Prabodh Govil

Others

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मैं और मेरी जिंदगी -16

मैं और मेरी जिंदगी -16

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साल के अंत में परीक्षा देकर मैं घूम फिर कर दिन काट ही रहा था कि एक दिन रिज़ल्ट आ गया।

मैंने सैकंड ईयर के साथ ही फर्स्ट ईयर के पेपर्स भी दिए थे।

मेरे प्रथम श्रेणी के काफी अच्छे नंबर आए ।

ये किसी के लिए भी ज़्यादा खुशी की बात नहीं थी। आखिर डॉक्टर या इंजीनियर बनने का सपना देखने वाला बी ए में अच्छे नंबरों से पास हो, तो इसमें कौन सी बड़ी बहादुरी।

मैं लोगों से उनकी उम्मीदें, जिज्ञासा या कौतूहल वापस लाने के लिए तो कह नहीं सकता था, हां, अपने सपनों की प्रोफ़ाइल को थोड़ा नीचे सेट कर लेना मेरे वश में था। मैंने वही किया।

नया साल शुरू होते ही मैं अपने खोए हुए आत्मविश्वास के साथ वापस कॉलेज में आ गया।

अच्छा लगता था मुझे।

लेकिन अब न तो चित्र बनाने की इच्छा होती थी, और न ही कुछ लिखने की।

इस अवधि को मैं अपने जीवन की एक अन्य विशिष्ट अवधि की तरह गिनता हूं।

इसमें मैं ज़्यादा से ज़्यादा मित्र बनाने की कोशिश करता था। जो मित्र थे, उनके ज़्यादा से ज़्यादा करीब आने की कोशिश करता। हमेशा किसी न किसी के साथ रहने की जरूरत होती थी। मैं अकेलेपन को किसी भी तरह भगाने के लिए प्रयासरत रहता।

दो साल बिगड़ जाने से क्लास में भी जो मित्र होते वो अधिकतर मुझसे छोटे होते।

जिस तरह अपनी बुद्धिमत्ता के चलते स्कूल में मुझे अपनी उम्र से बड़े लड़के मित्र के रूप में मिलते थे, उसी तरह अब छोटे लड़के मेरे मित्र होने लगे।

मैं नहीं जानता कि मेरा बौद्धिक स्तर गिर गया था या किशोरावस्था का बोध फिर से जाग गया। मैं, जिस आयु का मित्र होता, उससे उसी स्तर पर मिलता।

एक दिन तो हद ही हो गई।

मैं कॉलेज के ऑफिस में जाकर सभी छात्रों की एक छपी हुई रोल लिस्ट उठा लाया। ऐसी सूची प्रायः चुनाव में खड़े होने वाले लड़के लिया करते थे। ऑफिस ये आसानी से उपलब्ध भी करवा दिया करता था क्योंकि ये बड़ी संख्या में छपी हुई लिस्ट होती थी, जो परीक्षा, हाज़िरी, रिज़ल्ट, डिग्री आदि के लिए काम में आती ही रहती थी।

एक रविवार को घर पर अकेले बैठे हुए मैंने कैंची से हर विद्यार्थी का नाम अलग अलग करके काट लिया, और इन पर्चियों को एक बड़े से डिब्बे में रख लिया। गत्ते का ये डिब्बा मेरे सैंडिल का था जो मैंने नए खरीदे थे।

मैं बिना किसी प्रयोजन के रोज शाम को कॉलेज से आने के बाद इन पर्चियों को उलटता पलटता रहता था। मैं बिल्कुल नहीं जानता था कि मैं क्या कर रहा हूं।

लेकिन एक छुट्टी के दिन विचित्र सी मनोदशा में मैंने लॉटरी की तरह एक पर्ची बिना देखे चुन कर निकाली और उसे अलग एक लिफ़ाफे में रख लिया।

