Prabodh Govil

Others

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मैं और मेरी जिंदगी -12

मैं और मेरी जिंदगी -12

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मैं आरंभ से ही ये सोच रहा था कि इस साल अपनी बी एस सी द्वितीय वर्ष की पढ़ाई को तरजीह नहीं देनी है,शुरू से ही केवल पी एम टी की तैयारी करनी है। फर्स्ट ईयर पास करते ही मैं मेडिकल की प्रवेश परीक्षा के लिए पात्र हो गया था। सप्लीमेंट्री परीक्षा का परिणाम भी आ चुका था। मेरे इसमें इतने अधिक अंक अाए कि सब लोगों को मुख्य परीक्षा में मेरे साथ कोई धोखा ही हो जाने का अंदेशा होता रहा। किन्तु मैं खुद अपनी कमज़ोरी को जानता था

इस साल मैंने अन्य गतिविधियों में भी अधिक भाग नहीं लिया। यद्यपि कुछ बाहरी कॉलेजों में मैं डिबेट स्पर्धा में ज़रूर गया। सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान मेरे एक मित्र ने मेरा नाम अपने ग्रुप के साथ ग्रुपडांस के लिए लिखवा दिया। मैं कुछ दिनों तक रिहर्सल में भी जाता रहा, किन्तु बाद में मैंने इससे अपना नाम वापस ले लिया।

इस बार फैंसीड्रेस स्पर्धा में मेरे एक दोस्त ने अपना नाम लिखवाया। ये मेरा बहुत अच्छा मित्र था जिसने गत वर्ष मेरी इस प्रतियोगिता को जीतने में बहुत मदद की थी। इस बार मुझे भी उसके साथ लगभग पूरे समय ही रहना पड़ा।

वह इसमें हिम मानव बना था, जो ध्रुवीय प्रदेशों में रहते हैं। इसके लिए हम दोनों ढेर सारी रुई खरीद कर लाए थे। स्टेज के अंतिम हिस्से में हमने इगलू भी बनाया था, जिसमें ये रहा करते हैं। उसके पूरे नंगे बदन पर गोंद लगा कर रुई चिपकाई गई थी फ़िर हाथों में बर्फ़ का बड़ा गोला बना कर दोनों हाथ उसके भीतर ढके गए थे। रुई निकल न जाए इसके लिए पतले सफ़ेद धागे को उसके पूरे शरीर पर लपेटा भी गया था।

उत्साह में वह तैयार तो हो गया पर उसका नंबर कुछ देर बाद आया। संयोग से इस बीच उसे पेशाब करने की जरूरत पड़ी। कुछ देर तो वह बिना बोले जप्त करता रहा,किन्तु बाद में उसके लिए रोकना मुश्किल हो गया। इतना समय भी नहीं था कि सब मेकअप (शरीर का) हटाया जा सके। ऐसे में उसने मुझसे मित्रता की पूरी कीमत वसूली।

उसे पेशाब घर में ले जाकर रुई के बीच से उसका अंग हाथ से निकाल कर मुझे उसे पेशाब करवाना पड़ा।

मज़ेदार बात ये हुई कि काफ़ी देर से जबरन रोके हुए वेग को जब वह पूरे ज़ोर से निकाल रहा था,तभी मंच से उसका नाम अनाउंस हो गया। वह जल्दी से भागा और जाते जाते उसके अंग को वापस व्यवस्थित करके ढकने का काम भी मुझे ही करना पड़ा। लेकिन उसका मुंह भी रुई से पूरी तरह ढका हुआ होने के कारण उसे कोई संकोच तो था नहीं, केवल मैं जानता था कि रुई के इस ढेर में छिपा ढका कौन लड़का है।

मैंने बाद में उसका इस बात के लिए मज़ाक उड़ाया कि जल्दी में मुझे हाथ धोने तक का समय नहीं मिला,और पर्दा उठते ही मैंने छींटे लगे हाथों से ही उसके लिए तालियां बजाईं।

उसे प्रतियोगिता में दूसरा पुरस्कार मिला।

उन दिनों किसी परीक्षा के लिए प्रायः अपने आप या कॉलेज द्वारा ही तैयारी करवाई जाती थीं, तथा कोचिंग संस्थान अस्तित्व में नहीं थे। फ़िर भी कोई कोई संस्थान मेडिकल या इंजीनियरिंग की कोचिंग देना शुरू कर चुका था।

मेरे बड़े भाई की सलाह पर मैंने भी एक कोचिंग इंस्टीट्यूट में प्रवेश ले लिया।

मेरी एक बड़ी कमी या कमज़ोरी ये थी कि मैं प्रायः अपने साथियों का चुनाव नहीं करता था। मैं उन्हीं लोगों पर विश्वास कर लेता था,जो अपने साथी के रूप में मुझे चुन लेते थे।

