Prabodh Govil

Others

4  

Prabodh Govil

Others

मैं और मेरी जिंदगी -14

मैं और मेरी जिंदगी -14

13 mins
262


मुझे बहुत छोटी आयु से ही राजनीति में भी रुचि रही। होश संभालने के बाद से ये तो मैंने देखा था कि किसी भी समूह में नेतृत्व विकसित कर लेने की क्षमता मुझे अपने में दिखाई देती थी,लेकिन शुरू में ये केवल कक्षा मॉनिटर, छात्र दल प्रमुख, सर्वश्रेष्ठ छात्र, छात्र संघ का उपप्रधान मंत्री या विज्ञान परिषद के अध्यक्ष जैसी हैसियत में ही रही।

विद्यालय पत्रिका का संपादक,डिबेटिंग सोसायटी का अध्यक्ष भी मैं बना।

लेकिन एक बात मुझे बराबर महसूस होती थी कि इस शक्ति को पाने में और बहुत सी शक्तियां खर्च हो जाती थीं।

यदि देश की राजनीति की बात करें तो मेरी रुचि हमेशा व्यक्ति केंद्रित रही। किसी एक पार्टी की हर बात पसंद हो, या किसी पार्टी का सब कुछ नापसंद हो,ऐसा कभी नहीं रहा।

मेरे मन में जनता के वोट अर्थात जीते हुए के प्रति सद्भाव हमेशा रहा।

मैं ये नहीं कर पाता था कि अपनी पसंद का व्यक्ति जीत गया तो जनता महान,और अपनी पसंद का आदमी हार गया तो जनता मूर्ख! अक्ल का ऐसा दीवालियापन मैंने कभी अपने सिर चढ़ कर बोलने नहीं दिया।

यद्यपि समय के साथ साथ अपने देश में हर बात के लिए एक ऐसी शब्दावली पनपती हुई भी मैंने देखी कि हर सूरत में आप अपनी ही बात को सही सिद्ध कर सको - यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी। हर भाव के लिए एक शब्द चुन लेना हमारी नकारात्मकता ने हमें बख़ूबी सिखा दिया।

ऐसा भी अवसर आया कि चोर साहूकार को ग़लत ठहरा सके। रिश्वत खाने वाला ईमानदार को नीचा दिखा सके। नकल से पास होने वाला मेहनत करके पास होने वाले की खिल्ली उड़ा सके

इन बातों ने कुल मिलाकर देश को नीचा दिखाया।

वैसे यदि परंपरागत राजनीति की बात करें तो आरंभ में कई वर्ष तक कांग्रेस ही देश की आशा पर खरी उतरने वाली पार्टी दिखाई देती थी। जयपुर में महारानी गायत्री देवी की लोकप्रियता भी अच्छी लगती थी। बाद में जब अलग अलग विचारधारा उभरने का अराजक समय आया तो इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व प्रभावित करता था।

महात्मा गांधी या लालबहादुर शास्त्री जैसे लोग सैद्धांतिक तौर पर अच्छे लगते थे किन्तु सत्ता पर पकड़ से उनका पलायन उन्हें संदिग्ध भी बनाता था।

क्षेत्रीय दल तो प्रायः ऐसे ही लगते थे कि जैसे देश की अखंडता में सेंध लगाकर निजी हित साधने का कोई जुनून भरा उपक्रम हो।

अब बात अपने कॉलेज के दिनों की।

बी ए सैकंड ईयर में कई बार डिबेट स्पर्धाओं में भाग लेने के बाद मुझे कॉलेज का बेस्ट डिबेटर का अवॉर्ड मिला।

इसके बाद जब कॉलेज में डिबेटिंग सोसायटी का गठन हुआ तो अध्यक्ष पद के लिए मैंने चुनाव लड़ा और जीता। यद्यपि मैं अपनी बात ज़्यादा प्रभावशाली तरीके से चला नहीं सका क्योंकि उपाध्यक्ष,महासचिव पदों पर अंग्रेज़ी के डिबेटर छात्र जीते।

वैसे भी मेरी सोच विद्यार्थियों को निजी तौर पर संभाषण के लिए सहायता देने की होती थी।

कॉलेज के सांस्कृतिक सचिव के पद पर अध्यक्ष और महासचिव मिल कर किसी को मनोनीत करते थे। ऐसे व्यक्ति का दायित्व कल्चरल प्रोग्राम के अलावा खेल के टूर्नामेंट्स आदि के आयोजन में भी होता था।