शायद ये अवचेतन में मेरा कोई विद्रोह था जो इस बात पर आधारित था कि मेरे चाहने से यदि कोई बात नहीं हो पा रही है तो जो स्वतः हो रहा हो, उसे सहने आत्मसात करने का बल मुझे अपने भीतर पैदा करना चाहिए ताकि दुनिया और ज़िन्दगी से एक आसान सहज सामंजस्य स्थापित हो सके।

मेरे मन में ये ख्याल आया कि मैं अपने पास इकट्ठे सभी नामों में से एक नाम लॉटरी से चुनूंगा और उसे अपना मित्र बनाऊंगा। चाहे वो किसी भी क्लास का हो, किसी भी उम्र का हो, किसी भी शहर या गांव का हो, किसी भी आर्थिक स्थिति का हो या किसी भी जाति धर्म का हो।

मैं पूरा प्रयत्न करूंगा कि वो मेरा सबसे अच्छा, यानी बेस्ट फ्रैंड बन कर रहे। हम कभी कभी साथ में खाना खाएं, साथ में घूमें, साथ में फ़िल्म देखें, साथ में रहें, साथ में पढ़ें। मैं उसकी किसी बात का विरोध नहीं करूंगा, उसकी हर आदत में साथ दूंगा, उसके लिए अपना श्रम, संसाधन और ज़मीर भी बाधा नहीं बनने दूंगा।

ये एक प्रकार से अपने को समायोजन के लिए प्रस्तुत करने का अभ्यास था।

कभी कभी मैं ये सोच कर विचलित भी होता कि कहीं ये ज़िंदगी से भागने, पलायन करने या "पैसिव" हो जाने का कोई रास्ता तो नहीं है।

कुछ दिन ऊहापोह में निकले।

मैंने दोस्त चुन लिया था पर उसका नाम किसी रहस्य की भांति लिफ़ाफे में बंद था।

लिफाफा तो मैं चाहे जब खोल लेता, उसमें जिसका नाम निकलता, उसे खोज कर ढूंढ़ भी लेता, पर उसे अपना मन दिखाना एक दुश्वारी भरा काम था। क्या जाने उससे कैसा प्रतिसाद मिले?

ख़ैर, मुझे इसमें कुछ खोना तो था नहीं, केवल दिमाग का एक फितूर, दिल का एक शगल ही तो था।

मैंने एक दिन लिफ़ाफा खोल कर नाम पढ़ लिया।

मुझे थोड़े से प्रयास से ये भी पता चल गया कि वो कौन है !

वो प्रथम वर्ष का दुबला पतला, राजस्थान के एक बॉर्डर के ज़िले के छोटे कस्बे से आकर हॉस्टल में रहने वाला, सांवले से रंग का, बेहद सीधा सादा प्यारा सा विद्यार्थी था।

नाम था...

जाने दीजिए।

नहीं, नहीं, जान लीजिए। नारायण।

जब मैं पहली बार उससे मिला तो वो अकेला लायब्रेरी से निकल रहा था। मेरे रोकने पर उसने शायद इसे सीनियर छात्र द्वारा रैगिंग का मामला समझा। वह थोड़ा सा सकपकाया।

पर मैंने उसे आश्वस्त करते हुए पहले अपना परिचय दिया, फिर उसके परिचय की दो तीन बातें पूछीं। इसी बीच मेरे एक दो परिचित छात्र मिल जाने और उनसे "हाय हैलो" हो जाने से उसकी झिझक भी खत्म हो गई और हम तीन चार लड़के एक साथ बातें करते हुए साथ में पोर्च तक अाए।

किसी की भी क्लास नहीं थी। हम सब कैंटीन में चले गए।

हमने चाय पी।

नारायण का हॉस्टल कॉलेज से घर जाने के मेरे रास्ते में ही पड़ता था। उसका तीन में से एक विषय मेरे साथ कॉमन था।

और जल्दी ही मुझे ये भी पता चला कि मेरे छोटे भाई का स्कूल टाइम का एक अच्छा मित्र, जो अब मेरा भी मित्र था, नारायण की क्लास में उसके साथ ही था।

