सागर जी

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3.2  

सागर जी

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गांव का घाट

गांव का घाट

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एक ऐसी जगह, जहां पर आकर सभी के जीवन का एक सफ़र समाप्त होकर, अपनी दूसरी यात्रा के प्रारंभ की ओर अग्रसर होता है। यहां पर आकर सब एक हो जाते हैं। मैं सोचता हूं, यदि जानवरों का भी अंतिम संस्कार करने का कोई रिवाज़ होता, तो फिर तो मानव और पशु में भी कोई अंतर नही होता, परंतु मैं सर्वथा उचित नहीं सोच रहा हूं, क्योंकि यदि ऐसा होता तो हम मनुष्यों के बीच बनी दूरी, जो चिरकाल से बनी हुई है और शायद बनी ही रहे, मिट गई होती ।

मझेड़ा, एक छोटा सा गांव है, जो पहाड़ों की गोद में पलकर बड़ा हुआ, परन्तु जितना बड़ा होता जा रहा है, कहीं समाज को कम कर रहा है ,कहीं बढ़ा रहा है, परंतु गांवों में भी अब वो मिठास, अब वो अपनापन नही दिखाई दे रहा है, जो कभी गांवों की शान हुआ करता था।


एक मंदिर का काम प्रगति पर चल रहा था, जिसे ब्राह्मण वर्ग के लोग बना रहे थे तथा जिसमें निम्न वर्ग(कुछ लोगों के अनुसार) के लोग निर्माण कार्य में लगे हुए थे।

पंडित : रमुवा, नहा के आया है न ?

रमुवा : हां पणज्यू(पंडित जी), घिस-घिस के नहा के आया हूं। मंदिर का निर्माण जो करना है न ।

पंडित : ठीक है ठीक है (पंडित जी बड़बड़ाते हुए घर के अंदर जाते हैं) ।

पंत : क्या हुआ पण जी ? काम तो ठीक चल रहा है न ?

पंडित : काम तो ठीक ही चल रहा है, लेकिन इन सालों से काम कराना पड़ता है, इस बात का बड़ा मलाल लगता है। हमारा कोई आदमी भी तो इस काम को नहीं कर सकता ।

पंत : पण जी छोड़ो न, मंदिर बनने के बाद गोमूत्र छिड़का देना, गंगा जल से स्नान करवा देना, सब पवित्र हो जाएगा।

पंडित : ठीक कहते हो पंत ज्यू ।


उधर रमुवा और किसना में बात हो रही है ।

किसना : क्या रे रमुवा, झूठ क्यों बोलता है ! तू तो मुंह भी ठीक से नहीं धोता है और पणज्यू से कह रहा है घिस-घिस के नहा रखा है !

रमुवा : चुप, पणज्यू सुन लेंगे तो नहाने भेज देंगे, बाद में बताऊंगा ।

इस तरह रमुवा और किसना को काम करते-करते शाम हो जाती है परन्तु उन्हें खाना तो क्या एक गिलास पानी के लिए भी नहीं पूछा गया। सुबह के खाए दोनों काम करने के बाद बाज़ार की तरफ कुछ सब्ज़ी आदि लेने जाते हैं। सब्ज़ी लेने के बाद :


रमुवा : "यार किसना बहुत थक गया हूं, शरीर भी दुःख रहा है।"

किसना :" बेटा समझ गया, मंदिर बनाने का एक पैसा तो मिलने का नहीं, तू साले को पैग......."

रमुवा : (बीच में बात काटते हुए) "छोड़ यार मिल जाएंगे, चल, मंदिर चलते हैं, मतलब...".

और दोनों एक छोटे से देहाती रेस्टोरेंट में बैठकर देसी पीते हैं, थोड़ी पीकर ही रमुवा,अब मि. रमेश बन जाता है ।

रमुवा : "तू पूछ रहा था न, पंडित से झूठ क्यों बोला ?"