कॉलेज का एक खिलाड़ी मुझे बहुत पसंद था। वह देखने में तो बहुत छोटा, मासूम सा चेहरा दिखता था, किन्तु शरीर से बेहद संतुलित और पुष्ट था। चेहरे से खूबसूरत और बहुत सुंदर बालों वाला।

कॉलेज की कई खेल टीमों में उसे चुना जाता था। अच्छा एथलीट भी था।

उसी को अध्यक्ष सांस्कृतिक सचिव बनाना चाहते थे। किन्तु वो ये दायित्व नहीं लेना चाहता था।

कोई लड़का ये नहीं जानता था कि वो ये ज़िम्मेदारी क्यों नहीं लेना चाहता था।

संयोग से उसने मुझे बता दिया कि वो सार्वजनिक रूप से बोलने से बहुत कतराता है, उसे बोलने में बहुत झिझक होती है इसलिए वह सचिव नहीं बनना चाहता।

एक दिन छात्र संघ के अध्यक्ष ने उससे कहा कि यदि तू सचिव नहीं बनना चाहता तो तू हमें नाम बता दे,तू जिसे कहेगा उसे ही सचिव बनाया जाएगा।

ये बात पता लगते ही चार पांच लड़के उससे संपर्क करके उसे प्रभावित करने की कोशिश तरह तरह से करने लगे।

एक दिन शाम को कॉलेज में एक मैच हो रहा था। सफ़ेद शर्ट,सफ़ेद हॉफ पैंट और सफेद जूते पहनकर वो मैच के लिए तैयार होकर आया तब कॉलेज के गेट से निकलते हुए वो मुझे मिला।

मैं घर जा रहा था, वैसे भी शाम देर तक होने वाले खेल देखने के लिए मैं प्रायः रुकता नहीं था।

मैं और वो जैसे ही आमने सामने हुए वो मुझसे बोला- मैच देखने नहीं रुकेगा?

उसने जिस उत्साह और अपनेपन से कहा, एकाएक मुझसे कहते न बना कि नहीं देखूंगा। मैं उसके साथ- साथ वापस कॉलेज के कैंपस में दाखिल हो गया।

हम दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए चलते हुए ग्राउंड की ओर जा ही रहे थे कि हमें सामने से मेरे घर के पास रहने वाला मेरा एक दोस्त आता दिखा।

वो घर जाने के लिए सायकिल लेने सायकिल स्टैंड की ओर जा ही रहा था।

मेरे खिलाड़ी दोस्त ने उसे इशारे से बुलाया और उससे कहा- तू घर जा रहा है न, तू प्रबोध के घर पर कह देना कि ये आज रात को घर नहीं आयेगा।

उस लड़के को आश्चर्य हुआ और उसने मेरी ओर देखा,जैसे पूछना चाहता हो कि क्या सचमुच ऐसा कह दूं!

अचंभा मुझे भी हुआ कि मुझसे पूछे बिना ही मेरे दोस्त ने मैच के बाद मुझे अपने साथ अपने घर ले जाने का प्लान भी बना लिया?

लेकिन मैं कुछ नहीं बोला और इससे लड़के ने अनुमान लगा लिया कि मेरी सहमति है। वह चला गया।

रात को मैच ख़त्म होने के बाद जब हम दोनों कॉलेज से बाहर निकले तो सड़कें बिल्कुल सुनसान हो चुकी थीं। मैच का कोलाहल भी थोड़ी देर में ही तिरोहित हो गया।

उस दिन मुझे पहली बार पता चला कि हमारे कॉलेज के उस बेस्ट स्पोर्ट्समैन लड़के का घर कॉलेज से लगभग आठ किलोमीटर दूर नज़दीक के एक गांव में है।

सड़क पर थोड़ी दूर जाने के बाद हमने सड़क का पक्का रास्ता छोड़ दिया और खेतों की ओर एक कच्चे रास्ते पर सायकिल चल पड़ी।

कच्चे रास्ते पर खेतों के बीच से उसे इतने आराम से सायकिल चलाते देख कर उसके पीछे बैठा मैं सोच रहा था कि इतना धुंआ धार खेलने के बाद भी ये थका नहीं है और आराम से बातें करता हुआ चला जा रहा है। पर वो शायद इस रास्ते और सवारी का अभ्यस्त था।

थोड़ी देर बाद हम उसके खेतों के बीच में थे। लहलहाते हरे भरे खेतों के बीच एक किनारे पर उसका घर बना हुआ था। घर पहुंच कर हमने स्वादिष्ट गर्म खाना खाया और हम छत पर आ गए जहां उसका कमरा बना हुआ था।

