Charumati Ramdas

Children Stories Inspirational

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Charumati Ramdas

Children Stories Inspirational

ना पिफ़्, ना पाफ़्

ना पिफ़्, ना पाफ़्

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लेखक: विक्टर द्रागून्स्की

अनु. : आ. चारुमति रामदास


जब मैं स्कूल नहीं जाता था, तब मैं बहुत ही नर्म दिल वाला था. मैं किसी भी दर्द भरी बात के बारे में बिल्कुल नहीं सुन सकता था. और अगर किसी ने किसी को खा लिया, या फिर आग में फेंक दिया, या घुप् अंधेरे कमरे में बंद कर दिया – तो मैं फ़ौरन रोने लगता था. जैसे कि, मान लीजिए, भेड़ियों ने बकरी के छौने को खा लिया और इसके बाद बस उसका मुँह और उसकी टाँगें ही रह गईं. मैं तो बस बिसूरने लगता था. या फिर, जैसे कि, जादूगरनी ने राजकुमार और राजकुमारी को ड्रम में बिठाकर इस ड्रम को समन्दर में फेंक दिया. मैं फिर से बिसूरने लगता. और वो भी कैसे! मेरी आँखों से आँसुओं की मोटी मोटी धारें निकल कर फर्श पर बहने लगतीं और उनके डबरे भी बन जाते.

ख़ास बात ये थी कि जब मैं कहानी सुनता था, तो मैं पहले से ही, उस भयानक घटना के शुरू होने से पहले ही, रोने के लिए तैयार हो जाता. मेरे होंठ टेढ़े-मेढ़े हो जाते और मेरी आवाज़ कँपकँपाने लगती, जैसे कि किसी ने गर्दन से पकड़कर झकझोर दिया हो. और मम्मा समझ ही नहीं पाती थी कि उसे क्या करना चाहिए, क्योंकि मैं हमेशा उससे कहानियाँ पढ़ने के लिए या सुनाने के लिए कहता, और जैसे ही कहानी डरावनी बात तक पहुँचती, मैं फ़ौरन समझ जाता और बीच ही में मम्मा से कहानी को छोटा करने के लिए कहता. दुर्घटना होने के क़रीब दो-तीन सेकण्ड पहले ही मैं कँपकँपाती आवाज़ में उसे मनाता : “इस जगह को छोड़ दो, मम्मा!”

मम्मा, बेशक, वो जगह छोड़ देती, पाँचवें से दसवें पृष्ठ पर कूद जाती, और मैं आगे सुनने लगता, मगर बस थोड़ी ही देर, क्योंकि कहानियों में तो हर मिनट कुछ-न-कुछ होता ही रहता है, और जैसे ही मुझे समझ में आता कि अब कोई दुर्घटना होने वाली है, मैं फिर से बिसूरने लगता और मम्मा से कहता: “ये भी छोड़ दो!”

मम्मा फिर से कोई ख़ून-ख़राबे वाली बात छोड़ देती और मैं कुछ देर के लिए शांत हो जाता. और इस तरह परेशानियों से, रुक-रुक कर चलते-चलते, और कहानी को दनादन् छोटा-छोटा करते-करते हम आख़िरकार एक सुखी अंत तक पहुँच ही जाते.

बेशक, मुझे यह महसूस होता कि इस सबके कारण कहानियाँ उतनी दिलचस्प नहीं रह जातीं : पहली बात, वे बेहद छोटी हो जातीं, और दूसरी बात ये कि उनमें कोई भी साहसी कारनामे बाकी न बचते. मगर, मैं उन्हें आराम से तो सुन सकता था, सुनते-सुनते आँसुओं से नहा तो नहीं जाता, और फिर ऐसी कहानियों के बाद रात को चैन से तो सो सकता था, खुली आँखों से बिस्तर पर पड़ा तो नहीं रहता और सुबह तक डरता तो नहीं रहता. और इसीलिए इस तरह की संक्षिप्त कहानियाँ मुझे बहुत अच्छी लगतीं. वे इतनी शांत-शांत हो जातीं. जैसे कि ठण्डी, मीठी चाय. मिसाल के तौर पे, एक कहानी है – लाल हैट वाली. मैंने और मम्मा ने उसमें इत्ता सारा छोड़ दिया है कि वो दुनिया की सबसे छोटी कहानी बन गई है. मम्मा उसे इस तरह सुनातीं:

 ‘ लाल हैट वाली एक लड़की थी. एक बार उसने समोसे बनाए और चल पड़ी अपनी दादी से मिलने. और फिर वे दोनों सुख से रहने लगीं.’

