Prabodh Govil

Others

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मैं और मेरी जिंदगी -11

मैं और मेरी जिंदगी -11

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जब कॉलेज का वार्षिकोत्सव आया तो लगा कि कुछ नया किया जाए। मैंने इंटर कॉलेज फैंसीड्रेस स्पर्धा में नाम लिखा दिया। क्योंकि समारोह हमारे कॉलेज के सभागार में ही हो रहा था, तो कुछ ऐसा किया जा सकता था, जो दूर बाहर कहीं जाकर करना संभव नहीं होता।

मैंने राजस्थान की प्राचीन सतीप्रथा को दर्शाने का निश्चय किया। हमारा कॉलेज केवल लड़कों का ही कॉलेज था इसलिए हर कार्यक्रम में डांस, नाटक आदि में लड़कियों के पार्ट भी लड़के ही करते थे।

मैं भी सती औरत बना। मेरे दो मित्रों ने इसमें बहुत सहयोग किया। एक ने मुझे तैयार किया और दूसरा मृत पति के रूप में दृश्य में मेरी गोद में लेटने के लिए तैयार हुआ।

मुझे इसमें दो बाधाएं आईं। एक तो जब हमारे कार्यक्रम प्रभारी को ये पता चला कि हम सचमुच स्टेज पर आग लगा कर दृश्य दिखाएंगे तो वे चिंतित हो गए। उन्होंने साफ़ मना कर दिया।

वे चाहते थे कि हम पतले रंगीन काग़ज़ की लपटें तेज़ पंखा चला कर दिखाएं। पर हमने सच में आग लगाने के स्वाभाविक दृश्य की तैयारी की थी।

जब हमने बहुत अनुनय विनय की, और उन्हें समझाया कि हम बिल्कुल सुरक्षित तरीके से आग लगाएंगे, तो वे मुश्किल से तैयार हुए।

पर साथ ही उन्होंने प्रतियोगिता की अंतिम प्रविष्टि के रूप में मेरा नाम अंत में डाल दिया।

लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ी। लगभग पूरे कार्यक्रम में पहले से तैयार होकर अंत तक बैठे रहना पड़ा। कुछ लड़के तो तैयार होकर स्टेज पर एक ओर बैठ कर कार्यक्रम देखते रहे, किन्तु मैं लड़की बना होने के कारण सामने भी नहीं आ सका और पूरे समय भीतर ही छिप कर बैठा रहा।

दूसरे, प्रतियोगिता निर्णायकों ने ये आदेश भी जारी कर दिया कि प्रतियोगी किसी अन्य छात्र का सहयोग नहीं ले सकते, उन्हें अकेले ही अपनी प्रस्तुति देनी होगी।

मेरा दूल्हा बना लड़का ये सुनते ही अपनी पगड़ी उतार कर मुझे देते हुए चूड़ीदार पायजामा और शेरवानी पहने बाहर जा बैठा।

मुझे दृश्य में अपनी गोद में एक चादर से ढक कर केवल पगड़ी ही रखनी पड़ी।

मेरे मित्र मुझसे मज़ाक करने लगे, बोले - लो, मरा हुआ पति तो उठकर भाग गया अब अकेले सती होना पड़ेगा।

मेरा नम्बर आते ही हमने आधे टूटे हुए तीन मटकों में तेल से भिगोई हुई रुई में आग लगा कर सामने रखी और उसके पीछे सती के रूप में मैं बैठा।

पर्दा उठते ही ज़बरदस्त तालियां बजी।

मुझे पहला पुरस्कार मिला।

जिस लड़के ने मुझे तैयार किया था उसकी भी बहुत सराहना हुई। वो चाहता था कि मैं पुरस्कार लेने भी इसी वेशभूषा में जाऊं, पर मैं इतनी देर से दुल्हन की तरह सजा बैठा हुआ बुरी तरह उकता गया था, अतः परिणाम घोषित होते ही कपड़े बदल कर मुंह धोकर सामने आ गया। प्रतियोगिता इंटरकालेज थी, पर हमारा ही कॉलेज होने से दर्शकों ने जोरदार तालियां बजाकर खुशी जाहिर की।