किसना :" क्यों ?"

रमुवा : "ये बामण- पंडित ना, हमें छोटा समझते हैं; सोचते हैं हम इनके नौकर हैं, तभी तो मैं वो काम करता हूं जो ये नहीं चाहते हैं।"

किसना :" छोड़ यार ये तो ऊपर से ही बनकर आया है, हमने सेवा करने के लिए ही तो जनम लिया है ।"

रमुवा :" इसलिए कहता था, पढ़ ले - पढ़ ले, पर तू तो रहा अनपढ़ का अनपढ़। अरे कहीं कुछ नहीं लिखा है, सब कुछ स्वार्थी लोगों के बनाए नियम हैं। यार इतना पढ़के नौकरी नहीं मिली, तबी तो ये काम कर रहा हूं, पर जो पढ़ा है न; वो याद है। पता है कबीर क्या कहते हैं ? तुझ अनपढ़ को क्या पता....... सुन

" पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।

.......समझा !!

किसना बेचारा मुंह खोलकर उसे देखा रहता है ।

रमुवा : "अरे तुझे क्या समझ में आएगा ?"

अबे सीधा सा मतलब है कि जो सबसे प्रेम करता है, सब में भगवान देखता है वहीं असली जानकर या पंडित है, जैसे..... जैसे ये तिल दा कहते हैं..ग्राहक तो भगवान है, चाहे किसी भी जाति या धर्म का हो ।"

किसना (लड़खड़ाते हुए उसके पैरों में गिरकर कहता है) "दादा; तू ही मेरा भगवान है क्योंकि मेरी कुछ समझ में नहीं आया है, अब से...... अब से तू मेरा ददा, ददा गुरु।"

रमुवा :" संतों की बातें तेरी समझ में नहीं आएंगी, चल तूने बहुत पी ली है, अच्छा तिल दा अब चलते हैं ।"

मंदिर के पास से गुजरते हुए रमुवा चिल्लाता है :

"जै हो पंडित जी की ।"

पंडित अंदर से सुनता है कुछ कहता नहीं, बस बड़बड़ाता है।

अगले दिन रमुवा और किसना काम पर आते हैं ।

पंडित : "क्यों ये रमुवा; कल बड़ी ज़ोर से चिल्ला रहा था ?"

रमुवा : "पणज्यू, मैं तो नमस्कार कर रहा था ।"

पंडित : "मैं सब जानता हूं, रूक जा, तेरे एक दिन का पैसा नहीं दुंगा ।"

रमुवा : "पणज्यू ऐसा मत कहो, अब से ऐसा नहीं करुंगा ।"

पंडित :" मैंने जो कह दिया वो वेद वाक्य है, तुम लोग इसी लायक हो ।

और पंडित अपने जजमानों से बात करने लगता है।"


एक जजमान :" क्या हुआ पंडित जी ?"

पंडित : "अरे कुछ नहीं, इन लोगों की बुद्धि ऐसे ही ठिकाने आएगी, साले बहुत आगे बढ़ने की सोचते हैं, थोड़ा पढ़-लिख क्या लेते हैं, हमारी बराबरी करने लगते हैं ।"

दूसरा जजमान : "ठीक कहा, इन लोगों से ठीक से बोलना ठीक नहीं है। पैरों की जूती को पैरों में ही रहना चाहिए ।"

सब उसकी हां में हां मिलाते हैं, परंतु एक बोलता है : -

"मेरे ख़्याल से आगे बढ़ने का अधिकार सबको है ।"

पंडित : "फ़ालतू की बात मत करो जजमान, तुम जैसे लोगो के कारण ही इन लोगों की हिम्मत इतनी बढ़ गई है"।