इसके पीछे मेरा दृष्टिकोण यह था कि हमें अच्छे लोग चुनने की जगह जो लोग संपर्क में आएं, उन्हें ही अच्छा बनाने की कोशिश करनी चाहिए। शायद मैं पूरी दुनिया को एक परिवार मानने का कायल था।

विशेष रूप से लड़कियों को तो मैं चुनने के ही ख़िलाफ़ होता, क्योंकि मेरा मानना था कि लड़कियों को तो सभी को,जो वो करना चाहें,उसका अवसर दिया ही जाना चाहिए। वर्षों से हमारा समाज उनकी उपेक्षा करता रहा है,अतः उनकी उन्नति के रास्ते खोले ही जाने चाहिए।

लड़कों में ज़रूर स्वभाव, योग्यता,व्यक्तित्व आदि के अनुसार मैं चुनाव किया करता। यद्यपि लड़कों में भी आकर्षक होना मेरी पहली प्राथमिकता होती। मैं योग्यता को नहीं भांप पाता था।

यहां भी मेरा निर्णय गलत सिद्ध हुआ।

मेरे कोचिंग इंस्टीट्यूट की एक छात्रा इस तरह मेरे साथ हो गई कि मैं उसकी उपेक्षा नहीं कर पाया। वो सुबह क्लास से पहले मुझे बुलाने घर आ जाती। क्लास में भी मेरे पास बैठ जाती। बिना मांगे किताब, नोट्स आदि मुझे देती, साथ में खाने- पीने को जो कुछ भी लाती, वह किसी न किसी तरह मुझे खिला कर ही छोड़ती।

कई बार मेरे मित्र, तो कई बार मैं खुद भी, उसकी अनदेखी या उपेक्षा करते,पर वो किसी बात की परवाह किए बिना मेरे करीब बने रहने की कोशिश करती।

यहां तक कि एक बार तो उससे खीज कर मैंने अपने एक मित्र से कह दिया कि सुबह मुझे बुलाने आ जाया करे। एक दो बार मैं उसके साथ उसकी सायकिल पर बैठ कर जल्दी इंस्टीट्यूट आ भी गया। जल्दी आ कर हम तीन- चार लड़के पास- पास बैठ जाते,पर वो आने के बाद हमारे बीच में घुस कर मेरे पास ही बैठने की कोशिश करती। इससे मेरे मित्र चिढ़ते, मैं खुद चिढ़ता,पर सीधे-सीधे उसे मना नहीं कर पाता। एक बार तो देर से आकर बीच में घुसने के लिए हमारे टीचर ने भी उसे डांटा।

उससे पीछा छुड़ाने के लिए बहुत प्रयत्न करने पड़े।

मेरे मकान में पड़ोस में रहने वाली एक आंटी ने तो एक दिन साफ़ कह दिया कि इस लड़की को साथ मत रखा करो, ये एक दिन तुम्हें उड़ा कर ले जाएगी।

मेरे मित्र भी बाद में उसका मज़ाक बनाते हुए मेरे साथ हंसी करने लगे। कहते - जब तुझे उड़ाकर ले जाए तो हमें भी बुला लेना।

कोई कहता - मुझे तो माफ़ ही कर देना, अकेला ही तू उड़ कर आ जाना।

लेकिन उससे पीछा छुड़ाने के प्रयास में जो लड़का मेरे मित्र के रूप में आ गया, वो भी कुछ कम नहीं था। दिखने में तो भोला भाला,बेहद सुंदर, सजीला,पर पढ़ाई के नाम पर ज़ीरो। उसकी कॉपियां आगे फिजिक्स, केमिस्ट्री या बायोलॉजी से इतनी भरी हुई नहीं होती थीं, जितनी पीछे से फिल्मी गानों और कार्टूनों से।

मुझे कभी- कभी अपनी इस भूल पर पश्चाताप भी होता था कि मैं मेडिकल कोचिंग के लिए गंभीर होकर पढ़ने वाले होशियार लड़के क्यों नहीं चुनता। और सबसे बड़ी बात तो ये, कि किसी को चुनने की ज़रूरत ही क्या थी, मैं अकेला ही ध्यान से पढ़ाई क्यों नहीं करता।

पर मैं अकेला बहुत ही कम रहा। हमेशा मेरे साथ कोई न कोई लड़का रहता।

दरअसल इस कोचिंग में मेरे मन में एक भय सा बैठ गया था, कि ये कोई अंधेरी गली है जो एक दिन मुझे जिंदगी की दौड़ में गिरा देगी।