मेरी पिछले दिनों की मायूसी तत्काल खत्म हो गई और मैं वापस अपने पुराने रंग में आ गया।

कुछ ही दिन बीते होंगे कि एक चमत्कार और हुआ।

मैं अपने कॉलेज की कैंटीन में बैठा था कि एक लड़का अख़बार लेकर दौड़ता हुआ आया।

अख़बार में बहुत बड़े विज्ञापन में ब्रुक बॉन्ड चाय की उस प्रतियोगिता का परिणाम छपा हुआ था जिसमें कुछ समय पूर्व मैंने भाग लिया था।

इसमें दूसरे पुरस्कार विजेता के रूप में बहुत बड़े अक्षरों में मेरा नाम छपा था। साथ ही इनाम की राशि दो हज़ार रुपए भी छपी थी।

सन उन्नीस सौ इकहत्तर में इतनी बड़ी राशि मिलने का यह मेरा पहला अवसर था।

मैं खुशी से उछल पड़ा और मित्र को साथ लेकर तत्काल घर पर मेरे पिता को फोन करने के लिए दौड़ पड़ा।

मेरी खुशी दोगुनी हो गई जब फोन पर मेरे पिता ने बताया कि आज ही डाक से कोलकाता से ग्रिंडलेज बैंक का चैक भी मेरे नाम से आ गया है। साथ ही बधाई का पत्र भी था।

कुछ दिन बाद एक समाचारपत्र में ब्रुकबॉन्ड चाय के विज्ञापन में मेरा लिखा वो स्लोगन भी छपा, जिसके लिए मुझे पुरस्कार मिला था।

स्लोगन था - "सर्दी हो चाहे गर्मी, या रिमझिम बरसात

                  ब्रुक बॉन्ड की चाय, रहती है लाजवाब!"

इसी चैक को भुनाने के लिए मैंने पहली बार अपने नाम से बैंक ऑफ बड़ौदा में अपना खाता खोला। बैंक की उस शाखा के प्रबंधक ये जानकर बेहद खुश हुए कि मुझे ये राशि इनाम में मिली है।

सांस्कृतिक कार्यक्रम ने कुछ दिन तक मुझे व्यस्त रखा। इस बीच कुछ डिबेट प्रतियोगिताओं में भी मैंने भाग लिया।

एक दिन कॉलेज में लगातार दो तीन पीरियड खाली होने से हमारी क्लास के पंद्रह सोलह लड़के लॉन में गोल घेरा बना कर बैठे हुए थे कि अचानक एक लड़का बोल पड़ा - क्लास का सबसे सेक्सी लड़का कौन है, सब अपनी अपनी राय दो!

ये बड़ी अजीब बात थी।

वास्तव में "सेक्सी" होने का क्या मतलब होता है, ये हम में से बहुत कम लड़के जानते थे। कुछ एक ऐसे लड़के जो सैंट जेवियर स्कूल से अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ कर आए थे, वे भी हमारी क्लास में थे। शायद ये प्रश्न उन्हीं लोगों की ओर से आया था !

हम सब अपने अपने सोच के अनुसार कयास लगाने लगे कि सत्रह अठारह साल के लड़कों में सेक्सी कौन और कैसे हो सकता है।

मेरा अनुमान तो यही था कि वे शायद सबसे सुंदर, स्मार्ट, होशियार, स्वस्थ लड़के के बारे में ही बात कर रहे हैं।

किन्तु सबकी बातचीत से ये भी समझ में आया कि ये चारों बातें अलग अलग हैं।

सबसे पहले सुंदरता की बात करें। सुंदरता का मानदंड लड़कों और लड़कियों में अलग अलग माना जाता है। इसीलिए अंग्रेज़ी में सुन्दर लड़कियों को ब्यूटीफुल और सुन्दर लड़कों को हैंडसम कहा जाता है। इसका सेक्सी होने से कोई संबंध नहीं है।

स्मार्ट, होशियार होना तेज़ और बुद्धिमान होना है। ऐसे लड़के भी सेक्सी कैसे होंगे?

