मैं और मेरी जिंदगी -18
मैं और मेरी जिंदगी -18
मैंने झटपट यूनिवर्सिटी छोड़ी और थोड़े से सामान के साथ अपनी नई नौकरी के लिए रवाना हो गया।
मेरी नौकरी जिस जगह लगी थी वो कोटा जिले में थी। वहां जयपुर से कोई सीधी बस नहीं जाती थी। जयपुर से कोटा जाना पड़ता था और फ़िर कोटा से लगभग एक घंटे में वहां पहुंचा जा सकता था।
सबसे अच्छी बात तो ये थी कि कोटा में मेरा छोटा भाई हॉस्टल में रह कर पढ़ रहा था।
मैं शनिवार को उसके पास ही पहुंच गया ताकि एक दिन वहां रुक कर सोमवार सुबह केशोरायपाटन जाकर अपनी ड्यूटी कर सकूं। अगले दिन रविवार होने से उसकी भी छुट्टी थी। हम लोग उस दिन कोटा शहर घूमे, शाम को एक पिक्चर भी देखी।
भाई के हॉस्टल में ही जाकर पता चला कि केशोरायपाटन का भी एक लड़का उसके साथ पढ़ता है और वहीं हॉस्टल में रहता है। वो लड़का ये जानकर बहुत खुश हुआ कि मेरी नौकरी उसके गांव में ही लगी है।
उस लड़के से ही गांव के बारे में पूरी जानकारी भी मिली। उसने बताया कि गांव में ये पहला ही बैंक है जिसकी शाखा खुली है। उस गांव के लिए कोटा के सरोवर सिनेमा के पास से प्राइवेट बस जाती थी, जो एक घंटे में केशोरायपाटन में चंबल नदी के एक किनारे पर छोड़ती थी। नदी पर तब कोई पुल नहीं था, और वहां से नाव में बैठ कर नदी पार करनी होती थी।
उस पार किनारे पर एक मंदिर बना था,जिसके एक ओर बनी सीढ़ियों से चढ़ कर गांव में जाना होता था। वहीं से गांव का मुख्य सदर बाज़ार था जिसमें बैंक की नई खुली हुई शाखा थी।
सोमवार की सुबह मैंने जाने का जब कार्यक्रम बनाया तो भाई के दोस्त ने खुद अपनी इच्छा बताई कि वो भी मेरे साथ में जाना चाहता है,और मुझे अपने घर वालों से मिलवा कर तथा वहां मेरी सब व्यवस्था करवा कर वापस आ जाएगा।
मैं और मेरा भाई इस प्रस्ताव से खुश हो गए और हमारी नई जगह को लेकर जो चिंता थी वो भी दूर हो गई।
अगले दिन सुबह जल्दी उठ कर हम दोनों हॉस्टल से निकल गए। बस स्टैंड आते ही हमें बस तैयार मिल गई और बातों में पता ही नहीं चला कि कब हिचकोले खाती रेंगती बस ने हमें चंबल नदी के किनारे उतार दिया।
तेज़ी से बहती नदी को देख कर ताज़गी आ गई। किनारे पर हमें एक नाव भी खड़ी मिल गई। नाव में महिलाएं, बच्चे, सामान बेचने वाले, व्यापारियों और छात्रों की खासी चहल पहल थी। कई लोग सायकिल, बकरियां तक उसमें साथ लिए हुए थे। दूधवालों, सब्ज़ी वालों का जमघट था।
नाव काफ़ी बड़ी थी और दोनों ओर से आ जा रही थी। सैर में खूब आनंद आया।
किनारे पहुंच कर भाई का दोस्त मुझे मंदिर, बाज़ार, गांव के बारे में बताता हुआ अपने घर की ओर ले चला।
उसके घरवाले हमें देख कर बहुत खुश हुए और ये जानकर तो और भी प्रसन्न हो गए कि उनके गांव में नए खुले बैंक में मेरी नियुक्ति हुई है।
घर से खाना खाकर हम दोनों बाज़ार में बैंक आए जो पास में ही था।
छोटे से बैंक में कुल तीन लोगों का स्टाफ था। मुझे नई नौकरी ज्वाइन करवाई गई और जब स्टाफ के लोगों को पता चला कि कोई स्थानीय व्यक्ति पहले से मेरा जानकर है तो वे और भी तत्परता से मुझे बैंक,गांव और वहां के काम के बारे में बताने लगे।
छोटी जगह के लोगों की सहयोग भावना ने मुझे बहुत प्रभावित किया।
शाम को मैं भाई के दोस्त के घर आ गया, जो अब मेरा भी दोस्त और भाई जैसा बन चुका था।