हम सहजता से मित्र बन गए और कॉलेज में समय समय पर मिलने लगे। वैसे ही, बिना किसी प्रयोजन के।

फिर मैंने कभी उसे ये भी बताने की जरूरत नहीं समझी कि मैंने उसे कैसे और क्यों खोजा था।

इस साल भी मैंने कॉलेज की ओर से कई डिबेट प्रतियोगिताओं में भाग लिया।

गणित ने यहां एक बार फिर मुझे डराया।

इकोनॉमिक्स में अब मुझे दो पेपर्स में से एक चुनना था। एक पेपर सांख्यिकी का था, जिसमें गणितीय सवाल शामिल थे और प्रोफेसर्स कहते थे कि तुम्हें अच्छा डिवीजन बनाए रखने के लिए यही विषय लेना चाहिए।

दूसरा आयोजना का था, जो पूरी तरह सैद्धांतिक पेपर था। सब कहते थे कि इसमें अंक ज़्यादा नहीं आते।

पर मैं दूध का जला था, इसलिए छाछ भी फूंक फूंक कर पीना चाहता था। मैंने अंकों का लालच नहीं किया और आयोजना का प्रश्नपत्र ही चुना।

बी ए पूरा होते होते मुझे एक चिंता और व्यापने लगी।

मेरे दो भाई दूसरे शहरों में हॉस्टल में रहकर पढ़ रहे थे, और छोटी बहन की शिक्षा भी चल रही थी।

बड़े भैया ने शादी के तुरंत बाद से ही घर के खर्च में भारी सहयोग दिया था।

मेरे मन में भी ये बात आने लगी कि मुझे भी अपने मातापिता को घर खर्च में हाथ बंटाने के लिए कुछ करना चाहिए।

मुझे दसवीं कक्षा से ही सरकार की ओर से जो छात्रवृत्ति मिलती थी, वो अब विषय बदल लेने के बाद बंद हो गई थी।

बड़ी बहन का विवाह हो चुका था और वो घर से जा चुकी थीं।

मेरे मन में ये आने लगा कि मुझे ऐसा कुछ प्रयास करना चाहिए कि बी ए पूरा होते ही मैं कम से कम अपना खर्च खुद उठा सकूं। साथ ही आगे के लिए जो भी कोचिंग, परीक्षाओं आदि में शामिल होना हो, उसका बोझ घर वालों पर न डालना पड़े।

मुझे लगातार ये महसूस होता था कि मैं सक्षम होते हुए भी अपने माता पिता के सपनों को पूरा नहीं कर पाने का गुनहगार हूं।

मुझे ये बात भी कचोटती थी कि मैंने घरवालों के सपने और उम्मीदों को अपना ख़्वाब क्यों नहीं बनाया!

बचपन में साइंस टैलेंट हंट की परीक्षा पास कर लेने के बावजूद मैंने विज्ञान को कभी गंभीरता से क्यों नहीं लिया? मैंने नेशनल साइंस टैलेंट सर्च की परीक्षा भी पास करने के बाद उसका प्रायोगिक प्रोजेक्ट पूरा नहीं किया था।

मुझे नवीं कक्षा में रेडियो स्टेशन द्वारा आयोजित राज्यस्तरीय क्विज़ में भी उपविजेता का पुरस्कार मिल चुका था किन्तु मैंने वहां भी हिंदी संस्कृत नाटकों में भाग लेने में ही रुचि बनाए रखी।

मैंने अब अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश में एक राष्ट्रीय कृत बैंक में भी लिखित परीक्षा के लिए आवेदन कर दिया। साथ ही सरकार के असिस्टेंट ग्रेड की परीक्षा का फॉर्म भी भर दिया।

मेरे मित्रों व अध्यापकों द्वारा ये कहा जाता था कि मुझे अपने आप को इतने निम्नस्तर पर रख कर कैरियर की प्लानिंग नहीं करनी चाहिए।