स्वास्थ्य तो पूरी तरह शरीर की बलिष्ठता और निरोगीपन पर आधारित है।

मैं मन ही मन शायद यही सब सोच रहा था। एकाएक बोल पड़ा - सेक्सी मतलब?

प्रश्न मेरा था, इसलिए इसे हंसी में नहीं टाला गया। पूछने वाले ने संजीदगी से समझा कर जवाब दिया - सेक्सी मतलब ऐसा चेहरा या बदन, जिसे देखकर उसे प्यार करने, उसे छूने, उसे "किस" करने की इच्छा हो।

एक लड़के ने समझाया कि शादी के लिए जब लड़का या लड़की को एक दूसरे की फोटो दिखाई जाती है तो इसीलिए कि वो देख सकें, उनके जीवन साथी में सेक्स अपील कैसी है।

मुझे ये बात बहुत अच्छी और नई लगी।

इससे थोड़ा थोड़ा सेक्स शब्द का मतलब भी समझ में आया।

मैंने सोचा कि सेक्स का संबंध शायद लड़के या लड़की से भी नहीं है। यहां केवल जीवित शरीर की बात है जिसमें आकर्षक स्पंदन होता हो।

इसमें एक लक्ष्य होता है और एक प्रयासकर्ता। लक्ष्य लड़के के लिए लड़की, लड़की के लिए लड़का, लड़की के लिए लड़की और लड़के के लिए लड़का भी हो सकता है।

यदि आप किसी को छूना, देखना, बांहों में लेना, निर्वस्त्र करना, या उससे एकांत में लिपटना चाहते हैं, तो आप सेक्सी नहीं, बल्कि वो सेक्सी है, जो आपको ऐसा करने के लिए प्रेरित करके उकसा रहा है।

अब लड़कों का उत्तर सुनने में मेरी जिज्ञासा बढ़ गई, किन्तु समय कम था, इसलिए खुल कर कोई बात नहीं हो पाई। पर इस चर्चा से एक नया आयाम खुला, एक नया नज़रिया मिला।

ऐसी ही बातें अब कभी कभी मुझे विज्ञान और कला के रास्ते जाने में द्वंद्व पैदा करने लगीं।

मुझे लगता था विज्ञान जीवन को ऐसा बहुआयामी दृष्टिकोण नहीं देता। ये कला का ही बूता है जो आपको दूसरे के बदन में अपना ठिकाना दिखा दे।

मेरे भीतर एक सकारात्मक ऊर्जा निरंतर बढ़ने लगी और मैं लोगों को पढ़ने लगा। मुझे अच्छे चेहरे अच्छे लगते थे।

मैं इससे धोखा भी खा जाता था। क्योंकि हम सब दो होते हैं, एक का अक्स हमारे चेहरे पर होता है, दूसरे हम तमाम अनुभूतियों और संवेदनाओं से सजे अपने भीतर रहते हैं।

व्यक्तित्व का छिलका उतरने पर असलियत सामने आती है। कई बार आकर्षक खोल में निहायत बोदा शख़्स निकल आता है। तो कई बार नीरस पैकिंग में बड़ा मज़ेदार माल निकलता है।

जीवन इसी का नाम तो है।

जिस लड़के ने मुझे रैगिंग लेने के लिए हॉस्टल के अपने कमरे में अकेले बुलाया था, वो भी बड़ा संवेदनशील और शालीन लड़का निकला।

मुहावरा है कि "खोदा पहाड़ निकली चुहिया", बस इतनी सी ही बात थी। उसने बताया कि वो मुझे तीन चार साल पहले से जानता है। जब मुझे स्कूल के मंच पर स्वर्ण पदक मिला, तब वो भी छात्रों के बीच मौजूद था। पर मैं उसे जानता नहीं था।

बाद में संयोग से जब मैं और वो एक ही कॉलेज में आ गए, और वो मेरा सीनियर बन कर मुझे मिला तो उसने रैगिंग के दस्तूर का फ़ायदा उठा कर मुझे अपने कमरे में बुला लिया। हम दोनों बाद में अच्छे दोस्त बन गए।

दो लड़कों के बीच अकेले कमरे में भी कौन सा मेला लग सकता था। हम देर तक बातें करते रहे।

इस उम्र के नवयुवक की जिज्ञासा होती भी कितनी सी है - ये दिखा दे, वो दिखा दे, देख, छू, बता, वो कैसी है, वो कैसा है... इससे किसका क्या बिगड़ता है? हो गई रैगिंग !

