Prabodh Govil

Others

4  

Prabodh Govil

Others

मैं और मेरी जिंदगी -17

मैं और मेरी जिंदगी -17

14 mins
294


एक दिन कॉलेज के लॉन में बैठा हुआ मैं कोई फॉर्म भर रहा था। अकेला था।

तभी मेरा एक मित्र आया, और बोला - क्या कर रहा है?

- कुछ ज़रूरी नहीं, बोल ! मैंने पैन बंद करके फॉर्म को एक लिफ़ाफे में रखते हुए कहा।

वो उठा, हाथ पकड़ कर मुझे भी उठाया और लगभग खींचता हुआ मुझे ले चला।

वो बेहद उत्साहित और उत्तेजित था।

मुझे बताने लगा कि उसकी एक मित्र लड़की जो किसी दूसरे शहर में रहती है, जयपुर आई हुई है और अभी उससे मिलने आ रही है। उसने विश्वविद्यालय परिसर में ही एक सुनसान से रहने वाले कोने में उसे मिलने का समय दिया है।

पूरी बात सुन कर मुझे मज़ाक सूझा, मैंने कहा - तो इस पूरी प्रेम कहानी में मेरा रोल क्या होगा?

वो बोला- नयन सुख!

मैं उस संस्कृत के छात्र, कालिदास के मुरीद को देखता रह गया।

लड़की ऑटोरिक्शा से आई। जब उतरी तो उसके साथ एक सहेली और थी।

मैंने धीरे से कहा- अच्छा तो सहनायिका के साथ जोड़ी मुझे बनानी है?

वो थोड़ा सकपका गया, क्योंकि लड़की ने आते ही उससे हाथ मिलाया। फिर मुझसे भी।

कुछ देर एक बिल्डिंग के पिछवाड़े वो दोनों साथ में बैठे रहे। दूसरी लड़की चुपचाप मेरे पास खड़ी रही।

चुप्पी मैंने ही तोड़ी, जब उससे परिचय किया।

असल में वो दोनों नागौर से आई थीं और अगले सत्र में अब जयपुर में ही पढ़ने के लिए प्रवेश लेने वाली थीं। जिस कॉलेज में फॉर्म भरा था वो यूनिवर्सिटी के सामने ही था।

मैं कानोड़िया कॉलेज से अच्छी तरह परिचित था क्योंकि एक तो ये बिल्कुल मेरे पुराने स्कूल के करीब था, और दूसरे उसमें कुछ परिचित लड़कियां भी पढ़ती थीं। इनसे परिचय डिबेट स्पर्धा में जाते रहने के कारण हुआ था।

थोड़ी देर में वो चली गईं। मेरे लिए ये आश्चर्य और कौतूहल का विषय था कि उनके जाने के बाद मेरे मित्र ने काफी देर तक दीवार के पास खड़े रह कर पेशाब किया।

जब पलट कर आया तब भी नीचे पड़े पीपल के सूखे पत्तों से रगड़ रगड़ कर हाथ साफ कर रहा था।

यद्यपि अंधेरा हो चुका था फिर भी इक्का दुक्का आते जाते लोगों को भांप कर मैंने उससे कहा- साले, पहले पैंट की ज़िप बंद करके बेल्ट तो ठीक से बांध ले, फिर सामने चाय वाली दुकान पर हाथ धो लेना।

चाय पीकर मैं घर गया, वो साइकिल उठा कर अपने घर की ओर निकला।

अगले दिन छुट्टी थी। शायद कोई त्यौहार था। इसलिए कॉलेज बंद था। वैसे मेरी परीक्षा तो समाप्त हो ही चुकी थी, मैं तो कभी लाइब्रेरी में बैठ कर पत्र पत्रिकाएं उलटने पलटने, या फिर मित्रों से मिलने ही जाया करता था। मित्र भी बाहर के, या हॉस्टल वाले तो चले ही गए थे। जो छुट्टियों में वहीं रहने वाले होते, उन्हीं से मिलना हो पाता।

