STORYMIRROR

NARINDER SHUKLA

Others

4  

NARINDER SHUKLA

Others

लौट आओ काका

लौट आओ काका

11 mins
694

‘नारिंद चलबो .... अम्मा ने हाथ में सूटकेस लेते हुये कहा।‘

‘अम्मा कहां ? अम्मा को जाते देखकर मैं अपने कमरे से बाहर आ गया। ‘

‘बकचुना गाँव में ...। काका बहुत बीमार हैं। लागत है अबकि न बचिहैं। उनके चेहरे पर बेचैनी साफ नज़र आ रही थी।‘ 


मैं अपने दादा जी को काका कहता था। घर पर सभी उन्हें इसी नाम से बुलाते थे। मैंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि लोग उन्हें काका क्यों कहते हैं। 

‘अम्मा, कैसी बातें कर रही हो। काका को कुछ नहीं होगा। थोड़ा बीमार हैं ठीक हो जायेंगे। बुढ़ापे में छोटी - मोटी बीमारियां लगी ही रहती हैं। मैंने अम्मा का हाथ पकड़ते हुये उन्हें सांत्वना देने का प्रयास किया।‘ 

‘बिटवा , काका अब वैसा नाहीं हैं, जैसे आज से बीस साल पहले बीरिंद की शादी मा देखे रहैव। अब वै बूढ़ - पुरनिया होय गा हैं। कमर झुक गई है। दिन भर खांसत रहत हैं। आंखन से दिखाई नाहीं देयत। आवाज़ से मनई पहचानित हैं। ..... तूका बहुत याद करत थीं। पार साल जब हम पुटुर की शादी मा गये रहे तो हमका अकेले में बुला के कहिन नारिंद की अम्मा, नारिंद से कहैव भैया, काका का भुलाय दिहो। अम्मा रोने लगीं।‘ 

‘अम्मा घबराओ नहीं सब ठीक हो जायेगा। तुम चलो, जैसा हाल हो बताना। मैं पेपरों के बाद आने की कोशिश करूँगा। अपना ख्याल रखना। मैंने भारी मन से अम्मा को टैक्सी में बिठाते हुये कहा।‘ 

‘ठीक हैं बिटवा जैसन तुहार इच्छा। उन्होंने साड़ी का पल्लू मुंह,  में खोंसते हुये कहा। उनकी आँखों में आँसू छलक आये थे। उन्होंने अपना चेहरा दूसरी ओर घूमा लिया।‘ पिताजी साथ जा रहे थे इसलिये हम दोनों भाइयों में से कोई स्टेशन नही गया। माँ के आँसू देखकर मेरी आँखों में भी आँसू उमउ़ आये। मैं अपने कमरे में आकर चुपचाप बेड पर लेट गया।

मेरी आँखें हल्के से अपने आप बंद हो गईं। मेरे आगे गाँव की तस्वीर खुल गई। घर, बाबा की कुटिया , खेत - खलिहान व रहट का छलछलाता साफ पानी और मेरे प्यारे काका। काका के साथ बिताया एक - एक क्षण फिल्म की रील की तरह मेरी आँखों के सामने आने लगा। 


