सागर जी

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4.2  

सागर जी

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मानवता छोड़ मशीन मत बनो

मानवता छोड़ मशीन मत बनो

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कोरोना बीमारी को फैले काफी समय हो गया है, न जाने कितने लोगों ने अपनी जान गंवा दी, कितने लोगों ने अपनों को खो दिया, कितने लोगों को अपना रोजगार गंवाना पड़ा, कितने कष्ट इस दौरान लोगों ने सहे । इसके विषय में लिखकर नहीं बताया जा सकता है । बहुत सारे लोगों ने मानवता की मिसाल कायम की और उनसे जो भी बन पड़ा लोगों की मदद के लिए, उन्होंने वह सब किया । डॉक्टर्स, हमारी फोर्स, सफाई कर्मी, अन्य सरकारी व गैर सरकारी लोग अपने काम को निष्ठा पूर्वक करते रहे । वैसे तो बहुत सारी चीज़ें सोशल मीडिया पर आती रही, पर मुझे उनके चीज़ो में एक फोटो बड़ा हृदय विदारक लगा, यह वास्तविक छायाचित्र ना होकर एक कार्टून चित्र था पर शायद किसी दुर्घटना, किसी विचार से निकलकर एक सच्चाई लिए हुए था । इस चित्र में दो परिवार दिखाए गए थे जिनमें एक आर्थिक रूप से सक्षम था और दूसरा अक्षम था । इसमें सक्षम परिवार को मोबाइल से सेल्फी खींचते दिखाया गया था पर दूसरे परिवार के 4 सदस्यों में से एक के हाथ में पकड़ी गुल्लक टटोलते हुए और बाक़ी सदस्यों को निकलने वाले रुपयों, सिक्के पर नजर गड़ाए हुए दिखाया गया था, मेरे मन को द्रवित करने के लिए काफ़ी था । इसी प्रकार के कई गई और दृश्य भी इस कोरोना काल के दौरान देखने को मिले जब मानवता शर्मसार हुई, ख़ैर अब मैं असली मुद्दे पर आता हूं ।

      इस महामारी के दौरान अधिकांश कार्य डिजिटल मोड से किए गए चाहे सरकारी हो या व्यक्तिगत, मैं सोचता हूं कि यदि इस दौरान काम करने का तरीका उपलब्ध नहीं होता तो जाने कितने भयावह परिणाम और सामने आते । ख़ैर इस आविष्कार ने बहुत हद तक सभी के कार्यों को सुचारु रखा और हर तरीके से मानवता की सहायता की लेकिन इसका बहुत भयानक दुष्परिणाम सामने आए जिसमें मानव का मानव से नाता टूटकर एक मशीन से नाता जुड़ गया और नाता भी ऐसा जुड़ा कि मानव को पता ही ना चला कि कब वह इस मशीन का दास बन गया । उसे अपनों की इतनी चिंता ना हुई जितनी इस मशीन की, हालांकि यह ना होती तो हमारी मुश्किलें इतनी ज्यादा कष्ट दाई हो जाती कि हम क्या करते यह कल्पना भी नहीं कर सकते ।

      मैंने स्वयं के विश्लेषण से यह बात अनुभव की कि कब इस डिजिटल दुनिया में मेरा प्रवेश हो गया मुझे पता ही नहीं चला और मैं भी इसका आदि, एडिक्ट हो गया । थोड़ी - थोड़ी देर में मोबाइल देखना, किसी नोटिफिकेशन पर मोबाइल उठा लेना, कभी व्हाट्सएप, कभी फेसबुक, कभी यूट्यूब खोल कर देखना, कभी कोई ज़रूरी काम ना होने पर भी मोबाइल देखना । दिन में, शाम में, रात में, हर वक्त मोबाइल, जाने कैसी लत लग गई, ऐसा लगने लगा था कि इस मोबाइल के बिना मैं अधूरा हूं । कोई लिमिट ही नहीं रह गई थी ।

     कभी-कभी गुस्से में आकर मोबाइल को अपनी पहुंच से दूर रख देता था पर ध्यान उधर ही रहता था । इस मोबाइल ने पागल कर दिया था । हर हाथ में मोबाइल, हर जगह मोबाइल, हर बात में मोबाइल, हालांकि बहुत सारी काम की बातें सीखी पर समय को कैसे व्यर्थ गंवाना है यह कब सीख गया पता ही नहीं चला । एक ही कमरे में परिवार के साथ बैठकर परिवार जनों से बात करने के बजाय मोबाइल के साथ व्यस्त रहना, कितना अधूरा हो गया था ! मोबाइल के बिना । इक टीस तो उठती रहती थी कि मोबाइल ने मेरे जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है परंतु अपने पंजों में ऐसे जकड़ा है कि छूटना मुश्किल हो रहा है लेकिन कुछ आदतों ने, मेरे कुछ शौक़ ने मुझे इस परेशानी से निपटने में सहायता की । मेरे ये शौक़ हैं संगीत, मेरा साहित्य, योगा, इन आदतों ने मुझे बचाए रखा है लेकिन इस बात से मैं इनकार नहीं करूंगा कि मैं भी इस मशीन का गुलाम हो गया परंतु फिर भी मैं इसे नियंत्रित कहीं लेता हूं ।