उसके घरवाले बहुत सादे ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोग थे,इसलिए उनसे कोई बातचीत तो नहीं हो सकी पर उन्होंने जिस तरह मेरी आवभगत की मैं अभिभूत हो गया।

मुझे ये भी देखना अच्छा लग रहा था कि उस कृषक परिवार ने अपने बेटे को कितने जतन से पढ़ा लिखा कर काबिल बना दिया। लेकिन कहीं हल्की सी आशंका ये भी हो आई कि इस खेत खलिहान से सजे साम्राज्य को संभालने की रुचि इसमें बनी रहेगी? क्योंकि वह अकेला लड़का था और शेष उसकी बहनें थीं। उस समय ये सोचा भी नहीं जा सकता था कि लड़की परिवार के किसी कार्य व्यापार में हाथ बंटाएगी। लड़कियों के लिए तो यही माना जाता था कि शादी करके घर से चली जाएगी।

मुझे ये वातावरण बहुत सुहाना लगा।

मैं छत से ही आसपास का नज़ारा देखने लगा जहां दूर दूर कहीं कहीं किसी कच्चे पक्के मकान की धुंधली सी रोशनी दिखाई देती थी और बाकी चारों ओर खेत ही खेत।

सोने से पहले उसने लाल रंग के मंजन से अंगुली से दांतों को साफ़ किया। मुझे भी कुल्ला करने के लिए लोटे में पानी देते हुए थोड़ा सा मंजन दिया।

हम दोनों कमरे के भीतर आ गए और उसने दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया।

शर्ट उतारते ही उसका कसरती बलिष्ठ बदन देखकर मैं दंग रह गया। उस समय साधारणतया जिम नहीं होते थे, गांवों में तो बिल्कुल नहीं,जो कुछ था वो उसकी मेहनत, देखभाल और शुद्ध सात्विक खानपान का नतीजा।

सोने से पहले हम देर तक बातें करते रहे। उसने बताया कि वह अकेला तो रस्सी की खाट पर बिना कुछ बिछाए ऐसे ही सोता है पर आज मेरे कारण उसने गद्दा और चादर बिछाया है।

गर्मी का मौसम नहीं था पर उसने केवल कच्छा ही पहन रखा था।मुझसे बोला- मैं तुझे बिना पहले से कहे आज यहां ले आया, इसलिए कल सुबह यहीं से हम कॉलेज चलेंगे तो अपने कपड़े बदल कर ये पहन ले। कहकर उसने मुझे भी एक छोटा पुराना अंडरवियर और एक पुरानी टी शर्ट दे दी।

वो खुद खिलाड़ी होने के कारण शायद गमछा या तौलिया लपेट कर रहने के स्थान पर छोटे तंग कपड़े ही पहनता था।

उसके कपड़ों में उसकी गंध थी। मेरे कपड़े जतन से समेट कर उसने एक ओर रख दिए।

उसे थोड़ी देर बाद जैसे कुछ याद आया,एकदम से बोला - हमारे घर बाथरूम और लैट्रिन नहीं है।अगर रात को पेशाब लगे तो तू बाहर छत पर कोने में जाकर कर लेना।

मैंने पूछा- तू कहां करता है?

बोला- मैं तो नीचे बाहर जाकर खेत में कर देता हूं,पर खेत में तू कैसे जाएगा,तू तो यहीं कर लेना।

ये बात सुनकर मुझे थोड़ी सी बेचैनी हुई और मैंने उससे कहा कि छत क्यों गंदी करवाता है, चल एक बार अभी बाहर ही कर आते हैं, फ़िर मुझे ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

हम सीढ़ियों से उतर कर पिछवाड़े के दरवाज़े से बाहर निकले और खेत में पेशाब करके अाए।

जब उसने मुझे पानी का लोटा दिया तो मैंने केवल हलक तर करने के लिए एक घूंट ही पिया।

हम दोनों लेटकर फ़िर बातें करने लगे।

वह मेरे एकदम समीप आकर धीरे से बोला- मैं बहुत दिनों से तुझे अपने घर लाना चाहता था।

मैंने कहा- क्यों? पर तूने कभी कहा तो नहीं।

वह बोला- मैंने एक दिन डिबेट में तुझे बोलते हुए सुना था, तभी से मैं सोचता था कि तुझसे बोलना सीखूंगा। मतलब भाषण देना।

- अच्छा। मुझे मन ही मन खुशी सी हुई।

वह कहने लगा - जब हम लोग कहीं खेलने जाते हैं तो मैं किसी से बात नहीं कर पाता।

मैंने खुश होते हुए कहा- अच्छा, पर मुझे क्या देगा?

वह बोला- तेरे सामने हूं,जो कहे, बोल!