और सभी के द्वारा पंडित का समर्थन करने पर वह व्यक्ति चुप हो जाता है ।


इस तरह गांव की ज़िंदगी चलती है। किसी का भी काम एक-दूसरे के बिना नहीं चलता है, ख़ासकर ये छोटे-मोटे काम (पंडित के कथनानुसार) निम्न जाति के लोग ही करते हैं, परन्तु न तो उनको मेहनताना मिलता है और न ही उचित सम्मान । दिन ऐसे ही गुजरते जातें हैं, मंदिर का निर्माण कार्य भी पूरा हो जाता है, रमुवा और किसना को वहीं मिलता है जो आज तक उनके पुरखों को मिलता आया, थोड़ा पैसा,वो भी थोड़ा-थोड़ा करके, कुछ गालियां और सदा से मिलने वाला अपमान।पंडित सबको संबोधित करता हुआ :

"भाईयों, आप सबके सहयोग से यह मंदिर बन गया है, हमने अच्छे से इसकी सफ़ाई कर दी है, क्योंकि अभी तक ये अपवित्र है, इसलिए आप सभी अंजलि में गंगाजल ले लें, मैं मंत्र पढ़ता हूं " ऊं अपवित्रो पवित्रतम"

इस तरह पंडित ने सारे मंदिरों को पवित्र कर मूर्तियां स्थापित कर दी, परन्तु कुछ स्वार्थी और मूर्ख लोग ये क्यों नहीं समझते कि अपने आप को और अपने मन को कब शुद्ध करेंगे ? खैर कहानी और ज़िन्दगी आगे बढ़ती रहती है ।

एक दिन किसना, रमुवा और उसका बेटा, बाज़ार से आ रहे होते हैं। रास्ते में वही मंदिर पढ़ता है। रमुवा का बेटा कान्हा रुककर, पूछता है : "बाबू(पिताजी), कितना बढ़िया मंदिर है !"

रमुवा(ख़ुश होकर कहता है) -"तुझे पता है किसने बनाया?"

कान्हा : "किसने ?"

रमुवा : "तेरे बाप और चाचा ने। (मूंछों पर ताव देते हुए)"

कान्हा ये सुनकर बड़ा खुश होता है ,रमुवा और किसना अपनी कारीगरी देखकर अहम भाव से भर जाते हैं ।

कान्हा :" बाबू चलो, मंदिर में हाथ जोड़कर आते हैं ।"

रमुवा और किसना एक-दूसरे का मुंह देखते हैं, तभी पंडित आता है ।

पंडित :" क्यों रे रमुवा, अपने लड़के को नही बताया कि यहां पर तुम लोगों को आने की मनाही है, चल जा यहां से।"

रमुवा : "पणज्यू, बच्चा है उसे क्या पता ।"

पंडित:" तो उसे बता, निम्न जाति के लोगों को पूजा-पाठ करने का अधिकार नहीं है ।"

कान्हा झट से अपने पिता से पूछता है - "बाबू, ये निम्र जाति क्या होती है ?"

रमुवा : "ये तो तुझे विद्वान पणज्यू ही बताएंगे ।"

पंडित क्या बताता, वो तो स्वयं ही इस तथ्य से पूरी तरह परिचित नही था, इसलिए कहता है - "अरे छोकरे, तू और तेरा बाप, चाचा, निम्न जाति के ही तो हो ।"

बच्चा ये सुनकर थोड़ा असंतुष्ट सा होता है और कहता है - "बाबू, जब मंदिर तुमने बनाया है तो तुमको ही मंदिर में दर्शन करने क्यों नहीं जाने देते ?"

पंडित ये सुनकर बौखला जाता है और कहता है - "अरे रमुवा, तूने अपने लड़के को बड़ों से बात करना भी नही सीखाया, किससे, क्या पूछना चाहिए, कुछ नहीं बताया, चल जा यहां से, हमारी पूजा का समय हो गया है। न जाने कहां - कहां से चले आते हैं ।"

रमुवा और किसना पंडित का गुस्से से लाल हुआ मुंह देखते हुए मंद-मंद मुस्कान छोड़ते हुए वहां से चले जाते हैं।

तीनों चुपचाप अपने घर की ओर बढ़े जा रहे थे, इस ख़ामोशी को तोड़ते हुए किसना पूछता है - "ददा, ये निम्र जाति क्या होती है ? ब्राह्मण, पंडित क्या होता है?"