मैं पास की एक दुकान से कुछ सामान लेने बाज़ार की ओर आया था कि वहीं मुझे अपने एक प्रोफ़ेसर मिल गए।

मैंने उन्हें नमस्ते की।

वे जल्दी से बोले- ख़ाली नमस्ते से काम नहीं चलेगा। तुम से बहुत ज़रूरी काम है, आज शाम को घर आ जाओ।

मैंने तत्काल उनसे आने का समय पूछा और शाम होते ही उनके घर पहुंच गया।

वहां जाकर पता चला कि उनकी लड़की की सगाई तय हो गई है और उन्हें तुरंत अपने गांव जाना होगा। उनका गांव काफ़ी दूर, हरियाणा के पास कहीं था। उनका परिवार वहीं रहता था और वे अकेले ही जयपुर में रहा करते थे।

मैं पहले भी दो एक बार उनके घर गया था। वहां जाकर उनके लिए भी चाय बना देता और खुद भी उनके साथ बैठ कर पी आता था।

वे मुझसे कभी कभी कहा करते थे कि जब पुत्र का कद पिता के समान हो जाए तो वे दोनों मित्र हो जाते हैं।उनके बीच फिर कोई रहस्य नहीं रहता।

उस दिन उन्होंने यही बात फिर दोहराई। इस बात पर काफ़ी ज़ोर दिया कि मित्र बन जाने के बाद आपस में कोई रहस्य नहीं रहता।

मैं चुपचाप बैठा उनकी बात सुनता रहा, पर ये अनुमान नहीं लगा पाया कि वो क्या कहना चाहते हैं।

लड़कों की आपस की टीका टिप्पणी सुनते रहने के कारण मेरा ध्यान केवल इस बात पर गया कि ये या तो अकेले रहते रहते उकता जाने के कारण मुझे रात को अपने पास रोकेंगे, या फिर सगाई के कारण कुछ रुपए पैसे की कोई व्यवस्था करने को कहेंगे।

लेकिन मेरे दोनों ही अनुमान सिरे से ग़लत निकले। बल्कि मुझे अपने आप पर शर्म आई कि मैं क्या सोचने लगा था।

बात ये थी कि उनके पास बाहर की किसी यूनिवर्सिटी से जांचने के लिए परीक्षा की कॉपियां आईं थीं, और उन्हें लगभग एक महीने के लिए जाना था। वे चाहते थे कि उनका काम मैं कर दूं।

ये तो बहुत बड़ी बात थी कि उन्होंने इस महत्वपूर्ण काम के लायक़ मुझे समझा था। पर इससे भी विचित्र बात ये थी कि खुद मैंने जिस क्लास की परीक्षा दी थी, उसी की कॉपियां जांचने का मौक़ा मुझे मिल रहा था।

वो बार बार मुझ पर इतना बड़ा भरोसा जताने की बात करते हुए ख़ाली अंकसूचियों पर हस्ताक्षर करके मुझे सौंप गए। मुझे कॉपियां जांच कर उन पर केवल नंबर लिख देने थे और नंबरों को अंक सूची पर चढ़ाना था जिन पर उनके हस्ताक्षर पहले से ही थे।

उनका कहना था कि कॉपियां बाद में वापस भेजी जाती हैं, अतः वे लौट कर उन पर तो साइन बाद में कर देंगे पर नंबर भेजने की आख़िरी तारीख पहले ही होने के कारण ये काम मुझे करना होगा।

उनकी सख़्त हिदायत थी कि कॉपियां उनके घर से किसी भी सूरत में बाहर न जाएं।

वे अपने एक कमरे की चाबी मुझे दे गए ताकि मैं रोज़ रात को वहां आकर थोड़ी थोड़ी कॉपी जांच कर कुछ दिनों में काम पूरा कर दूं।

