में उसकी देख रेख में होता था। बच्चों के जन्म का सही समय उसके पास होता ही था, वह तुरंत बच्चे का न केवल भविष्य कंप्यूटर पर पढ़ती, बल्कि उसकी पूरी कुंडली तैयार कर लेती।

वह ऐसा केवल स्वांतः सुखाय करती थी, किसी को ये कुंडलियां देती या बताती नहीं थी।

आज दोपहर जन्मे एक शिशु की जन्मपत्री में उसे ये संकेत मिला कि वह बालक बड़ा होकर अंतरराष्ट्रीय स्तर का स्टार बनेगा। वह नृत्य की दुनिया में अपना ज़बरदस्त नाम कमाएगा।

बिल्कुल माइकल जैक्सन की तरह!

ओह, इतना बड़ा चमत्कार करने वाला ये शिशु उसके हाथों आज जन्मा है?

कौन जाने, कल जब वह दुनिया में नाम कमाए, दीदी कहां हो, दुनिया में हो न हो !

क्यों न आज की रात उसके साथ जश्न मनाया जाए!

बस यही सोच दीदी को आधी रात उस नवजात शिशु के पास ले गया।

और सुकरात या कोई और ये कहां जानता था कि दीदी बचपन में एक प्रसिद्ध नर्तकी ही बनना चाहती थी। असमय पिता की मृत्यु, घर की ज़िम्मेदारी और विवाह न होने के दुर्भाग्य ने उसे अपने सपनों का गला घोट कर एक सख़्त मिजाज़ नर्स बनने पर विवश कर दिया और उसकी ज़िंदगी की राह मोड़ दी।

वह बच्चे के भविष्य को जानकर अपने सपनों का चंदन हार उसके गले में डाल बैठी।

सच में... मन की ख़ुशी ज़ाहिर करने की न कोई उम्र है और न मियाद !



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