बचपन में स्कूल की छुट्टियों में जब हम सब पिताजी के साथ गाँव जाते थे तो रूदौली स्टेशन पर काका, लोटा - डोरी व एक बड़ी सी लाठी लिये हमारा इंतज़ार करते दिखाई देते। हमारी गाड़ी दोपहर तीन बजे स्टेशन पहुँचती थी। वे एक दिन पहले रात को ही चबैना - गुड़ लिये स्टेशन पहुंच जाते थे। रेलगाड़ी के स्टेशन पहुँचते ही मेरी और मेरे बड़े भाई , वीरेंद्र की आँखें स्टेशन पर खड़े लोगों में से काका का ढूंढने लगतीं। काका हमें देखकर बहुत खुश होते। हमें गोदी में लेकर चूमते हुये कहते - ‘भैया मुन्ना आय गयो अपने काका के पास।‘ उनकी छोटी - छोटी आँखों से पवित्र मोती टपक पड़ते। उन्हें देखकर ऐसा लगता जैसे हम दोनों भाइयों को पाकर उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा खज़ाना मिल गया हो। मैं वीरेंद्र से दो साल छोटा था। लिहाजा़ छोटा होने के कारण वे मुझसे अधिक प्यार करते थे। मैं भी उन्हें बहुत चाहता था। मैं तब पांच साल का था और भैया वीरेंद्र सात साल के। हमारे पिताजी बहुत स्ट्रिक्ट थे। बात- बात पर डांट दिया करते थे लेकिन काका के सामने उनकी एक नहीं चलती थी।


एक बार खाना खाते हुये पिताजी ने भाई साहब को कुछ कह दिया। काका बैलों को भूसा डालने जा रहे थे। पलट गये और पिताजी को डांटते हुये कहा - ‘खबरदार , बड़कउ , जो खाना खाते हुये बचवा का कुछ कहा। बच्चा है, बड़ा होय के सीख जाये चम्मचिया से खाना। बड़ा अंग्रेज़ बनत फिरत हो और , तू कौन सा जन्म से सीख के आय रहियो।‘ काका के चार बेटों और दो बेटियों में से पिताजी जी सबसे बड़े थे। उन्हें शर्म आ गई। वे चुपचाप अपने कमरे में चले गये। तब से अब तक पिता जी ने काका के सामने हमें कभी नहीं डांटा। हमारा गाँव रूदौली स्टेशन से कोई लगभग पच्चीस किलोमीटर था। बस की सुविधा नहीं थी। केवल तांगे चलते थे। अम्मा बताती हैं कि बस की व्यवस्था आज भी नहीं है। जीप व टैक्सियां ही चलती हैं। स्टेशन से घर के लिये पिताजी तांगा कर लिया करते थे पर, काका पैदल ही चलते थे। वे तांगे में कभी नहीं बैठे। स्टेशन से ही वे मुझे अपने कंधे पर बैठा लेते। मैं अपनी छोटी - छोटी टांग काका के गले के दोनो साइड करके आराम से उन पर लद जाता और वे लाठी लिये कच्ची सड़कों , घनी अमराइयों व बाग- बागिचों से होते हुये गाँव की ओर चल देते। रास्ते में वे कई जगह आराम के लिये रूकते। पानी पीते और फिर चल पड़ते। रास्ते में चलते - चलते वे मुझसे आग्रह करते - ‘भैया , उ कौन कबिता सुनाय रहो पार साल उहै सुनाय दियो। मैं कहता - कौन सी काका ? वे कहते - उहै मछरी जल कै है रानी । ‘और मैं दोनों हाथ घुमाकर पूरे एक्शन से शुरू हो जाता - ‘मछली जल की है रानी। उसका जीवन है पानी। हाथ लगाओ डर जायेगी। बाहर रखो मर जायेगी।‘


कविता सुनकर वे आत्मविभोर हो आशीर्वाद देते - ‘हमार भैया बड़ा कै होय जाय। अउर अपने काका के लिये घोती - कुरता लावैं। लउबो न भैया वे मेरी ओर घूमकर पूछ लेते।‘ और मैं स्वीकृति में सिर हिला देता। बचपन में मुझे यहां - वहां थूकने की बहुत आदत थी। गाँव वाले घर में , मैं जब भी इधर - उधर थूकता काका हँस कर खरहारे से साफ कर देते। उन्होंने मुझे कभी कुछ नहीं कहा। मेरी बुरी आदतों पर भी वे ढ़ाल बन कर खड़े रहते। मैं अक्सर जंगल - पानी वाले लोटे को साफ पानी से भरी बाल्टी में डाल देता था। पिताजी मेरी इस हरकत पर मुझे आँखें दिखाते लेकिन काका कभी मुझसे नाराज़ नहीं होते थे। बाल्टी मांजते हुये परिवार वालों की तरफ देखकर वे मुस्कराते हुये कहते - ससुरा , मुराही करत है।