पुराने स्कूल मित्र और कोई कोई परिजन अब कभी कभी मुझसे कहते थे कि यदि तुमने डॉक्टरी की लाइन में जाने का लक्ष्य रखा है तो ये सही समय है, अब तुम्हें सब बातों से ध्यान हटा कर केवल परीक्षा की तैयारी पर ही ज़ोर देना चाहिए।

मुझे बात गंभीर लगती भी थी, क्योंकि अब फाइनल परीक्षा नज़दीक थी और उसके तुरंत बाद प्री मेडिकल टेस्ट देना था।

राजस्थान में उन दिनों केवल पांच मेडिकल कॉलेज थे, जिनके लिए संयुक्त पी एम टी आयोजित होता था।

इसमें कुल सीटें निर्धारित थीं जो छात्र संख्या को देखते हुए काफ़ी कम थीं।

समय समय पर छात्रों द्वारा विश्वविद्यालय में जो हड़ताल होती थी, उसमें भी ये मुद्दा बार बार उठाया जाता था कि इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में सीटें बढ़ाई जाएं।

संयोग से उस वर्ष मेडिकल में काफ़ी सीट बढ़ाए जाने की घोषणा भी हो गई।

कुछ लड़के कहते थे कि राज्य के एक प्रभावशाली मंत्री का बेटा भी अगली बार मेडिकल कॉलेज में जाने वाला है, उसी को देखते हुए सीटों में इज़ाफ़ा किया गया है।

मैं इस बात पर ज़्यादा विश्वास नहीं करता था, क्योंकि मंत्री के जिस बेटे का नाम लेकर ऐसी बात कही जाती थी, वो मेरी ही क्लास में था और मेरा दोस्त भी था।

मंत्रीजी चाहे जैसे हों, बेटा बहुत विनम्र, प्यारा और सलीके मंद था। मैं मन ही मन उसे पसंद करता था। उसकी संकोच शीलता, विनम्रता और सुन्दर चेहरा मुझे आकर्षित करता था।

वो ज़्यादातर जूते भी इस सलीके से पहनता था, कि मैं जिन जूतों को डोरी की वजह से नापसंद करता था, उसके पैर में वो भी मुझे आकर्षक लगते थे। शायद उसका उन्हें बांधने का तरीक़ा बड़ा कलात्मक था।

जब मेरे नजदीकी लोग मुझे परीक्षा को गंभीरता से लेने का उपदेश देते तो मैं उनसे कह दिया करता कि यदि मेरे नसीब में अपना लक्ष्य पाना लिखा होगा तो इसी तरह का कोई चमत्कार हो जाएगा कि सीट बढ़ जाएं या कोई नया कॉलेज खुल जाए।

यद्यपि भाग्य पर मेरा विश्वास कभी नहीं रहा था। मैं हमेशा परिश्रम और पुरुषार्थ पर ही भरोसा किया करता था।

वार्षिक परीक्षा शुरू हुई, हमेशा जैसी साधारण तैयारी भी मैंने की।

गर्मियों की छुट्टियां हुईं तो मैं अपने मित्रों के साथ मेडिकल परीक्षा के बारे में भी खोज खबर लेकर सामग्री जुटाने लगा।

घुटन और थकावट भरी ये छुट्टियां बीत गईं और मेरा बी एस सी प्रथम वर्ष का परिणाम आ गया।

इस बार मेरी रसायन शास्त्र विषय में फ़िर से सप्लीमेंट्री आ गई।

प्री मेडिकल परीक्षा में बैठ पाने का अवसर हाथ से निकल गया।

अब मैंने अपने पिता को पहली बार अपने मन की बात बताई कि मैं विज्ञान नहीं पढ़ कर कला में ही जाना चाहता हूं।