       वास्तव में सत्य है कि जीवन में किसी भी चीज की अति अच्छी नहीं होती । अच्छी आदतें अक्सर हमारा मार्गदर्शन करती हैं हमें भटकने से बचाती हैं । हम यदि अपनी महत्वाकांक्षाओं पर नियंत्रण नहीं रखेंगे तो निश्चित ही हमें दुष्परिणाम भुगतने होंगे । मैं मानता हूं कि मोबाइल हमारी दिनचर्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है लेकिन हमें इसके प्रयोग को नियंत्रित करना होगा, व्यवस्थित करना होगा । इसके उपयोग, इससे सीखने की एक सीमा है जिसे हमें पहचानना होगा । मशीनें बेशक हमारे काम को हल्का करने में हमारी मदद करती है परंतु हमें आलसी, लापरवाह, चिड़चिड़ा, अकेला और अपने जैसा बना देती है ।      

     वास्तव में कभी सोचा है कि जीवन किसको कहते हैं क्या मशीनों के साथ रहकर मशीन बन जाने को या मानव के साथ रहकर मानवता को प्राप्त करने को । कल्पना करिए कि आप के आस - पास मशीनों के अलावा कोई जीवित व्यक्ति या कोई और प्राणी भी ना हो तो क्या जीवन खुशनुमा होगा । हमारे जीवन में वे रंग, वे रस रहेंगे जो जीवन को एक आनंद देते हैं, आकर्षक बनाते हैं, नहीं कभी नहीं । मनुष्य नाम है मनुष्य के साथ रहने का, मानव अनुरूप बर्ताव करने का, एक दूसरे के साथ हंसने - बोलने, खेलने - कूदने का, एक दूसरे से बात करने का, क्या यह आनंद मोबाइल दे सकता है अपने आप से पूछिए ।

      एक किताब से यदि मोबाइल की तुलना करें तो यह किताब जिस विषय पर लिखी जाती है वही हमें सिखाती है उस पर हमें फोकस करवाती है नए - नए देती है, रचनात्मकता प्रदान करती है परंतु मोबाइल पर एक चीज ढूंढो तो हजारों चीज़ें मिलती है हम ढूंढते क्या हैं और क्या मिल जाता है । वैसे तो इससे सब कुछ हमारे हाथ में आ गया है लेकिन यह किस हद तक सही है इसका भी कोई प्रमाण नहीं है । एक आदमी की भूख सादी रोटी की है यदि उसके सामने तरह-तरह की रोटियां रख दी जाए तो क्या होगा, यही हाल इन मशीनों का अनियंत्रित, अनुचित प्रयोग का है जो थोड़ी देर का आनंद अवश्य देता है लेकिन वह अनंत सुख, जिसकी चाहा हमें है वह कभी नहीं दे सकता । मेरा इन मशीनों से कोई विरोध नहीं है मगर इनके लगातार, अनियंत्रित प्रयोग के में ख़िलाफ़ हूं ।

      क्यों ना हम इनके प्रयोग का समय स्वयं ही बना ले कि सुबह इतने बजे से शाम इतने बजे तक हम इसका प्रयोग करेंगे, अपने मोबाइल को उस मोड पर सेट करेंगे जिसे हम खोज रहे हैं बस वही मिले और कुछ ना मिले । सोचिए मोबाइल में जान आ जाए और वह बोलने लगे तो सबसे पहले वह क्या कहेगा "अब बस भी कर यार मुझे भी आराम करने दें और खुद भी आराम कर ।" यदि हम मोबाइल से अपने किसी पालतू जानवर की तरह व्यवहार करें तो क्या हम उसका असीमित प्रयोग करेंगे नहीं कभी नहीं तो मोबाइल को भी अपना प्यारा साथी बना लो जिसके साथ कुछ समय बिताकर उससे विदा लेने और अगले दिन मिलने का वादा कर मिले इससे उसे भी आराम मिलेगा और आपको भी । 

     आप अपने आप को भी समय दे पाएंगे, अपनों को भी, जिससे जीवन की सार्थकता सिद्ध होगी। एक शांति मिलेगी, जो नींद खो गई है वह नींद, चैन की नींद नसीब होगी, जीवन की अति भाग दौड़ कम होगी, दबाव, चिंता, निराशा, उदासी दूर होगी, जीवन खिलखिला उठेगा । हर सुबह नई लगेगी, एक नया उत्साह एहसास मिलेगा और हमारे अंदर का आदमी जो मोबाइल बन चुका है मेरा मतलब मशीन बन चुका है वह बाहर निकलेगा और कहेगा "कब से तुझे ढूंढ रहा था यार, तू कहां था, कैसा था । चल अब बचपन की वही रेस लगाते हैं जहां जीत - हार के कोई मायने ना थे, उस मिट्टी से लिपट - लिपट कर खेलते हैं जहां ममता का एहसास हुआ करता था, उस उगते और ढलते सूरज को देखते हैं जिससे सुबह और शाम होने का एहसास हुआ करता है । छोटी-छोटी खुशियों का आनंद लेते हैं, जो अनमोल आनंद दिया करती थी, चल यार फिर से जीते हैं , वही जिंदगी जहां अभाव तो था लेकिन जीने का मकसद भी था, जीवन में रंग था चल फिर से जीते हैं फिर से................. 


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