रमुवा - "वेद-पुराण, शास्त्रों में वर्ग-विभाजन का जो आधार बनाया गया है ,वह कर्म के अनुसार है, यदि कोई पूजा-पाठ, धर्म- कर्म में रुचि रखता है तो ब्राह्मणी का कार्य दे दिये जाने का विधानऔर जो वेद पाठी, चिंतनशील, ज्ञानी और अपने विषय का विद्वान हो, उसे पंडिताई दे दी गई, इसी तरह जो बलशाली, वीर और निडर हो तो उसे लोगों की सुरक्षा का दायित्व देकर क्षत्रिय का कार्य दे दिया तथा जो लेन- देना, कारोबारी के कार्य में कुशल होता तो उसे वैश्य का पद दे दिया जाता था ।"

कान्हा : "बाबू, हमारे जैसा काम करने वाले निम्न जाति के कहलाएंगे ?"

रमुवा : "नहीं बेटा, काम कोई निम्न नहीं होता, उसके पीछे की सोच, उसे करने का आशय निम्न होता है और कुछ लोगों की तो दृष्टि ही निम्न होती है, जो किसी काम को निम्न और उसे करने वाले को निम्न जाति का समझते हैं।"

किसना : "ददा, तेरी बात मेरी समझ में नहीं आयी, तू भी तो इतना पढ़ा-लिखा है, तुझे भी इतना कुछ पता है, पर तू निम्न जाति का ! न मेरी समझ में नहीं आयी ये बात ।"

रमुवा : "तू ठीक कहता है, लेकिन जब ये वर्ण व्यवस्था, जाति पर आधारित हो गई, तो इसे करने वाले, उनके आगे की पीढ़ी को भी आगे चलकर, उसी जाति का मान लिया गया, चाहे वो ज्ञान और कर्म से कितना ही महान क्यों न हो ।"

किसना (आदतानुसार) : रमुवा के पैर छूकर, "समझ में आ गई ददा, आ गई। अब से तो मैं तुझे, पणज्यू, न दाज्यू पणज्यू कहुंगा ।" ( और सभी हंसते हैं, इस प्रकार सब कुछ पीछे छूटता जाता है और इसी तरह ज़िन्दगी आगे बढ़ती जाती है ।

एक दिन किसान अपने घर पूजा रखवाता है, परन्तु पंडित को बुलाने की बात आती है तो बेचारा असंमजस में पड़ जाता है, उसे रमुवा की याद आती है। वो रमुवा के पास जाता है, रमुवा कहता है एक बार पंडित के पास जाकर पूछते हैं ।

दोनों पंडित के पास पहुंचते हैं । पंडित दोनों को बाहर रुकने को कहता है, थोड़ी देर बाद पंडित आता है।

पंडित: "आओ-आओ , मैं तुम लोगों को ही याद कर रहा था.... तुम्हारा कुछ पैसा भी बाक़ी था ।"

दोनों पैसे की बात सुनकर बड़े ख़ुश होते हैं ।

पंडित : "किसना, तू पहले मेरे नीचे वाले खेत की लकड़ियां ले आ और रमुवा, तू मेरी गायों के लिए थोड़ा घास काट ला ।"

रमुवा : "पर पणज्यू पहले..."