लगभग अनुनय विनय करते हुए उन्होंने जाते जाते ये भी कहा कि मैं थोड़ी देर से ही रात को वहां आया करूं, ताकि उनके मकान मालिक आदि कोई मेरे पास आकर व्यवधान न डालें, या जान न पाएं कि मैं क्या काम कर रहा हूं।

साथ ही वे ये भी कहना न भूले कि मैं अपने किसी दोस्त को अपने साथ न लाऊं।

मेरे लिए ये बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी थी, और गर्व की भी बात थी कि दुनिया भर पे आशंका और संदेह जताते हुए भी वो मुझे अपना भरोसा सौंप कर जा रहे हैं।

अगले दिन वे चले गए।

मैं अगले ही दिन मानो अपनी उम्र से दस साल बड़ा हो गया।

पूरी निष्ठा और सामर्थ्य से मैंने अपना काम शुरू कर दिया।

लगभग तीन या चार दिन हुए होंगे मुझे अपने काम को शुरू किए हुए। शुरू शुरू में मुझे एक एक पंक्ति ध्यान से पढ़नी पड़ती थी, पर धीरे धीरे अभ्यास होता चला गया। अब मुझे एक कॉपी को जांचने में पहले से आधा समय लगता।

चौथे दिन मैं लाइब्रेरी में बैठा था कि अचानक एक सीनियर शोध छात्र मेरे सामने बैठते हुए बोला- और भाई, कैसा चल रहा है? कितने फर्स्ट क्लास दे दिए गुरुजी के? कोई फेल भी किया क्या?

मैं जैसे आसमान से गिरा। केवल हड़बड़ा कर इतना बोल पाया- मैंने आपको पहचाना नहीं सर।

मेरे "सर" बोलने से वो थोड़ा नरम पड़ा और तब मेरे करीब आकर उसने बताया कि जो काम मैं कर रहा हूं, वो पिछले चार साल तक उसने किया है। गुरुजी हर बार अपनी कॉपियां दूसरों से ही चैक करवाते हैं और खुद लंबे समय के लिए गांव चले जाते हैं।

मैं हैरान रह गया। सब जानकर उसकी बात पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं था।

उस युवक ने बताया कि वो यूनिवर्सिटी में पी एच डी कर रहा है और गुरुजी का विद्यार्थी रहा है। उसका कहना था कि गुरुजी ने पिछले साल ये काम करने के कुछ पैसे देने के लिए कहा था, पर दिए नहीं, इसलिए उसने इस बार ज़्यादा काम होने का बहाना करके मना कर दिया। वैसे शुरू के दो तीन साल वो बिना पैसे लिए करता रहा है।

मैंने ये कभी सोचा भी नहीं था कि इस काम के लिए गुरुजी कुछ पैसे देंगे, फिर भी पूरी बात जान कर गुरुजी पर थोड़ा क्रोध ज़रूर आया।

मुझे महसूस होता रहा कि जिस कार्य को मैं अपने गुरु का मुझ पर अगाध विश्वास समझ कर पूरी निष्ठा से कर रहा हूं वो तो वास्तव में मुझे मूर्ख बना कर किया जा रहा असंवैधानिक कार्य है। मेरा मन उचाट हो गया।

गुरुजी यहां नहीं थे, इसलिए मुझे काम तो पूरा करना ही था, किन्तु सब जानने के बाद उस काम के प्रति मेरी गंभीरता कम हो गई।

मैं अगले दिन रात को कॉपियां चैक करने गया तो साथ में अपने एक मित्र को भी ले गया।

मित्र को ये जानकर बहुत कौतूहल हुआ कि मैं ये काम कई दिनों से कर रहा हूं ।

मैं कॉपी जांचता रहा, और मित्र इधर उधर गुरुजी के कमरे का सामान, अलमारियां आदि खंगालता रहा।

उसने फ्रिज और पीने का पानी तलाश करने की कोशिश की। पर न मिलने पर खीज कर बोला - साला, कंजूस, तेरे लिए पीने का पानी तक नहीं छोड़ के गया, और तू गधे की तरह उसके धंधे में जुता हुआ है?