 मैं बहुत ख़ुश हो गया कि उनके साथ सब कुछ अच्छा हो गया. मगर, अफ़सोस, बस यही एक परेशानी तो नहीं थी. एक और कहानी से, ख़रगोश वाली कहानी से, मुझे ख़ास तौर से बहुत दुख होता. ये एक छोटी सी कहानी है, किसी ‘राइम’ की तरह, दुनिया के सारे बच्चे उसे जानते हैं:

“एक, दो, तीन, चार, पाँच,

निकला ख़रगोश घूमने आज,

एक शिकारी फ़ौरन भागा...


बस, अब तो मेरी नाक में सुरसुराहट होने लगती और होंठ अलग-अलग दिशाओं में चले जाते, ऊपर वाला दाएँ, नीचे वाला बाएँ, और इस बीच कहानी चलती रहती...शिकारी, मतलब, अचानक भागते हुए आता और...

और ख़रगोश को मार गिराया!

 

यहाँ तो मेरे दिल की धड़कन ही रुक जाती. मैं समझ ही नहीं पाता कि ऐसा कैसे होता है. ये बदहवास शिकारी सीधे ख़रगोश पर गोली क्यों चलाता है? ख़रगोश ने उसका क्या बिगाड़ा था? पहले शुरूआत क्या उसने की थी? बिल्कुल नहीं! उसने उसे चिढ़ाया भी नहीं था. वो तो बस घूमने निकला था! और ये तो बिना बात के:


पिफ़्-पाफ़्

अपनी भारी भरकम दुनाली बन्दूक से! और मेरी आँखों से आँसू ऐसे बहने लगते, मानो नल से बह रहे हों. क्योंकि गोली ख़रगोश के पेट में लगी थी और वह बुरी तरह से ज़ख़्मी होकर चिल्ला रहा था:

 

ओय-ओय-ओय!

 

वह चिल्लाया:

 

  “ओय-ओय-ओय! अलबिदा, साथियों! अलबिदा, मेरे छौनों ! अलबिदा, मेरी ख़रगोशनी! अलबिदा, मेरी हँसती-खेलती ज़िन्दगी! अलबिदा, लाल-लाल गाजर और कुरकुरी गोभी! हमेशा के लिए अलबिदा मेरी चरागाह, और फूलों, और ओस की बूँदों, और पूरे जंगल, जहाँ हर झाड़ी के नीचे मेरे लिए घर और खाना तैयार था!

मैं जैसे अपनी आँखों के सामने देख रहा था कि कैसे भूरा ख़रगोश पतले बर्च के नीचे पड़ा है और मर रहा है...

मगर एक बार रात को, जब सब सोने चले गए, मैं बड़ी देर अपनी कॉट पर पड़ा-पड़ा बेचारे ख़रगोश को याद करता रहा और सोचता रहा कि कितना अच्छा होता अगर उसके साथ ये सब न हुआ होता. वाक़ई में कितना अच्छा होता, अगर ये सब न हुआ होता. और मैंने इतनी देर तक इसके बारे में सोचा कि अनजाने ही इस कहानी को दोबारा से बना डाला:

 

“एक, दो, तीन, चार, पाँच,

निकला ख़रगोश घूमने आज,

एक शिकारी फ़ौरन भागा...

और ख़रगोश को...

नहीं मारा!!!

ना पिफ़्! ना पाफ़्!

ना ही ओय-ओय-ओय!

नहीं मरा ख़रगोश मेरा!!!

 

ये हुई न बात! मैं हँसने भी लगा! कैसे सब कुछ अच्छा हो गया! ये तो वाक़ई में चमत्कार हो गया. ना पिफ़्! ना पाफ़्! मैंने बस एक छोटा-सा ‘ना’ लगा दिया, और शिकारी तो, जैसे कुछ हुआ ही न हो, अपने एड़ियों वाले फ़ेल्ट के जूतों को खटखटाते हुए ख़रगोश के क़रीब से निकल गया. और वो ज़िन्दा बच गया! वो फिर से सबेरे-सबेरे दूब से ढँके खेत में खेला करेगा, उछलेगा और कूदेगा और अपने पंजों से पुराने, सड़े हुए पेड़ के ठूँठ को खुरचेगा. कैसा मज़ेदार, बढ़िया ड्रम जैसा है वो ठूठ !

और मैं अँधेरे में लेटा-लेटा मुस्कुरा रहा था और मम्मा को इस आश्चर्य के बारे में बताना चाह रहा था, मगर उसे जगाने से डर रहा था. आख़िर में मेरी आँख लग गई. जब मैं उठा, तो मुझे हमेशा के लिए पता चल गया था कि अब मैं दुख भरी कहानियाँ को सुनकर कभी भी नहीं रोऊँगा, क्योंकि अब मैं इन भयानक अन्यायपूर्ण बातों में किसी भी समय दखल दे सकता था, दखल दे सकता था और हर चीज़ अपनी मर्ज़ी के मुताबिक बदल सकता था, और सब कुछ अच्छा हो जाएगा. बस, सिर्फ सही समय पर कहने की ज़रूरत है:


ना पिफ़्, ना पाफ़्!”


***

 


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