पंडित : "पर-वर छोड़, पहले काम कर फिर बात करेंगे। अंदर मेहमान बैठें हैं, अब जाओ ।"

किसना का काम था पंडित से, इसलिए बेचारा मना करता भी तो कैसे। रमुवा अपने दोस्त की मदद करने के लिए सदा तत्पर रहने वालों में था। दोनों काम निपटाकर पंडित को आवाज़ लगाते हैं, पंडित थोड़ा रुकने को कहता है


पंडित : "क्या है ये? तुम लोगों को चैन नहीं है क्या । बता क्या बात है?"

किसना : "वो पणज्यू......"

पंडित : "अरे वो-वो क्या कर रहा है, बता क्या बात है ?"

रमुवा :" असल में पणज्यू, इसने पूजा का संकल्प लिया था, इसलिए सोच रहा था कि यह शुभ काम आपके शुभ हाथों से होता तो इसका जीवन सफल हो जाता ।"

पंडित : "अरे कब है कार्यक्रम ?"

किसना : "परसों, मंगलवार को ।"

पंडित : "अरे.... उस दिन तो मुझे अंदर आए हुए यजमान के यहां जाना है, अगर तुम लोग थोड़ा पहले आ जाते तो, शायद मैं आ भी जाता, लेकिन, अब मुश्किल हो जाएगी। तू परसों आकर पैसे ले जाना हा, अब तुम लोग जाओ मैं बहुत व्यस्त हूं ।"

रमुवा : "पर पणज्यू, हम सोच रहे थे पैसे नहीं लेंगे, बस आप आ जाओ ?"

पंडित : "बहुत मुश्किल है। अच्छा राम-राम ।"

किसना :" मुझे पता था यही होना है, मेरी पूजा...."


रमुवा कुछ नहीं कहता और घर की तरफ़ चल पड़ते हैं।

रमुवा अपने घर पर बैठा सोचता है । क्या है ये संसार ? यहां मानवता नाम की कोई चीज़ है कि नहीं ? सब कुछ एक सा, सब कुछ एक , फिर भी भेद ! कोई कुछ भी कर ले, कुछ भी पा ले, परन्तु ये भेद, ये भेद कभी नहीं मिट सकता। इतना ही भेद है तो सारे काम अपने आप क्यों नहीं करते? कुछ काम कुछ लोगों के हिस्से ही क्यों ! सब स्वार्थी हैं । इन स्वार्थी लोगों का कोई चरित्र नहीं, बस नाम के साथ एक शब्द, भेद उत्पन्न करने के लिए काफी है । कब सुधरेगी ये दशा, आख़िर कब?

तभी रमुवा की बीबी चाय लेकर आती है। उसे गुमसुम देख पूछती है - "क्या हुआ ? क्या सोच रहे हो ?"

रमुवा : " कुछ.. कुछ भी तो नहीं ।"

रानी : "ठीक है, चाय पी लो, बाहर की बातें बाहर ही रखके आया करो, ये तुम्हें परेशान ही करेंगी, और हमें भी ।"

रमुवा : "रानी,(छेड़ते हुए) धन-दौलत की नही, संपत्ति की नही, पर बातों की रानी ज़रूर हो ।"

रानी : "हां हां, बात बदलना तो कोई तुमसे सीखें, पता है आज क्या हुआ ?"

रमुवा : "क्या हुआ ?"

रानी : "पड़ोस के बच्चे बामणो(ब्राह्मणों) के धारे में पानी भरने गये थे, एक बुढ़िया न जाने क्या- क्या बड़बड़ा रही थी, फिर दूसरी औरत पानी भरने लगी, अपना पानी भरने के बाद उस बुढ़िया ने अपने साथ वाली औरत से कहा कि इनके जाने के बाद धारे को धो देना, पता है न क्यों ? बच्चे थे, बेचारे क्या समझते ? मेरा तो ख़ून खौल उठा, मन किया अभी जाऊं और सिर पर तांडव कर- करके, उसकी जबान बाहर निकाल दूं ।"