मुझे हंसी तो आई पर मैं उसे धैर्य रखने के लिए समझाता रहा।

उसने गुरुजी की कपड़ों की अलमारी से एक लुंगी निकाल ली, और बोला - तू गर्मी में अपने कपड़े पसीने में क्यों खराब कर रहा है, ये ले, ये पहन कर बैठा कर।

मैंने हंसकर मना किया तो उसने खुद लुंगी लपेट ली और अपनी कमीज़ तथा पैंट खूंटी पर टांग दी।

वह बैठा बैठा उनकी हर चीज़ से छेड़खानी करता रहा।

कभी कोई किताब निकाल कर पलटता, कभी उनके कपड़ों की जेबें खंगालने लगता। उसे अलमारी के ऊपर के खंड में एक बिस्किट का पैकेट भी रखा हुआ मिल गया। झट से उसे खोलकर उसे मेरे सामने कर दिया। मैंने एक बिस्किट उठाया, बाक़ी के वो खाने लगा।

अगले दिन पहले तो मैंने सोचा कि मेरे दोस्त को भी बुलाया तो वो वहां उसी तरह छेड़खानी और डिस्टर्ब करेगा, पर बाद में मैंने उसे ये सोच कर आवाज़ दे ली कि उससे भी नंबर जुड़वाने और सूची में चढ़वाने में मदद लूंगा तो काम कुछ जल्दी हो जाएगा।

वो सहर्ष मेरे साथ आ तो गया, पर वह अपनी जेब में सिगरेट का पैकेट और माचिस भी रख लाया।

ये सुविधा उसे अपने घर पर तो मिलती नहीं थी, पान की दुकान पर जाकर छिप कर कभी कभी पीता था, पर यहां आराम से ले आया। आते ही कपड़े उतार कर खूंटी पर टांगे और केवल चड्डी बनियान पहन कर, पैर फ़ैला कर मज़े से कश लगाने लगा।

कुछ देर बाद मैंने अंक चढ़ाने में उसे बोल कर लिखाने की सहायता ली। वो इतना बातूनी था कि उसके कारण मेरा काम और भी धीमी गति से होने लगा।

मैंने मन में सोचा कि कल से इसे नहीं लाऊंगा। पर अगले दिन वो मेरे निकलने से पहले ही मेरे घर के दरवाज़े पर खड़ा हुआ मिला।

आज वो कुर्ता पायजामा पहन कर आया था।

उसके इस वस्त्र विन्यास का कारण मुझे गुरुजी के कमरे पर पहुंच कर पता चला, जब उसके पायजामे की जेब से एक बीयर की बोतल निकली और कुर्ते की जेब से नमकीन का छोटा सा पैकेट।

किसी तरह से धीरे धीरे करके काम खत्म हुआ।

कुछ दिन बाद गुरुजी भी लौट आए। मैंने न उनसे कुछ पूछा और न ही उन्हें कुछ बताया।

वे काफ़ी खुश थे।

मैंने इन लगभग साढ़े तीन सौ कॉपियों में उच्चतम अंक लगभग सत्तर प्रतिशत दिए थे। जिन के भी पैंसठ से ज़्यादा अंक थे, उन कॉपियों को गुरुजी ने एक बार उलट पलट कर देखा। दो अभ्यर्थी फेल हो गए थे, उनकी कॉपी भी गुरुजी ने निकाल कर पलटी।

वे आश्वस्त हो गए।

मैं उनके घर से मिठाई खाकर लौट आया।

विश्वविद्यालय के परीक्षा परिणाम आने शुरू हो गए थे। अब कभी भी हमारा भी परिणाम आ सकता था। इसलिए छुट्टियां होते हुए भी अब मैंने लगभग रोज़ ही लाइब्रेरी जाना शुरू कर दिया था।

एक दिन मैं लाइब्रेरी से वापस आ रहा था तो रास्ते में मुझे दो लड़कियां मिलीं। उनमें से एक मुझे जानती थी। उसने कहा- प्रबोध, ये मेरी फ्रेंड है, इसे एक दिन के लिए कुछ देखने के लिए लोक प्रशासन की किताब चाहिए, तुम दे दोगे?