 मुझे वह दिन भी याद आया जब भाई साहब के प्री - इंजिनियरिंग में फेल हो जाने पर, पिता जी की मार से डरकर हम दोनो भाई घर से भाग निकले थे। भाई साहब पढ़ने में अच्छे थे लेकिन इंजिनियरिंग अंग्रेजी माध्यम से होने के कारण वे फ़िज़िक्स तथा कैमिस्ट्री के अध्यायों को अच्छी तरह समझ न पाये। घर पर उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा। कारण, पिता जी पढ़ाई न करने के लिये हमें बहुत मारते थे। बड़ा होने के कारण भाई साहब को मुझसे अधिक मार सहन करनी पड़ती थी।


मैं अपने बड़े भाई साहब से आज भी बहुत प्यार करता हूं। बचपन में मैं प्यार का अर्थ नहीं जानता था। लेकिन भाई साहब के हर अच्छे - बुरे काम में आँखें बंद कर के शामिल हो जाता था। इस सिचूएशन में भी किसी की परवाह किये बिना मैं भाई साहब के साथ चल पड़ा। लगभग एक सप्ताह चंडीगढ़ से दिल्ली ,दिल्ली से चंडीगढ़ धक्के खाने के बाद हमें घर की याद आने लगी। घर से चुराये हुये 350 रूपये भी ख़तम होने को थे। लेकिन, वापिस घर जाने की हिम्मत नहीं थी।

मैंने भाई साहब से कहा - ‘चल, वीरेंद्र गाँव चलते हैं। काका के आगे पिता जी कुछ नहीं बोल पायेंगे।‘ वे कुछ नहीं बोले पर भीतर ही भीतर उन्हें मेरा प्रस्ताव ठीक लगा और हम गाड़ी पकड़ कर रूदौली स्टेशन आ गये। शायद , हमारी किस्मत खराब थी कि पिताजी हमें स्टेशन पर ही मिल गये। मुदई चाचा जी भी साथ थे। वे हमें घर से ढूंढ कर आ रहे थे। पिताजी को इस तरह से अचानक स्टेशन पर देखकर हम दोनो भाई बहुत डर गये। हमें लगा कि हमारी नसों में रक्त का प्रवाह बंद हो गया हैं। हम सिर नीचा किये उनके थप्पड़ का इंतज़ार करने लगे लेकिन, उन्होंने हमें एक शब्द भी नहीं कहा। चुपचाप हमारा हाथ पकड़ कर चंडीगढ़ के लिये वापिस गाड़ी में बैठा लिया। हमें बड़ी हैरानी हुई लेकिन, बाद में अम्मा से पता चला कि घर पर काका ने पिताजी को साफ कह दिया था कि बड़कउ अगर बीरिंद - नारिंद को मरबो तो हमार मरा मुँह देखबो।


मैं रोने लगा। पत्नी ने मेरे सिरहाने आ कर पूछा - ‘आठ बज गये हैं। आज खाना नहीं खाना क्या ? सुबह आपको पेपर देने मेरठ भी जाना है। ‘ मैं हड़बड़ा कर उठा - ‘अ अ आठ कैसे बज सकते हैं। मुझे बाज़ार जाना है। कल के लिये कुछ सामान लेना है।‘ मुझे यकीन नहीं हुआ। मैंने घड़ी देखी सचमुच आठ बज गये थे - ‘ओफ ओ दुकानें बंद हो गई होंगी। टुथ - पेस्ट और ब्रश भी लेना है।‘ पत्नी के सवालों को अनसुना कर , मैं अपने आप से बातें करता हुआ सड़क पर आ गया। बाज़ार पहुँचकर देखा अभी दुकानें खुली थीं। करियाना की एक दुकान से मैंने आवश्यक सामान खरीदा और घर आ गया। रात भर मुझे नींद नहीं आई। रह - रह कर काका का चेहरा सामने आ जाता था।