रमुवा : (एक लम्बी सांस भरकर) "तुम्हें पता है न, इनका कुछ नहीं होना, आज हमारे साथ भी वह घटा कि..".वह रानी को सारी बात बताता है, जिसे सुनकर रानी, रमुवा के कंधे पर ठांठस वाला हाथ रखती है और रमुवा उसके हाथ पर हाथ रखकर, उसे अहसास दिलाता है कि वो ठीक है, फिर कहता है - "असल में, हमारे लोगों में भी एकता नही है, एक-दूसरे की टांग खिंचना, बस और कुछ नही आता है । वो हर्ष पांडे जी कितने समझदार हैं, सुलझे हुए हैं, परन्तु वो अकेले कुछ कर भी नही सकते । उनके इन्हीं विचारों के कारण उनके भाई-बिरादर उनसे अलग हो चुके हैं।(एक लम्बी सांस खींचते हुए) कुछ नही हो सकता, किसी का कुछ भी नही हो सकता।"

इसी तरह का द्वंद रमुवा जैसी मन:स्थिति के लोगों के मन में चलता ही रहता है बस, चलता ही रहता है, कोई निष्कर्ष निकालने के बजाय गुत्थी और उलझती चली जाती है ।क्यों मनो से ये द्वेष, क्लेश, घृणा, जात-पात , भेदभाव नही निकल रहा है ? शायद, दोनों ओर से कदम उठाने की हिम्मत, कोई नही कर पा रहा है ।

एक दिन रमुवा, अपने बेटे और किसना के साथ, गांव के घाट वाले पुल से गुजरता है, जहां पर कान्हा की निगाह एक बोर्ड पर पड़ती है, जिस पर लिखा होता है 'स्वर्ग द्वार' । कान्हा, अनायास ही नदी किनारे जल रही चिंता और उसके पास खड़े लोगों को देखकर, अपने पिता रमुवा से पूछता है - "बाबू, नीचे कुछ लोग आग जलाकर खड़े हैं और यहां पर स्वर्ग द्वार लिखा है, क्या यहां से स्वर्ग में जाते हैं ।"

रमुवा :" बेटा, ये गांव का घाट है। हर आदमी अपने कर्म को निभाकर , अंत में यहीं पर आता है। हम सबके लिये शुभकामना करते हैं न, इसीलिए यहां पर स्वर्ग द्वार लिखा है । किसी व्यक्ति की मौत हुई है न, उसी की चिता जलाई गई है ।"

कान्हा : "बाबू, क्या हमारे गांव का कोई आदमी मरा है ?"

रमुवा : "हां ।"

किसना : "न ददा, बामणो में से कोई है । ददा, सुना है मुंबई में बस गए थे, लेकिन देखो, अंत में यहीं, गांव के घाट पर आने की इच्छा जताई थी ।"

रमुवा : "ठीक कहता है तू, अपनी जन्मभूमि से कुछ लोगों को बहुत प्यार होता है । जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी ।"

कान्हा : "बाबू, हमारे लोगों को क्या नरक द्वार में लाते हैं ? कहां है वह मैं भी देखुंगा ?"

रमुवा और किसना उसका मुंह देखते रह जातें हैं। करते भी क्या बेचारे? नन्हीं सी जान ने जानलेवा प्रश्र जो पूछ लिया था।

वास्तव में सोचने वाली बात है, हम कितना ही ऊंच-नीच मान लें, अंत में उसी अग्नि से इस शरीर को जलना है, उसी गंगा के पानी में, कहीं न कहीं, सभी को मिलना है, जहां पर सब भेद मिट जाते हैं। मिट्टी का पुतला, मिट्टी में मिल जाता है, शरीर की राख भी पानी-पानी हो जाती है । किन्तु कुछ लोग फिर भी इस वर्ण-व्यवस्था के मकड़जाल में ही फंसे हुए हैं......... रहन-सहन, खान-पान, जात-पात कुछ भी हो, हम सबने तरना है " गांव के घाट" पर ही !



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