पिता को इस बात पर ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ, मानो वे पहले से ही ये अनुमान लगा चुके थे कि मैं आर्ट्स के लिए ही उपयुक्त हूं। आख़िर वे भी शिक्षाविद् थे और एक नामी शिक्षण संस्थान में वाइस प्रिंसिपल थे।

ये जान कर मुझे बेहद सुकून मिला कि मेरे पिता मेरे मन की बात को समझते हैं। मुझे और किसी की परवाह नहीं थी। बाक़ी लोगों को तो किसी न किसी तर्क से अपनी बात समझा ही सकता था। हालांकि लोगों को इस बात से ज़्यादा सरोकार भी कहां होता है कि आप कहां सफल हुए और कहां विफल। वो तो दो - एक दिन आपकी मिजाज़ पुर्सी करके अपनी अपनी राह हो लेते हैं।

पर मेरे पिता ने मुझे पूरी तरह विश्वास में लेकर कुछ बातें कहीं। इतनी लंबी बात करने के लिए वो मुझे एक शाम अपने साथ सड़क पर टहलने के लिए ले गए और लगातार बोल कर मित्र, फिलॉसफर और गाइड की भांति समझाते रहे।

मैं एक आज्ञाकारी बेटे, शिष्य और अन्वेषी की तरह उनकी हर बात ध्यान से सुनता रहा।

उन्होंने कहा- यदि मैं थोड़ी सी हिम्मत करूं तो अगले साल सेकंड ईयर में पढ़ते रहकर प्री मेडिकल परीक्षा की तैयारी करता रह सकता हूं। उनका कहना था कि बड़े लक्ष्य के लिए जीवन में एक ही प्रयास काफ़ी नहीं होता। कई बार बार बार कोशिश करके लोग सफल हो जाते हैं। उन्होंने मुझे कई ऐसे डॉक्टरों के नाम बताए जो बी एस सी पास करने के बाद मेडिकल में गए। उन्होंने मुझे ये भी कहा कि केमिस्ट्री में सप्लीमेंट्री आने के अलावा अन्य विषयों में मेरे अंक हमेशा की तरह अच्छे ही हैं। पूरक परीक्षा पास कर लेने के बाद मेरी अंक प्रतिशत अच्छी ही रहेगी। और मैं प्रथम लक्ष्य मेडिकल कॉलेज को ही रख कर सेकंड ईयर में पढ़ता रह सकूंगा।

मुझे नहीं पता कि ये सब सुनते हुए मेरे चेहरे पर कैसे भाव थे।

पिता बोले- साहित्य का क्षेत्र खराब नहीं है, कई नामचीन हस्तियां इस क्षेत्र से ऐसी रही हैं जो अन्य किसी पेशे में होते हुए भी साहित्यकार के रूप में सफल रही हैं। उन्होंने कई ऐसे नाम गिनाए जो वैज्ञानिक, वकील, नेता, व्यापारी, अफ़सर, इंजीनियर, डॉक्टर, शिक्षक होते हुए भी साहित्य लिखते रहे और एक साहित्यकार के रूप में सफल हुए।

उन्होंने शेक्सपीयर का नाम भी लिया जो घुड़साल में काम करते हुए विश्व प्रसिद्ध नाटककार बना।

पिता ने मुझे अंत में तीसरे विकल्प के रूप में ये भी बताया कि आर्ट्स के कुछ अच्छे विषय पढ़कर लोग प्रशासनिक अधिकारी भी बनते हैं। शोध करके कई उच्च पदों पर जाते हैं, किन्तु पहले एक बार अपने सोचे हुए लक्ष्य के लिए जी तोड़ प्रयास करने के बाद ही इन दूसरे विकल्पों की ओर जाना चाहिए। वही मेरे लिए उपयुक्त होगा।