मुझे भला क्या ऐतराज होता। अगले दिन घर से लाकर मैंने उसे किताब दे दी।

वो दूसरे ही दिन वापस ले आई।

मेरे एक मित्र का छोटा भाई जो ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था, अचानक मुझसे बोला- भैया, बिलव्ड माने क्या होता है?

- क्यों? तुझे किसने बताया ये शब्द? मैंने उससे पूछा!

वो बोला- बताया किसी ने नहीं, आपकी किताब पर लिखा है!

मैंने चौंक कर देखा, सचमुच मेरी किताब पर चढ़े अख़बार के कवर पर सुन्दर और जमी हुई लिखावट में लिखा था- "माय स्वीट हार्ट बिलव्ड प्रबोध !"

मैं बुरी तरह शरमा गया। मैंने जल्दी से उसे बताया- प्यारा।

वो कुछ मुस्कुराता हुआ वापस चला गया।

उस शाम मेरा मित्र घर आया। उसे शायद उसके छोटे भाई ने किताब पर लिखी इबारत की बात बता दी थी। मित्र बोला- किसने लिखा था?

मैंने पूरी बात बता दी। वो कुछ याद सा करता हुआ बोला, शायद वही लड़की होगी, मैं उसे जानता हूं।

- कैसे? मैंने पूछा।

- अरे वो चालू लड़की है, तीन चार लड़के उसे मसल चुके हैं। शाम को जब लड़के क्रिकेट खेलते हैं तब कूलर से पानी पीने के बहाने आ जाती है। तू खुद देख लेना उसकी छातियां! वो बोला।

मुझे मज़ाक सूझा। मैंने कहा - क्यों, उसकी छाती पे क्या लड़कों के साइन हैं?

वो हंस पड़ा। बोला- भाईसाहब, पांच सात लड़कों के मसले बिना ऐसी छाती हो ही नहीं सकती। एक बार तो मैंने ख़ुद देखा है, बाथरूम में अभिनव ने ऊपर से उसके कुर्ते में हाथ दे रखा था। मेरे आते ही निकल कर भाग गया साला।

- तुझे देख लिया? फिर तो तुझे भी मौका दे देगी। मैंने कहा।

- माफ़ करो, मुझे ऐसे चक्कर में नहीं पड़ना। कह कर वो चला गया।

दो तीन दिन बाद वो दोनों लड़कियां फिर एक दिन मुझे मिलीं। और तब मुझे पता चला कि कुछ लड़के मेरा नाम लेकर उसे कभी कभी छेड़ते हैं। मैंने अपनी जानने वाली लड़की को कहा कि न तो मुझे ऐसी बातों में कोई दिलचस्पी है और न ही मैं इस तरह किसी से मिलना चाहता हूं। मेरे सख़्त और सपाट लहज़े से कुछ अपमानित सा महसूस करते हुए वे दोनों चली गईं और उसके बाद फिर कभी मुझे नहीं मिलीं।

कुछ ही दिनों में मेरा रिज़ल्ट आ गया। मैं केवल चार अंकों से फर्स्ट क्लास चूक गया था, और बी ए में मुझे उच्च द्वितीय श्रेणी मिली थी।

मेरे अंक बड़े ही बेतरतीब थे। कुछ पेपर्स में विशेष योग्यता और कुछ में बेहद कम।

ख़ैर, अब मेरे अंकों से किसी को कोई फर्क पड़ना बंद ही हो गया था। लोग मानने लगे थे कि मैं मनमाने फ़ैसले लेता हूं, इसलिए परिणाम भी अजीबोग़रीब आते हैं।

जिस पेपर के लिए कहा गया था कि उसमें साठ प्रतिशत अंक आना नौकरी मिलने की गारंटी है, उसमें मेरे लगभग अस्सी प्रतिशत अंक थे।

साथ ही ऐसे विषय में बहुत कम नंबर थे जिन्हें लड़के स्कोरिंग कहते थे।

अब सवाल ये था कि मैं एम ए किस विषय में करूं?