मुझे थोड़ा सा मज़ाक सूझा, मैंने कहा - तेरे मंजन से बहुत प्यारी ख़ुशबू आती है, इसकी एक शीशी दे देना।

तुझे अच्छी लगी ये खुशबू? तो ले सूंघ ! कह कर उसने अपना मुंह एकदम मेरे पास लाकर खोल दिया और ज़ोर से सांस ली।

उस लाल मंजन में तंबाखू मिला होता है,ये मुझे उस दिन पहली बार पता चला।

उसने फ़िर एक रहस्य की भांति अपना मुंह मेरे कान के पास लाकर मुझे बताया कि उसने मेरा नाम प्रेसीडेंट और कॉलेज के स्पोर्ट्स इंचार्ज को कल्चरल सेक्रेटरी बनाने के लिए दिया है। वो बोला- उन्होंने मंज़ूर भी कर लिया है,जल्दी ही डीन साहब से वो लोग अनाउंस करवाएंगे।

मैं चकित ही नहीं बल्कि बहुत खुश भी हुआ।

मैंने उसे बताया कि मैंने बचपन से कभी खेलों में भाग नहीं लिया,इसलिए खेलों से किसी तरह जुड़ना मुझे मन ही मन बहुत अच्छा लगता है।

-अरे, क्यों पर? उसने आश्चर्य से कहा।

मुझे उसे अपना बचकाना कारण बताने में संकोच हुआ,पर फ़िर भी मैंने सच बात बतादी- मुझे जूतों के लेस, धागे, नाड़े आदि चीज़ों से बहुत अरुचि जैसी होती थी। एलर्जी जैसी। मैंने कहा- बिना जूतों के खेल या एन सी सी आदि में काम ही नहीं चलता था तो मैं इनसे दूर ही रहा।

कुछ सोच कर मैंने कह दिया- जैसे ये तेरी चड्डी का नाड़ा है,इसके कारण बहुत दिनों तक तो मैं चड्डी भी नहीं पहनता था।

"अरे,तो उतार दूं?" उसने बेहद भोलेपन से कहा।

मैं एकदम से झेंप गया, लेकिन फ़िर मैंने भी उसी की तरह मज़ाक के मूड में कहा- रहने दे,क्या क्या उतारेगा?

वो लटका हुआ नाड़ा चड्डी के भीतर करने लगा,पर मैंने हाथ बढ़ा कर उसे ऐसा करने से रोक दिया। और उसे और भी बाहर खींच कर निकाल दिया। वह मेरी ओर करवट लेकर गौर से मेरी तरफ़ देखने लगा।

फ़िर मैंने गंभीर होकर कहा- "एलर्जी को दूर करने का ये भी एक तरीका है कि जिस चीज़ से एलर्जी हो उसे और भी ज़्यादा नज़दीक लाकर उसका अभ्यस्त होने का प्रयास किया जाए।" कह कर मैंने उसकी कलाई पकड़ ली जिसमें काला धागा बंधा हुआ था। मैं उसका काला धागा अंगुलियों में लेकर घुमाते हुए उससे खेल करने लगा।

वो न जाने किन खयालों में डूब गया। उसके गले में और कमर पर भी एक काला धागा बंधा हुआ था। वह खोया खोया लेटा रहा और मैं उसके शरीर पर बंधे धागे अंगुलियों में लेकर घुमाता रहा।

मुझे एक परिचित वैद्य की बात याद आ रही थी कि जिन चीज़ों से हम शारीरिक कारणों से घृणा करते हैं उन्हें यदि जीवन में आवश्यक और स्वाभाविक मानते हों तो उनसे बचने की जगह उनमें और उलझने की कोशिश करनी चाहिए। इससे हमें उनका अभ्यस्त होने का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की क्रिया में सहायता मिलती है। यह भी एक मनोवैज्ञानिक सच है कि हम जिन लोगों, शरीरों,बातों या चीज़ों को पसंद करते हों उनके साथ जोड़ कर हम अपनी नापसंद चीज़ को रखें तो उनके प्रति आकर्षण का फ़ोर्स नापसंद वस्तु के विकर्षण के फ़ोर्स से लड़ता है और इससे उस वस्तु से हमारी नापसंदगी कम होती है। बार बार ऐसा करने से ये नापसंदगी विलुप्त भी हो सकती है। चिकित्सा शास्त्र में हम ऐसे ही ठीक होते हैं और अपनी शारीरिक या मानसिकता रुग्णता से निजात पाते हैं।