सुबह सात बजे मैं चंडीगढ़ रेलवे स्टेशन से मेरठ के लिये रवाना हुआ और ठीक तीन बजे मेरठ पहुंच गया। मेरा स्टूडेंट, राहुल जिसे मैंने पिछले साल एम बी ए की तैयारी करवायी थी , मुझे लेने के लिये स्टेशन आया हुआ था। उसने मुझे देखा और अपने घर ले आया। घर पर खाना बना हुआ था। उसने कहा - ‘सर , हाथ - मुंह धोकर खाना खा लो। सुबह का खाया हुआ है। भूख लग रही होगी।‘ मैंने कहा - ‘हां राहुल, भूख तो लगी हुई है।‘ वह बोला - ‘आ जाओ सर, फिर देर किस बात की है।‘ मैं हाथ - मुंह धोकर खाने बैठ गया। इस बीच घर - परिवार, पढ़ाई, फिल्म, राजनीति आदि लगभग सभी विषयों पर बातें हुई। खाना खाकर मैं सोने चला गया। शाम को राहुल और मैं बाज़ार गये। रात तकरीबन आठ बजे हमने खाना खा लिया। नौ बजे मैं पढ़ने बैठ गया। अगले दिन इवनिंग शिफट में ‘दो से पांच‘ मेरा पहला पेपर ‘ हिुंदु ला ‘ का था। पेपर की तैयारी तो मैंने पहले ही कर ली थी लेकिन रिविज़न के बिना मैं शून्य था।


मैंने किताबें खोली और पढ़ने लगा। हिुंदु ला के नोटस लिये मैं कमरे में टहल रहा था कि अचानक मोबाइल बज उठा। मैंने देखा गाँव से अम्मा का फोन था। मैंने मोबाइल का बटन आन करके ‘ हैलो ‘ कहा। पीछे से अम्मा के रोने की आवाज़ आ रही थी। मैं सन्नाटे में आ गया। मैंने पूछा - ‘अम्मा क्या हुआ ? ‘अम्मा ने रोते हुये कहा - ‘नारिंद का का काका चले गये। उनके मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे।‘ मैं रूआंसा हो गया। एकाएक मुझे विश्वास नहीं हुआ - ‘ क क् क् कैसे ? क्या हुआ अम्मा ?‘ अम्मा ने रोते - रोते कहा - ‘भैया , काका बहुत बीमार रहे। फैजाबाद अस्पताल मा पिछले चार दिन से भर्ती थे। डाक्टर ने दवाई दी थी। सब ठीक हाय गा रहा। कल हम सब उनका घर भी ले आये थे लेकिन आज शाम चार बजे काका ने अचानक तुहार पापा और हमका एक साथ अपने पास बुलाया। काका चारपाई पर लेटे थे। हम और तुहार पापा वहीं जमीन पर उनके पास बैठ गये।‘


काका ने पापा से कहा - ‘भैया , अब सबका ख्याल रखना। बुलावा आय गवा है । अब जात अहन ।‘ पापा ने उनका हाथ अपने हाथ में लेकर रोते हुये कहा - नहीं काका , आपको कुछ नहीं होगा। आपके बिना हम अनाथ हो जायेंगे। ‘ काका ने पापा के आँसू पोंछते हुये कहा - ‘ न रोओ बड़कउ तू रोवै लगबो तौ नारिंद - बीरिंद की महतारी का कौन संभाले। इ घर कौन संभाले भैया। भैय , एक बात तूसे छुपावा उका पछतावा है।‘