पर मैं उन्हें समझाया करता था कि एक बार किसी भी जगह पैर रखने की जगह मिल जाने पर मैं बाद में लिखित परीक्षाओं के माध्यम से आगे बढ़ने की कोशिश करूंगा।

एक बार मेरे पिता ने भी मुझसे कहा कि मैं अपने आप को अंडर एस्टीमेट करने लगा हूं, जो मुझे नहीं करना चाहिए, और ज़िन्दगी में कुछ बनने के मंसूबे रखने ही चाहिए।

ये आश्चर्य जनक था कि मेरे पिता, मेरे दो बड़े भाई, और एक बड़ी बहन के होते हुए भी अपनी सभी चिंताएं, योजनाएं मेरे साथ बांटा करते थे और मेरी सलाह को पूरा महत्व दिया करते थे। उन्होंने मेरे विषय परिवर्तन को मेरी असफलता नहीं माना था।

ये बात मेरा भी मनोबल बढ़ाती थी।

मैंने इन्हीं दिनों रेडियो स्टेशन पर कार्यक्रम देने के लिए आवाज़ टेस्ट करवाने के लिए भी फॉर्म भर दिया।

अप्रैल महीने में मेरी वार्षिक परीक्षा थी, बीच बीच में लंबे अंतराल के कारण ये परीक्षाएं मई माह तक चलनी थीं।

संयोग से जिस दिन मेरा अर्थशास्त्र का पेपर था, उसी दिन सुबह ग्यारह बजे मुझे रेडियो स्टेशन पर वॉइस टेस्ट के लिए बुलाया गया।

अच्छी बात ये थी कि पेपर दोपहर तीन बजे से शुरू होना था। मैं जानता था कि यदि मैंने किसी को भी इस बारे में बताया तो वो मुझे टेस्ट के लिए न जाने की सलाह देगा। इसलिए मैं चुप रहा और सुबह साढ़े दस बजे सायकिल उठा कर रेडियो स्टेशन चल पड़ा।

साथ ही मैंने अपने पेपर के लिए आवश्यक सामग्री भी ले ली ताकि वहीं से सीधे परीक्षा के लिए मैं जा सकूं।

सुबह नाश्ते के समय ही मैंने खाना भी खा लिया और भाभी से कह दिया कि देर से खाना खाने से परीक्षा में नींद आती है इसलिए अभी खा लिया है, अब नहीं खाना है।

रेडियो स्टेशन सरकारी विभाग था, इसलिए टेस्ट शुरू होते होते बारह बज गए। इसके बाद भी मौखिक जांच होनी थी, जिसमें और देर लग रही थी।

मैं स्टेशन की डायरेक्टर मैडम के पास चला गया और उनसे कहा कि मेरी यूनिवर्सिटी की वार्षिक परीक्षा है और यहां बहुत देर लग रही है।

वे तत्काल उठकर मेरे साथ आईं और उन्होंने विभाग के अधिकारियों से नाराज़ होकर मुझे जल्दी छोड़ने के लिए कहा। उन्होंने हल्की डांट मुझे भी लगाई कि वार्षिक परीक्षा के समय मुझे इस टेस्ट के लिए नहीं आना चाहिए था। उनका कहना था कि ऐसे टेस्ट तो हम हर छह महीने बाद लेते हैं।

मैं टेस्ट पूरा होते ही सायकिल उठा कर कॉलेज की ओर भागा जहां मेरा परीक्षा केंद्र था।

मैं उन मैडम से प्रभावित हुआ, उनकी बात सही थी। पर पेपर ठीक हो गया और शाम को घर पहुंच कर लगा कि वास्तव में मैंने गलती तो की ही थी।

दो दिन बाद हिंदी साहित्य का वो पेपर था जिसके लिए मेरे एक प्रोफ़ेसर कहते थे कि नया पेपर है, अगर साठ प्रतिशत अंक ले आओगे तो अपनी अंक तालिका को अपना नौकरी का अपॉइंटमेंट लेटर समझना।