फ़िर भी मैं नियमित रूप से क्लास में जाता।

हमेशा मेरे साथ कोई न कोई लड़का रहता। ताकि मुझे सांत्वना सी मिलती रहे।

किसी तरह सैकंड ईयर की परीक्षा भी खत्म हुई। अब पूरे ज़ोर- शोर से में पी एम टी के लिए जुट गया। देर- देर तक पढ़ाई करता। अपनी कमियों को कोचिंग, अध्यापकों और मित्रों के माध्यम से दूर करने की कोशिश भी की थी। अपना मुश्किल विषय केमिस्ट्री चार बार परीक्षा देने के कारण तैयार हो ही गया था। गणित का डर भी कुछ हद तक निकल गया था। कोचिंग में पिछले वर्षों के पेपर्स में आए न्यूमेरिकल्स काफ़ी समझा कर सिखा ही दिए गए थे।

लड़के और टीचर्स कहते थे कि प्रथम श्रेणी के नंबर, अर्थात साठ प्रतिशत अंक आ जाएं तो डॉक्टर बनने का रास्ता खुल जाएगा।

सब कहते थे कि मेडिकल कॉलेज में एक बार घुसने वाला तो डॉक्टर बन कर ही निकलता है, चाहे उसे एम बी बी एस करने में दस साल का समय ही क्यों न लगे।

हम लोग कुछ मित्र परीक्षाएं ख़त्म होने के बाद एक बार मेडिकल कॉलेज को देख भी आए थे।

कॉलेज के पीछे ही हॉस्टल था। हम उसमें भी जाकर अाए।

इसके अलावा प्रथम वर्ष के अंग्रेज़ी के कोर्स में हमने एक किताब "डॉक्टर इन द हाउस" भी पढ़ी थी, जिससे मेडिकल शिक्षा के माहौल के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी मिली।

उन दिनों सारा माहौल एक ही दिशा में ढल गया था।

एक दिन तो हद ही हो गई, जब मेरा एक मित्र शाम को मुझसे मिलने घर आया। हम दोनों बाहर खड़े होकर आपस में कुछ बातें कर रहे थे कि पड़ोस वाली आंटी आईं और उससे कहने लगीं - बेटा,तुझे कंधे के दर्द की कोई गोली मालूम है क्या?

मुझे ज़ोर से हंसी आ गई। लड़का पी एम टी में बैठ रहा था और उसे मेरे पास आते हुए आंटी ने पहले कई बार देखा भी था।

लड़का झेंप गया। मैंने आंटी को बताया कि अभी डॉक्टर बनने में हम लोगों को बहुत साल लगेंगे।

उनके जाने के बाद मेरा मित्र दांत पीसता हुआ उनके घर की ओर देखता हुआ धीरे से मुझसे बोला - थोड़ा ठहर जा,एक दिन इनकी डिलीवरी करवा कर बताऊंगा।

मैं हंस कर रह गया।

कुछ दिन बाद हम लोगों के प्रवेश पत्र भी अाए और परीक्षा निकट आने लगी।

हम सब मित्र इन दिनों उठते, बैठते, सोते, जागते एक ही ख़्वाब देखते थे कि हम अपनी परीक्षा के द्वार पर खड़े हैं और दरवाज़ा खुलने वाला है।

इस बीच एक समाचार मिला कि मेरे चाचा की लड़की की शादी है

घर के सभी लोग, माता-पिता,भाई- भाभी, और बहन आदि शादी में चले गए।

बाक़ी दोनों भाई अपने- अपने कॉलेज में जा चुके थे। वे दोनों हॉस्टल में रहते थे और दूसरे शहरों में पढ़ते थे।

मैं घर में बिल्कुल अकेला रह जाने के कारण खुश था कि अब बिना किसी शोरशराबे और व्यवधान के परीक्षा दी जा सकेगी।

किन्तु घर से माता पिता का आदेश था कि परीक्षा के दिनों में मैं घर में बिल्कुल अकेला न रहूं। मुझे पास ही रहने वाले अपने एक अंकल के परिवार में रहने की सलाह दी गई।

वो शादियों का मौसम था। अंकल का परिवार भी तीन चार दिन के लिए किसी शादी में शहर से बाहर जा रहा था। पर एक तो अंकल का बेटा भी पी एम टी परीक्षा दे रहा था, दूसरे उनके घर पर दो बड़े भाई और भी थे,जिनमें एक आई ए एस की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। उनकी परीक्षा भी कुछ ही दिन बाद थी। चौथे भाई को हम सब के चाय नाश्ते खाने आदि की ज़िम्मेदारी देकर सब चले गए। खाना बनाने के लिए एक महिला आती ही थी,जो साफ सफ़ाई आदि भी करती थी।

कुल मिलाकर घर में किसी हॉस्टल जैसा ही माहौल अपनी- अपनी किताबों और नोट्स के साथ हम तीनों ने मोर्चा संभाल लिया।