उसके घर में माता पिता और एक छोटा भाई और था जो वहां के विद्यालय में ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था।
मुझे बैंक वाले लोगों ने कहा कि उन्होंने मेरे रहने के लिए दो जगह कमरे देख रखे हैं, जो भी मुझे पसंद आएगा, उसमें वे मेरे रहने की व्यवस्था करवा देंगे।
शाम को घर आने के बाद दोस्त वापस कोटा लौट गया। आखिरी बस शाम सात बजे जाती थी, उसी को पकड़ने के लिए वो निकला। मैं और उसका छोटा भाई उसे नाव तक छोड़ने के लिए गए।
दोस्त के माता पिता ने मुझे ये भी कहा कि मैं उनके घर में ही रह सकता हूं।
पर मैंने उनसे तीन चार दिन बाद किराए के कमरे में शिफ्ट हो जाने की इच्छा जताई। वे आश्वस्त हो गए।
दोस्त के पिता ने कहा कि ये भी तुम्हारा ही घर है, जब तक चाहो यहां रहो, फ़िर अपने कमरे की व्यवस्था ठीक हो जाए तब चले जाना।
रात को खाना खाकर मैं और दोस्त का छोटा भाई सोने के लिए छत पर आए तो उसने मुझे बताया कि गांव में किसी भी घर में शौचालय नहीं है। घर के सब लोग सुबह नहाने निबटने के लिए चंबल नदी पर ही जाते हैं।
मुझे थोड़ा अचरज हुआ। उसने बताया कि मंदिर की सीढ़ियों के दाईं तरफ बने घाट पर औरतें जाती हैं और बाईं ओर बने घाट पर पुरुष जाते हैं। सुबह चार बजे से ही औरतों की आवाजाही शुरू हो जाती है। वो निपट कर, नहाकर और कपड़े आदि धोकर पौ फटने से पहले ही घर आ जाती हैं।
पुरुष लोग सवेरे दिन निकलने के आसपास जाते हैं। युवा और बच्चे जो और भी देर से जाने के आदी हैं, वो घाट से और भी थोड़ा आगे कच्चे घाट पर जाते हैं, क्योंकि पक्के घाट पर फ़िर नावों की आवाजाही शुरू हो जाती है।
कुछ लोगों ने घरों के पिछवाड़े बांस की खपच्चियां लगा कर पुराने टाट के बोरे से आड़ कर रखी थी।
घर के बुजुर्ग,बीमार,तथा इमरजेंसी के समय में औरतें भी वहां शौच कर लिया करते थे।
लेकिन वहां पानी की और साफ़ सफ़ाई की कोई माकूल व्यवस्था न होने से हर समय बदबू और मक्खियों का साम्राज्य रहता था।
गजेन्द्र, दोस्त के छोटे भाई ने बताया कि वहां से मल निस्तारण का केवल एक ही तरीका था कि वहां घूमते हुए सूअर विष्ठा को खा जाया करते थे।
कभी कभी तो ये सूअर इतने आक्रामक और निरंकुश हो जाते थे कि बैठे हुए व्यक्ति की भी परवाह न करते हुए पिछवाड़े में थूथन घुसा कर मल खींचने लग जाते थे।
गजेन्द्र ने दो साल पहले का अपना अनुभव भी बताया जब एक बार स्कूल से आकर शौच की हाजत होने पर वह जल्दी में वहां बैठ गया। टाट के पर्दे के नीचे से थूथन घुसा कर जब सूअर ने पीठ चाटना शुरू किया तो पहले तो वह इस गुदगुदी का कारण समझा ही नहीं,और कोई तितली भंवरा जैसा मच्छर समझ कर हाथ से उड़ाने की कोशिश करता रहा। फ़िर तत्काल जब सूअर की आवाज़ सुनी तो उठ कर भागा।
उस दिन के बाद वह घर के इस शौचालय में कभी नहीं बैठा।
गांव में सुबह जल्दी ही जाग और चहल पहल हो जाने के कारण रात को जल्दी ही सन्नाटा हो जाता था।
लगभग नौ बजे घर के सब लोग सो जाते थे। नीचे माता पिता के सो जाने और बत्ती बंद हो जाने के कारण छत पर हम दोनों भी जल्दी ही सो गए।
सुबह हल्का सवेरा होने के बाद नीचे से बर्तनों की खटर पटर होने के बाद नीचे आंगन से गजेन्द्र की मां की आवाज़ आई "पप्पू, भैया से पूछ, कि चाय पहले बनाऊं कि नहा कर पिएगा?