ये वैसा ही है कि हम अपने बच्चे की पॉटी से या अपने पिता की उल्टी से उस तरह घृणा नहीं करते जिस तरह अजनबी बच्चे या अपरिचित वृद्ध की विष्ठा या वमन से करते हैं। मेरे इस मित्र की खूबसूरत देह को मैं इतना पसंद करता था कि उसके बदन से उतरे पुराने कपड़ों में भी एक अंतरंग अपनापन महसूस करता रहा। उसके हाथ पर बंधे धागे, उसकी चड्डी के लटके हुए नाड़े और उसकी कमर पर लिपटे डोरे ने भी मेरे मन में कोई वितृष्णा नहीं जगाई।

न जाने कितनी देर बाद हम सोए। आंख सुबह ही खुली।

सुबह जल्दी उसके साथ खेत में शौच के लिए जाना भी मुझे अच्छा लगा। सुबह जब हम खेत की ओर जाने लगे तो उसने मुझे कहा कि खेत में गीली मिट्टी होगी, अपने सैंडिल छोड़ दे,ये पहन ले,कह कर उसने अपने एक पुराने सफ़ेद स्पोर्ट्स शूज़ मेरे सामने रख दिए। मैं उसका आशय समझ कर मन ही मन मुस्कराया। वो मुझे जूते पहनने का अभ्यास करवाना चाहता था। मैंने जूते पैरों में डाल तो लिए पर उन्हें बांधा नहीं। ऐसे ही खुले लेस लटकते रहे और हम चल पड़े। रात को एकसाथ सोकर हम इतने करीब आ चुके थे कि खेत में भी आमने- सामने बैठे देर तक बात करते हुए निवृत्त हुए।

लौट कर खेत पर चल रहे पम्प के पानी से ही हम नहाए। नाश्ता करने के समय तक उसके घर के बाकी लोग भी जाग चुके थे। उसकी माता का बनाया नाश्ता हमें उसकी दो बहनों ने इतने प्रेम से परोसा कि जीवन में उसका परिवार मुझे कहीं दोबारा मिल भी जाए तो मैं किसी को भी पहचान न सकूंगा। सिवा उसके पिता के।

हां, उनके बेटे, यानी अपने मित्र के बदन के पोर पोर से मैं वाक़िफ हो चुका था।

कॉलेज पहुंचने तक हम दोनों गहरे मित्र बन चुके थे।

कुछ दिन बाद मैंने एक कविता लिखी। ये मेरी बिना किसी मांग, बिना किसी प्रतियोगिता या बिना किसी असाइनमेंट के स्वतः लिखी गई पहली कविता थी।

मैंने इसे हिंदी साहित्य की क्लास में डॉ विशंभर नाथ उपाध्याय को दी जो क्लास लेने आए थे। उन्होंने बिना कुछ कहे इसे मोड़ कर अपनी जेब में रख लिया।

कुछ दिन बाद मैं कॉलेज का सांस्कृतिक सचिव बना और हम लोग बड़े पैमाने पर होने वाले वार्षिकोत्सव की तैयारियों में जुट गए।

किन्तु कुछ ही दिनों के बाद मुझे ये पद छोड़ना पड़ा। पद छोड़ने का कारण सिर्फ ये था कि मुझे डिबेटिंग सोसायटी का अध्यक्ष चुना जा चुका था,और इस बात पर पहले किसी का ध्यान नहीं गया था कि विश्व विद्यालय के संविधान के अनुसार दो पद किसी एक छात्र के पास नहीं हो सकते थे।

मैं खेल गतिविधियों में शामिल होकर पूरा सहयोग करता रहा किन्तु सचिव पद पर एक अन्य छात्र को चुन लिया गया।

इन्हीं दिनों मैंने अपने अवचेतन में संचित निष्कर्षों के सहारे एक और बात पर ध्यान दिया कि राजनीति में जो भी आता है उसके मस्तिष्क में कोई न कोई मनोवैज्ञानिक जटिलता ज़रूर होती है। एक सामान्य व्यक्ति आसानी से राजनीति में पड़ना नहीं चाहता। वह राजनीति को पसंद कर सकता है,उसकी समीक्षा कर उस पर चर्चा,बहस कर सकता है,उस पर राय दे सकता है, पर स्वयं राजनीतिज्ञ नहीं बन सकता।

चाहे ऊंची अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय राजनीति की बात हो,या स्थानीय, छोटी,सीमित, छात्र राजनीति की।

इसी लिए सामान्य बोलचाल में कहा जाता है कि राजनीति का एक "कीड़ा" होता है, वो जिसके दिमाग में होता है, उसी के दिमाग़ में होता है।



Rate this content
Log in