पापा ने सिसकते हुये कहा - ‘ क् क् क्या काका ?‘ ‘भैया , पार साल मुदइया धोखे से हमसे कागज़ पर अंगूठा लगवा के तरई के पुरवा वाली ज़मीन आपने नाम कै लिहिस। काका रोने लगे।‘ कुछ देर रूकर काका ने फिर कहा - ‘भैया , झगड़ा न करना। पांच हजार रूपया अमानीगंज पोस्ट आँफिस  मा जमा है आपन छोटे भाई गरूढ़ का दैय देना। उ बिचारा हमरी तरह अंगूठा छाप है। मुदइया उहके साथ भी बहुत छल किया है।‘ पापा ने सिसकियां लेते उन्हें होंसला दिया - ‘घबराओ नहीं काका। आपको कुछ नहीं होगा सब ठीक हो जायेगा।‘ वे उनके पैर दबाने लगे। हम कहिन - ‘काका , जी हल्कान न करो। हमैं कुछ न चाही। तुहार सारा परिवार एक ही रहेगा। हमउ उनका हाथ पकड़ कर दिलासा दिया । लेकिन उनका हाथ ठंडा पड़ता जा रहा था। सांस फूल रही थी। काका कहिन - ‘खुश रहो बड़ी दुलहिन। कहा सुना माफ़ करिहो। अब जात अहन। उनकी आँखें बंद होने लगीं।‘ शायद , बूढ़ - पुरनिया को अपनी मौत का अंदेशा पहले हाय जात है।

हम कहिन - ‘काका नारिंद का बुलाय दी ? काका कमजोर पड़ती आवाज़ मा कहिन - ‘नारिंद की अम्मा, अब न देख पउबे। आंखन पर परदा पड़त है। अब न देख पउबे। जाइत है ।‘ उनकी आँखों में आँसू थे और बस। काका हम सबका छोड़ के चला गये। अम्मा फफक - फफक कर रो पड़ीं।‘

मेरी आँखों में भी आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। मैं जोर - जोर से रोते हुये अपने - आपको धिक्कारने लगा - ‘हाय मैं कितना स्वार्थी हूं । पिछले बीस बीस साल से लगातार वे मेरे गाँव आने का इंतजार करते रहे और मैं उनसे मिलने न गया। मैं उनकी छोटी सी चाहत भी पूरी न कर पाया। कितनी बार । कितनी बार  उन्होंने चाचा व अम्मा के हाथ संदेशा भिजवाया - नारिंद से कहि दियो काका याद करत हैं। यक बार चेहरा दिखाय जाव।


मैं हर साल जाने - अनजाने में कोई न कोई बहाना बनाता रहा। मैंने एक ऐसे इंसान का दिल तोड़ा है जो प्यार व ममता का सागर था। मेरे लिये उनके मन में असीम प्यार को देखकर सभी आश्चर्य चकित रहते थे कि कोई किसी से इतना प्यार कैसे कर सकता है। मुझे देखकर वे अपना वजूद भूल जाते थे। और मैं कितना मतलब परस्त हूं। मैंने हमेशा केवल और केवल अपने बारे में सोचा। मेरे काका , जो मुझे प्यार से गले में लटकाये यहां - वहां घूमते नहीं थकते थे।हाय अंतिम समय में मैं उन्हें अपना कंधा भी नहीं दे पाया। मैंने उनके निष्ःछल प्यार की कद्र नहीं की ।‘ मैंने शून्य में दोनों हाथ जोड़कर काका से माफ़ी मांगते हुये कहा - काका अपने नारिंद का माफ़ कर दो। एक बार। बस एक बार लौट आओ काका। इस बार मैं गाँव ज़रूर आउंगा। अचानक देखता हूं कि काका लोटा - डोरी व लाठी लिये सामने खड़े हैं और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुये मुस्कराते हुये कह रहे हैं - भैया मुन्ना राजा। जात अहन अब भेंट न होय पाइ।‘

 



Rate this content
Log in