पर गजेन्द्र जाग कर बिस्तर समेट ही रहा था कि मां ने चाय का प्याला सीढ़ियों पर कुछ ऊपर आकर पकड़ा दिया।
मैं यही चाहता था, मुझे तो चाय पीकर ही शौच जाने की आदत थी।
मैंने चाय पीकर कप रखा ही था कि गजेन्द्र बोला"चलो भैया चलें !
उसने जांघिया पहने हुए पैरों में चप्पल डाली तो मैं भी चप्पल पहन कर उसके पीछे चल पड़ा।
मेरा पायजामा और बनियान पहने घर से निकलने का ऐसा मौका शायद पहली बार आया था।
गलियों के बीच से निकलते हुए हम दोनों नदी किनारे कच्चे घाट पर पहुंचे। पानी से थोड़ी दूर एक सूखी सी झाड़ी के पास उसने मुझसे कहा पायजामा यहां रख दो।
हम दोनों बैठ गए।
उसने मेरा बिना नाड़े वाला इलास्टिक का वी शेप अंडर वियर देखते हुए कहा, अच्छा इसलिए आप पायजामा पहन आए,आपको छोटी चड्डी में आना अच्छा नहीं लगा होगा। पर देखो,नीचे से धूल मिट्टी और कीचड़ में कितना गन्दा हो गया। कल से चड्डी में ही आना।
शौच करके आसपास सभी लड़के चड्डी नीचे सरकाये हुए हाथ में नाड़े पकड़े पकड़े पानी के पास जा जाकर धो रहे थे।
हाथ धोकर नीम की पतली सी टहनी से हमने दातुन किया और फ़िर किनारे के एक पत्थर पर बैठ कर नहाए। साबुन पप्पू लाया था।
लगभग आधे घंटे बाद हम वापस लौटे। मेरे गीले कपड़ों को गजेन्द्र छत पर जाकर फ़ैला आया।
नाश्ता करके जब मैं बैंक जाने के लिए निकला तो गजेन्द्र मेरे साथ गया।
उसका स्कूल बारह बजे का था।
बैंक में ज़्यादा भीड़भाड़ नहीं थी। मुझे पता चला कि शाखा में कुल तीन ही लोगों का स्टाफ स्वीकृत है, अब मेरे आ जाने से एक व्यक्ति वापस लौट जाएगा जो किसी अन्य शाखा से कुछ ही दिन के लिए वहां आया था।
धीरे धीरे मुझे काम समझ में आने लगा। मुझे ये भी बताया गया कि कुछ माह काम कर लेने के बाद मुझे प्रशिक्षण के लिए जयपुर या दिल्ली भेजा जाएगा।
मेरी लिखावट अत्यधिक सुंदर और आकर्षक होने के कारण बैंक में अाए ग्राहक खुश होकर कोई न कोई टिप्पणी करते हुए अपनी पासबुक लेकर जाते थे।
मेरा व्यवहार भी लोगों को वहां बहुत पसंद आता था और वे अक्सर कहते थे कि मैं बहुत मिलनसार हूं, और सबका काम बहुत आत्मीयता से करता हूं। शाखा के प्रबंधक भी मेरी तारीफ़ किया करते थे।
कुछ ही दिन में मैंने मंदिर के पास एक कमरा किराए से ले लिया था।
बाज़ार से मैं और गजेन्द्र एक गद्दा,चादर और तकिया भी ले आए।ज़मीन पर बिछा लिया।
खाना खाने के लिए भी मुख्य सड़क पर एक अच्छा ढाबा था,जिस पर मैं खाना खाया करता था।
गजेन्द्र का नियम हो गया था कि वो रोज़ सुबह मुझे आकर नींद से जगाता था और हम दोनों नदी पर साथ में जाते थे। वो मेरे लिए बाज़ार के एक दर्जी से नाड़े वाले, कपड़े के दो कच्छे भी सिलवा लाया था,और हम दोनों सुबह कच्छे में ही नदी पर जाते थे। हम दोनों आपस में काफी खुल गए थे और वह कभी कभी रात को मेरे कमरे में मेरे पास ही रुक जाता था।
जिस ढाबे पर मैं खाना खाता था उस पर खाना खाने के लिए कुछ दूरी पर बनी एक मिल के कर्मचारी भी आते थे। कभी कभी वहां थोड़ी ज़्यादा भीड़ हो जाती तो गजेन्द्र मुझे अपने घर पर खाने के लिए ले जाता।
वैसे भी घर से वो नाश्ते का कोई न कोई सामान मेरे लिए लाता रहता था।
कुछ दिन बाद बैंक के प्रबंधक मुझे अपने घर पर खाना खाने के लिए बुलाने लगे। दो तीन दिन तो मैं चला गया पर जब वो रोज़ ही शाम को घर आने के लिए कहते, तो मुझे संकोच होता।
मेरे मन में ये ख्याल आया कि शायद ये मुझे अपने घर पर पेइंग गेस्ट बनाना चाहते हों।
पर एक दिन गजेन्द्र मुझसे बोला"भैया, आपकी जाति कौन सी है?मैंने बता दिया"बनिया!