सबके जाने के दूसरे ही दिन मुझे एक ज़बरदस्त झटका लगा।

मेरा बी एस सी सैकंड ईयर की परीक्षा का परिणाम आ गया और मैं इसमें फेल हो गया।

जैसी मैंने तैयारी की थी और इस परीक्षा को अंतिम प्राथमिकता दी थी,ऐसे में ये परिणाम कोई अप्रत्याशित नहीं था। किन्तु फ़िर भी सालभर व्यर्थ हो जाने के इस फ़रमान से घर में एक मायूसी तो व्याप ही गई।

बड़े मौसेरे भाई ने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया और मुझे समझाया कि मुझे इस परिणाम से विचलित नहीं होना है,और परसों होने वाली प्री मेडिकल परीक्षा पूरे मनोयोग से देनी है।

मैं रोया तो नहीं पर दिन भर रोनी सूरत ज़रूर बनी रही। कोई और मित्र परिणाम के बाद मिलने भी नहीं आया क्योंकि दो दिन बाद ही हमारी परीक्षा थी।

परीक्षा से पहले वाली रात जब मैं और अंकल का बेटा खाना खाकर अंतिम रिवीजन करने बैठे तो दोनों ही उदास से थे। वो तो मेरे रिज़ल्ट की सहानुभूति मुझे दर्शाने के ख़्याल से सुस्त था, पर मैं क्या सोच रहा था,आइए आपको बताता हूं -

"सूरज का एक टुकड़ा आकाशीय पिंडों के दबाव से टूट कर आसमान में नए ध्रुवीकरण के तहत कहीं ठहर गया। लाखों वर्षों में जाकर वो ठंडा हुआ। उससे निकली गैस और भौगोलिक क्रियाओं के वशीभूत उस पर पहले पानी के चिन्ह उभरे और फ़िर धीरे धीरे वनस्पति अस्तित्व में आई। इसी के बीच से कहीं प्राणवान शरीरों का स्पंदन उगने लगा। और एक दिन इंसान अस्तित्व में आ गया। तमाम ज्ञान, अन्वेषण, चिकित्सा, संरक्षण आदि के बावजूद कुदरत ने प्राणियों की एक उम्र मुकर्रर करदी। दो शरीरों के बहुविध युग्म से नया प्राणी अस्तित्व में आए और अपनी उम्र भर इस कायनात को देख जीकर,कुदरत के इशारे पर फ़िर अनंत में लौट जाए।"

ऐसे में किसे, किससे, क्यों फर्क पड़े?

हमने काफ़ी देर रिवीजन किया। कोचिंग में अध्यापकों द्वारा बताए गए महत्वपूर्ण प्रश्नों को दोहराया, संभावित सवालों पर निगाह डाली और सुबह साथ लेजाए जाने वाले प्रवेश पत्र तथा पैन आदि को संभाल कर हम सो गए।

अगले दिन सुबह सुबह जाकर हम परीक्षा दे आए।

ये वो परीक्षा थी जो पिछले कई सालों से मेरा मक़सद बनी हुई थी।

ये वो परीक्षा थी जिसमें सफलता की आकांक्षा में मैंने तब तक फ़िल्म देखना छोड़ रखा था।

ये वो परीक्षा थी जो ज़िन्दगी का रास्ता तय कर देने वाली थी।

अगले कुछ सप्ताह इंतजार और केवल इंतजार में निकले। न कोई विशेष हलचल,न कोई गतिविधि और न कोई विचार विमर्श!

और एक दिन मित्रों के फोन और मिलजुल कर सूचना देने से पता चला कि परिणाम आ गया है।

हम कुछ मित्र सायकिलों से कॉलेज की ओर रवाना हुए। थोड़ी ही देर में हम भीड़ के बीच उस ब्लैक बोर्ड के सामने थे जिस पर परिणाम सूची चस्पां थी।

मेरा नाम उसमें नहीं था।

मेरे कुछ मित्र जो सफल हुए थे उनमें ज़्यादातर लड़कियां थीं।

मैं लौट आया।

मेरे चेहरे पर इस समय हताशा,मायूसी, विफलता,या पराजय का कितना प्रभाव था,ये तो मैं नहीं जानता था किन्तु ये ज़रूर भीतरी मजबूती से महसूस कर रहा था कि आगे का जो रास्ता है वो अब बिना किसी दबाव के मेरा अपना है,सिर्फ मेरा अपना !

बड़े भाई और भाभी ने उसी शाम मुझे अपने साथ ले जाकर एक फ़िल्म दिखाई... मुझे न तो ये मालूम था कि मैंने क्यों देख ली, और न ही ये मालूम था कि क्यों न देखूं?

एक उन्नीस साल का लड़का किसी धुंध से निकल कर मेरे सामने आ गया जो जीवन पर्यन्त मेरे साथ रहा !



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