गर्मी के दिन थे।

रात को छत पर ठंडी हवा चलती थी। पर ये देख कर बहुत खीज होती थी कि चारों दिशाओं में सब सो रहे हैं और मैं बंद कमरे में पंखे के नीचे चड्डी पहने किताब में आंखें गढ़ाए बैठा हूं।

ये तनाव तो मन में रहता ही था कि बाक़ी लड़के जिस विषय को नवीं कक्षा से पढ़ते आए हैं उसे मैं केवल पिछले साल से ही पढ़ रहा हूं।

फिर भी शिक्षक गण कहते थे कि विज्ञान पढ़कर आए बच्चे उन लोगों से बेहतर करते हैं जो शुरू से ही कला के विद्यार्थी हैं।

तनाव कभी कभी ज़्यादा बढ़ जाता तो मैं अपने खास मित्र के पास चला जाता। रात को उसके कमरे पर ही रुकता।

परीक्षा खत्म होते ही मैंने बहुत सारी फ़िल्में देखीं। आखिरी पेपर वाले दिन कोई मित्र नहीं मिला तो मैं अकेला ही आखिरी शो में फ़िल्म देखने निकल गया। धर्मेंद्र मुमताज़ की फ़िल्म "लोफर" देखी।

दूसरे दिन मित्र के साथ शशि कपूर राखी की फ़िल्म "शर्मीली" देखी।

रात को हम दोनों ने खाना साथ ही खाया और मैं उसके कमरे पर उसके साथ ही रहा।

छुट्टियों की दोपहर में एक दिन मैं लाइब्रेरी में बैठा था कि मेरी क्लास का एक लड़का आया। वह भी पास के किसी छोटे से गांव से पढ़ने आता था।

वह मुझसे बोला- मैं बहुत दिन से तुझसे एक बात कहना चाहता था, पर कभी मौका नहीं मिला। आज मिला है।

मैंने तुरंत कहा -अरे ऐसी क्या बात है, बोल !

वह कुछ सकुचाते हुए बोला - मैं एक बार तेरे साथ किसी अच्छे होटल में खाना खाने जाना चाहता हूं, पर सारा खर्चा मैं करूंगा।

मुझे बहुत मज़ा आया। मैंने कहा - तू मुझे अब तक क्यों नहीं मिला? बोल कहां चलना है, और कब?

सुबह के ग्यारह बजे थे, हम तत्काल निकल कर एक होटल में चले गए।

वहां जाकर मुझे पता चला कि वो ग्रामीण लड़का असल में मुझसे किसी होटल में खाने का तरीका सीखना चाहता है। कैसे खाना ऑर्डर करें, कैसे मेनू चेक करें, टेबल मैनर्स और थोड़ी सी ड्रिंक्स के बारे में जानकारी, शब्दावली, क्रॉकरी की जानकारी और उनका प्रोपर यूज आदि उसे जानना था।

मुझे बहुत मज़ा आया। केवल एक पेग रम भी पी, और खाना खाया। मेरे मना करने के बावजूद सारा खर्चा उसी ने किया। खाना खाते समय मैं उसे बहुत सी बातें बताता रहा।

होटल से निकल कर पोलोविक्टरी सिनेमा में हमने पिक्चर भी देखी। टिकिट उसी ने लिया। फ़िल्म थी विनोद खन्ना और मौसमी चटर्जी की "कच्चे धागे"।

बाद में मुझे पता चला कि वो बी ए के बाद होटल मैनेजमेंट और टूरिस्ट गाइड का कोई कोर्स करना चाहता है।

हम जैसे ही फिल्म से निकले, बाहर मुझे मेरा एक पुराना मित्र मिला। वो बोला- बड़े दिनों से वो मेरी परीक्षा ख़त्म होने का इंतजार कर रहा था, और आज मेरे साथ फ़िल्म देखने के लिए मुझे घर से बुलाने वो मेरे घर गया था।