वो कुछ मुस्कुराता हुआ बोला "आपके मैनेजर साहब की एक लड़की है, पहले हमारे स्कूल में पढ़ती थी,अब प्राइवेट बी ए की परीक्षा दे रही है। घर पर ही रहती है, शायद वो उसके लिए आपको फांसना चाहते हैं!
मुझे उसकी बात पर हंसी आई,क्योंकि मैनेजर सचमुच हमारी जाति के बनिया ही थे।
वो बोला"हमारे स्कूल के लड़के कहते हैं कि वो आपको रोज़ शाम को खाने के लिए इसीलिए घर पर बुलाते हैं।
-अरे, लेकिन तुम्हारे स्कूल के लड़कों को कैसे पता चलता है कि उन्होंने मुझे खाने पर बुलाया है? मैंने आश्चर्य से कहा।
वो बोला"उनका बेटा हमारे स्कूल में ही तो पढ़ता है, दसवीं कक्षा में। वो बता देता है सबको।
ओह! तो ये बात थी। बैंक के मैनेजर साहब के दो बच्चे थे।बड़ी लड़की थी जो ग्यारहवीं पास करने के बाद प्राइवेट बी ए कर रही थी।और उनका छोटा बेटा दसवीं में पढ़ता था। उनके बेटे का भी घर का नाम पप्पू ही था,गजेन्द्र की तरह।
एक दिन सच में मुझे इस गोरखधंधे में कुछ सच्चाई नजर आने लगी जब एक शनिवार को मैनेजर साहब ने कहा "मिस्टर गोविल, क्या आप कल थोड़ा समय निकाल पाएंगे? यदि हो सके मेरी डॉटर को कोटा से कुछ बुक्स दिलवा लाइए। कल तो सन्डे है।
यदि मुझे गजेन्द्र ने पहले से ये सब नहीं बताया होता तो शायद मैं शिष्टाचार के नाते उनकी बात मान कर रविवार को उनकी लड़की को कोटा ले जाने को तैयार भी हो जाता। पर अब मैं चौकन्ना हो गया था।
मैंने बहाने बाज़ी करते हुए कहा "सर, कल तो मुझे भी कुछ काम है कोटा में, इसलिए मैं जाऊंगा तो सही पर रात को अपने भाई के पास हॉस्टल में ठहर कर सोमवार को सुबह ही वापस अा पाऊंगा।
मैं जानता था कि रात को लड़कों के हॉस्टल में रुकने के नाम पर वे अपनी लड़की को भेजने की बात छोड़ देंगे। पर उन्होंने भी आसानी से हार नहीं मानी। झट से बोले"ओके,नो प्रॉब्लम, तब आप पप्पू को अपने साथ ले जाइए,ये तो रात को आपके साथ ही रुक जाएगा, हॉस्टल में। और थोड़ा सा समय निकाल कर बेटी की किताबें भी ले आइएगा। ये आपको लिस्ट बना कर दे देगी।
अब मैं इनकार नहीं कर पाया। मैंने अगले दिन सुबह जाने के लिए उन्हें हां कह दिया।
उस रात गजेन्द्र मेरे पास सोने के लिए आया तो हैरान था।
बोला"पप्पू आपके साथ कोटा जाएगा?