मेरे पिता की सलाह पर मैंने इंग्लिश में प्रवेश ले लिया। मुझे अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने में आनंद आता था। मैंने बहुत सी कोर्स की किताबें छुट्टियों में ही पढ़ डाली थीं।

मेरे हिंदी साहित्य के प्रोफ़ेसर ने कहा कि मुझे हिंदी में एम ए करके उनके अंडर में पी एच डी करनी चाहिए। पर मैंने इसके लिए उन्हें ये कहते हुए अनिच्छा जता दी कि मेरा मन शिक्षा विभाग से जुड़ने का नहीं है।

अंग्रेज़ी की कक्षाएं शुरू हो गईं।

अभी " मिड समर नाइट्स ड्रीम", "अंडर द ग्रीन वुड ट्री", "फार फ्रॉम द मेडिंग क्राउड" का आनंद ले ही रहा था कि एक शाम डाक से एक छोटा सा परवाना किसी पंछी की तरह चला आया।

मैंने बैंक ऑफ बड़ौदा की जो परीक्षा दी थी, उसमें मेरा चयन हो गया था और मुझे कोटा के पास एक गांव केशोरायपाटन में कार्य ग्रहण करना था।

हमेशा की तरह फिर मेरे सामने दो रास्ते थे।

एक ओर था, रुतबेदार अंग्रेज़ी विभाग, नामी गिरामी प्रोफेसर्स, एम ए इंग्लिश की लुभावनी डिग्री, फिर आई ए एस की परीक्षा में बैठने की तैयारी की गौरवपूर्ण चुनौती...

दूसरी ओर एक नामी राष्ट्रीयकृत बैंक में मुलाजिम होकर हर महीने आकर्षक वेतन,  आंतरिक परीक्षाएं पास करके आगे बढ़ने के मौक़े, इक्कीस वर्ष की आयु होते ही अपने पैरों पर खड़े हो जाने का आत्म सम्मान, चंबल के किनारे बसे एक धार्मिक कस्बे नुमा गांव में आत्म निर्भर होकर रहने का सुख...

पहली सोच दिमाग़ की थी और दूसरी दिल की।

फिर एक बार मेरे दिल ने दिमाग़ पर जीत हासिल की।

मैंने विश्वविद्यालय शिक्षा से अपने दिन समेटने शुरू कर दिए। घर पर किसी ने मेरे फ़ैसले पर आपत्ति नहीं की, केवल पिताजी ने इतना कहा कि बैंक में जाकर भी अपनी पढ़ाई जारी रखने और आगे बढ़ने की कोशिश छोड़नी नहीं है। अगले महीने नॉन कॉलेजिएट छात्र के रूप में एम ए का फॉर्म भर लेना जरूरी है।

अपने बड़े भाई से पहले ही नौकरी पर लग जाने का गर्व भी मेरे साथ जुड़ रहा था, जो हमारे बीच स्पर्धा की कटुता को शायद और बढ़ा ही रहा था, किन्तु बड़े भाई अब एक अच्छे नामी कॉलेज से एग्रीकल्चर का अपना मनपसंद कोर्स कर रहे थे और उसके पूरा होने पर उन्हें अच्छी सरकारी नौकरी मिल जाने की संभावना थी।

छोटा भाई भी हॉस्टल में रह कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था।

मैंने अपने नए दिन और नई ज़िंदगी के खयालों में डूबना शुरू कर दिया था।


क्रमशः


Rate this content
Log in