कुछ नहीं बदला

कुछ नहीं बदला

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मण्डप पर कन्यादान का रस्म होना था। पंडित जी के मंत्रोच्चार के साथ रमा अपने अतीत में विचरण कर रही थी।

बिलख पड़ी थी वह जब उसे उसकी दुनिया उजड़ जाने की खबर हुई। रत्नेश ने एक झटके में कह दिया था कि

उसने रमा से विवाह माता- पिता का मन रखने के लिए किया था। अब उसे रमा से तलाक चाहिए था।

‘फिर इसे पैदा करने की जरूरत ही क्या थी, कैसे पाल पाऊँगी इसे’, बच्ची को गोद में लिए घायल हिरणी की तरह

छटपटा कर कहा था रमा ने।


‘समाज में नज़र घुमाओ, कई सीताएँ दिख जाएँगी लव कुश को पालती हुई। तुम भी बन जाओ सीता.....’ कितनी

सहजता से बोलकर निकल गया था रत्नेश।

बेटी को सीने से लगाए रमा को पिता के मकान में आसरा मिल गया। छत के नीचे मौसम के मार से बचती रही

किन्तु समाज के दिए बौछारों में हमेशा भीगती रही। तीज, करवा चौथ का व्रत भी रख लेती क्योंकि समाज ने

कहा, ’पति जिन्दा है, उसके लिए व्रत रखना कर्तव्य है। ’

‘और उसका कर्तव्य,’ रमा चीख-चीख कर पूछना चाहती थी।

बेटी का नाम बड़े प्यार से उसने रमोला रखा था। पिता के होते हुए भी दूसरों के संरक्षण में परवरिश होती गई। ज्यों

ज्यों बड़ी होती गई, माता के मौन चीत्कार को समझने लगी।

एक दिन टेलीविजन पर रामायण देखते हुए कह बैठी, ’माँ, सीता ने लव कुश को राम को सौंपकर अच्छा नहीं किया।

जिन्हें प्यार से पाला उनके साथ आगे भी समय बिता सकती थीं। ’

‘स्वार्थी नहीं थीं सीता, स्त्रियोचित धर्म का निर्वाह किया पर स्वाभिमानी थी तभी तो राम के पास लौट न सकीं,’ रमा

बोली थी।

‘अच्छा माँ, आप भी मुझे पिता को सौंप दोगी’,

‘नहीं, अब समय बदल चुका है,’ कहकर रमा मौन हो गई थी।


पच्चीस वर्ष...हाँ, पूरे पच्चीस वर्षों की तपस्या के बाद आज उसके घर शहनाई बज रही थी।

समाज ने फिर कहा, ‘पिता जीवित है, कन्यादान वहीं करेगा। ’

पिता, जिसने दूध मुँही बच्ची को छोड़ कर विदेश में दूसरी दुनिया बसा ली थी, आज फिर से पिता के किरदार में

उपस्थित था।

शंख और पुष्प के साथ वर के हाथों में पुत्री का हाथ सौंपते ही पिता द्वारा कन्या दान का रस्म संपन्न हुआ। कहीं

एक स्वाभिमान फिर से चटक गया और समाज का सिर पुनः दर्प से ऊँचा हो गया। कहीं कुछ नहीं बदला था आज

भी।



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