"हां, मैंने कहा।
"रात को आपके साथ सोएगा वहां? उसने कहा।
"हां। मुझे अचंभा हुआ कि वो ये सब क्यों पूछ रहा है।
वह कुछ देर चुप रहा, फ़िर बोला"आप ध्यान रखना,वो अच्छे लोग नहीं हैं।
"अरे, क्यों? मैंने पूछा।
वह बोला"उसकी बहन भी कई लड़कों से लगी हुई थी, इसीलिए उसकी पढ़ाई छुड़ा कर उसे घर बैठाया है।
लेकिन "मेरे साथ तो पप्पू जा रहा है,उसकी बहन थोड़े ही जा रही है।
वो चुप हो गया।
अगले दिन सुबह सुबह मैं पप्पू को साथ लेकर कोटा चला गया। रविवार होने से मैं सीधा भाई के हॉस्टल में ही गया। गजेन्द्र का बड़ा भाई भी हॉस्टल में ही था।
हम चारों ने जाते ही खाना खाकर एक फ़िल्म देखी। शाम को बाज़ार में भी घूमे। मैनेजर साहब की बेटी की किताबें भी ख़रीदीं।
भाई ने नई नौकरी के सब हाल चाल पूछे।
मैनेजर के बेटे को मेरे साथ देखकर उसने अनुमान लगा लिया कि मैंने सब अच्छी तरह से जमा लिया है।
गजेन्द्र के भाई से भी उसे मेरे ज्वाइन करने के सब समाचार मिल ही गए थे। रात देर तक हम लोग बातें करते रहे। मेरा भाई अपने दोस्त के पास सोया और मेरे लिए उसने अपना बिस्तर खाली किया जिस पर पप्पू को लेकर मैं सोया। अगले दिन सुबह हम लोग लौट गए।
मैनेजर साहब बड़े खुश हुए।अगले दिन मुझे कहने लगे कि पप्पू आपकी बहुत तारीफ़ करता है, कहता है भैया ने मेरा बहुत ख़्याल रखा, मुझे पिक्चर भी दिखाई।
लेकिन अब मेरे लिए ये उलझन और भी ज़्यादा हो गई कि वो अाए दिन मुझे घर बुलाते। कभी रविवार को मेरा कोटा जाने का कार्यक्रम बनता तो पप्पू को साथ कर देते।
कभी कभी मेरे कमरे पर आ जाते। आते तो टिफिन में खाना बनवा कर ले आते। कभी कभी पप्पू को रात को सोने के लिए मेरे पास छोड़ देते।
पप्पू अगले दिन सुबह जाकर बताता कि भैया के पास पानी की सुराही नहीं है, तो सुराही भिजवा देते। एक दिन तो कुर्सी और स्टूल भिजवा दिया, जिसे मैंने बड़ी मुश्किल से वापस लौटाया।
गजेन्द्र ने मुझे बताया कि पप्पू को स्कूल में लड़के छेड़ते हैं।जब वो आपके पास आता है तो उसे कहते हैं कि अपने जीजाजी के गया था क्या?
उधर दो एक बार गजेन्द्र का भाई आया तो वो भी बताने लगा कि उनके हॉस्टल में सब लड़के पूछते हैं "भाई साहब का साला इस रविवार को आयेगा क्या?
एक दिन मैनेजर साहब ने मुझसे कहा कि आपको थोड़ा समय मिले तो बिटिया को अंग्रेज़ी पढ़ा दिया करो।
मैंने खुद अपनी परीक्षाएं होने और उनकी तैयारी का बहाना बना दिया।
रात को ये बात मैंने गजेन्द्र को बताई तो वो बोला"भूल कर भी हां मत करना...वो सलवार खोल देगी आपके सामने!
गजेन्द्र ऐसा बोल तो गया पर तुरंत ही झेंप भी गया। शायद उसे अहसास हुआ कि वो क्या बोल रहा है। पर अब हम दोनों काफी खुल चुके थे, वो मुझसे तीन चार साल छोटा ज़रूर था पर डील डौल में युवक ही लगने लगा था। मसें भींगने लगी थीं। चढ़ती उम्र थी।
मैंने कहा "तेरे सामने खोली है क्या कभी?"
वो बोला "मेरे दोस्तों ने मसला तो है उसे।"
"तूने..?" मैंने फिर छेड़ा।
"लड़के बोलते हैं हमारे एक गुरुजी का लिया है उसने।" उसने जैसे रहस्य खोला।
फ़िर वो बताने लगा कि जब हमारे स्कूल में दसवीं में थी तो टूर्नामेंट में खो खो में रावतभाटा गई थी।
"तब कहते हैं पी टी आई साहब ने फंसाया था।"
"कैसे पता?" मैंने कहा।
"लड़के कहते हैं चाल बदल गई थी, लौटी जब।" वो मुझे समझाने के स्वर में बोला।
मैंने कहा "तू तो तब बहुत छोटा होगा?"
वो हंसने लगा। बोला "आठवीं कक्षा में था।"
अब मुझे भी उससे बातचीत में रस आने लगा था। मैंने कहा"आठवी में तो कितना सा होगा?
उसे भी शरारत सूझने लगी, बोला "इसका आधा।"
मेरी निगाह गई, वो सच में कच्छे में से अपनी उत्तेजना को नाप कर दिखा रहा था। मैंने कमरे की बत्ती बंद कर दी और हम दोनों सो गए।