उसकी बात सुन कर मैंने तुरंत दोबारा फ़िल्म देखने का कार्यक्रम बना लिया। गांव से आए पहले वाले मित्र को अब जाना था, उसने मुझे, और मैंने उसे धन्यवाद देकर एक दूसरे से विदा ली। वो चला गया, और हम दोनों अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी की फ़िल्म ज़ंजीर देखने घुस गए।

शाम छह बजे बाहर निकले तो सिनेमा घर से कुछ ही दूरी पर मैंने अपने भैया भाभी को खड़े पाया। वे फ़िल्म देखने आए थे।

मित्र चला गया। और मैं भैया भाभी के लिए टिकिट लेने फिर लाइन में लग गया। पर भारी भीड़ होने से टिकिट नहीं मिली।

भैया भाभी की इच्छा कोई भी फ़िल्म देखने की थी। हम तीनों पास के सिनेमा घर में शम्मी कपूर और राजश्री की पुरानी फिल्म जानवर देखने घुस गए।

फ़िल्म अच्छी थी।

नौ बजे पिक्चर से निकलते ही भैया भाभी का इरादा बाहर ही खाना खाने का था। हम तीनों जा ही रहे थे कि मेरा वो दोस्त मिल गया जिसके घर में कई बार जाया करता था। वह भी दो एक बार मेरे साथ रात को मेरे घर पर ही रह चुका था।

भैया जानते थे कि हम दोनों एक दूसरे की बात कभी टालते नहीं हैं, इसलिए जब उसने कहा कि वो फ़िल्म देखने के इरादे से आया है, तो भैया ने मुझे उसके साथ जाने दिया।

इतना समय नहीं था कि हम खाना खा सकें, क्योंकि साढ़े नौ बज चुके थे और आखिरी शो का समय हो गया था।

भाभी ने जल्दी से समोसे लेकर हमें दिए और हमें फ़िल्म में जाने के लिए कह कर वो लोग खाना खाने चले गए।

मैं और मेरा दोस्त पास के एक थियेटर में "पाकीज़ा" देखने घुस गए।

जाते जाते मैंने भाभी से ये भी कह दिया कि रात को घर पर मेरा इंतजार न करें, मैं दोस्त के पास ही सोऊंगा।

ये जीवन का मेरा एक ऐसा रिकॉर्ड बन गया, एक दिन के लगातार चारों शो देखने का, जिसमें मैंने अलग अलग लोगों के साथ, अलग अलग सिनेमा घर में, अलग अलग फ़िल्में देखीं।

फ़िल्म देख कर रात लगभग एक बजे हम दोनों उसके कमरे पर आए और कपड़े उतार कर बिस्तर पर पड़ गए।

मैं आज दिन भर में लगातार चार फ़िल्में देख कर अजीब सी थकान महसूस कर रहा था पर वो शायद दोपहर में काफ़ी सो लेने और छुट्टियां होने से तरोताजा अनुभव कर रहा था।

वो न जाने क्या क्या बातें किए जा रहा था और मैं उसके बगल में लेटा आधी नींद में हां हूं किए जा रहा था।

वो कह रहा था - डॉक्टरी पढ़ते समय पहले खरगोश, चूहे या मेंढक काटने पड़ते हैं, तब कहीं जाकर आदमी का शरीर काट पाने का हुनर आता है।

- मतलब? मैंने उसकी विचित्र बात पर प्रतिक्रिया जताई।

वो बोला- लड़के पहले लड़कों से दोस्ती करते हैं, फिर ज़िन्दगी में उन्हें लड़कियों के साथ घर बसाना और प्रेम करना आता है।

मैंने उसकी बात को अनसुना कर करवट बदल ली और मुंह फेर कर सो गया।

जाने वो रात को कितनी देर बाद सोया होगा।


क्रमशः


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