मैं अन्दर से हताश नहीं था। मेरे जीवन में कभी नकारात्मकता नहीं आई थी।

मैं पिता की बात अक्षरशः समझ गया और इसके लिए तैयार हो गया।

मेरे "ठीक है" कहते ही, पिता ने मानो कोई बड़ा युद्ध जीत लिया। वो संतुष्ट हो गए।

मैं फ़िर से केमिस्ट्री की पुनः परीक्षा की तैयारी में लग गया।

मुझे ये बात ज़रूर थोड़ा अखरती थी कि छुट्टियों में जब सब लोग मौज मस्ती में लगे हों, सावन आने को हो, नए परिसरों में नए नए मित्र चहचहाते हुए घूम रहे हों... मैं बंद कमरे में एच टू एस ओ फोर प्लस एम एन एस ओ फोर बराबर क्या... ये रटता रहूं।

मैंने ज़िन्दगी का ये फ़लसफ़ा कभी नहीं जाना था कि किताबों में से कुछ रट लूं फ़िर उसे आने वाली पीढ़ियों को रटवा कर हर महीने वेतन लेता रहूं और एक दिन दुनिया से चल दूं।

मेरा मन तो हवाओं के साथ बहना चाहता था, घटाओं के साथ गाना चाहता था, लोगों की आंखों में झांक कर वहां बसे सपने पढ़ना चाहता था और जब इस दुनिया में दिन पूरे हो जाएं तो किसी दूसरी दुनिया की खोज में निकल जाना चाहता था।

खैर, ज़िन्दगी मेरे सोच से तो चलने वाली थी नहीं।

मेरे पड़ोस में एक महिला रहती थीं जिनकी छोटी बहन फर्स्ट ईयर बी एस सी में दो तीन बार से फेल हो रही थी। इस बार उन्होंने ऐलान कर दिया कि ये आख़िरी मौका है, और यदि इस बार भी वो पास नहीं हुई तो बी एस सी छोड़ कर उसे या तो कोई नौकरी करनी पड़ेगी या फ़िर बी ए में एडमिशन लेना पड़ेगा।

उस लड़की को शायद मेरा परिणाम देख कर बहुत सांत्वना मिली। वो मुझसे बोली कि मेरे केमिस्ट्री में तो बहुत अच्छे नंबर आते हैं, पर मैं बाकी विषयों में फेल हो जाती हूं।

उसने कहा कि वो केमिस्ट्री मुझे पढ़ाएगी।

मैं न तो उसकी बात को गंभीरता से लेता था, और न ही उस पर विश्वास करता था, फ़िर भी शाम के समय कुछ देर के लिए घूमता फिरता उसके घर चला जाता था। वो इस बात को अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना कर बेहद सीरियस हो गई और जिस दिन मैं न जाऊं, मुझे बुलाने आ जाती। दिन दिन भर मुझे पढ़ाने के लिए खुद पढ़ कर तैयारी करती। मानो किसी तरह मुझे पास करवाना ही उसके जीवन का लक्ष्य था।

वास्तव में उसे रसायन शास्त्र के पाठ रटे पड़े रहते थे और वो धाराप्रवाह बोलती थी।

मेरे दोस्त उससे पढ़ने के लिए मेरा मज़ाक उड़ाया करते थे और रात को खाना खाने के बाद जब हम मित्र लोग घूमने जाते तो वे मुझसे पूछते कि आज उसने क्या पहना था, आज मुझे क्या खिलाया, आज उसने बाल खुले रखे थे या चोटी की थी, आज वो अलग कुर्सी पर बैठी थी या बिस्तर पर मेरे साथ ही...कभी किसी ने ये नहीं पूछा कि उसने क्या पढ़ाया था?

आखिर परीक्षा खत्म हो गई और मैं मेरे पिता के कहे अनुसार सैकंड ईयर में आ गया।

प्री मेडिकल की परीक्षा भी हो चुकी थी और हमारी क्लास के दो तीन लड़के ही उसमें सलेक्ट होकर चले गए थे। शेष सभी क्लास में ही थे।

जो छात्र चयनित हुए वे राज्य के मेडिकल कॉलेजों में अलग अलग जगह चले गए।

क्रमशः



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