मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

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मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

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कम्बल वितरण

कम्बल वितरण

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पिछले दिनों एक नई नवेली संस्था के कार्यक्रम में जाना हुआ । उक्त संस्था कुछ अति उत्साही महानुभावों ने अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए बनाई थी । बेचारों ने अपने ही समाज के लोगों को गुमराह करके मोटा चंदा इकट्ठा कर लिया और आनन-फानन में एक काम चलाऊ अपंजीकृत संस्था गठित करके जातिवादी कार्यक्रम आयोजित कर मारा । यह खबर क्षेत्रीय विधायक जी को लग गई तो उन्होंने सब करे धरे पर पानी फेर दिया । समाजसेवियों ने जाने कितने बड़े-बड़े सपने सजोए, कोई विधायक तो कोई सांसद बनकर अपने समाज की सेवा करने का सपना देख रहा था । खैर उन्होंने हार नहीं मानी और इस बार एक दमदार संस्था का सबसे पहले पंजीकरण कराया और इसकी भनक किसी नेता को न लगने दी। फिर मोटा चंदा इकट्ठा किया, ताकि गरीबों का ज्यादा से ज्यादा भला कर सकें । चंदा देने वालों ने खूब चंदा दिया । उन्हें लगा कि संस्था से जुड़कर विधायकी व सांसदी की टिकट पक्की...।


आगे की कार्य योजना में सभी समाजसेवियों ने कंबल वितरण की योजना बनाई । पंडित जी से कार्यक्रम के लिए शुभ मुहूर्त की तिथि निकलवायी। क्षेत्र में खूब ढोल पीटा ताकि, मोटी मुर्गी हलाल होने उनके पास खुद ही चल कर आये। कार्यक्रम में शासनीय अधिकारियों को मंच दिया गया ताकि सरकारी माल भी आ सके । चवन्नी छाप पत्रकार से लेकर एक रुपए की कीमत वाले हर क्षेत्रीय पत्रकार को पटका पहनाया गया ताकि उनकी संस्था की खबर अगले दिन हर अखबार न्यूज़ चैनल पर दिखे । उधर तालियों की आवाज न के बराबर आ रही थी । वैसे मंच संचालक भर्राये गले से बार-बार गुजारिश कर रहा था, परंतु लोग न जाने क्यों तालियां बजाने में कंजूसी कर रहे थे । मुझसे रहा न गया । मैंने एक माताजी से पूछा “अम्मा ! तालियां क्यों नहीं बजा रही । ये कार्यक्रम तुम्हारे लिए ही है ।”


अम्मा बोली- “हओ...! कढ़ी खाईनैं सबेरे ते जहां बैठरवाय दये हैं । ऐसे नौटंकी करि रहे हैं, जैसे जिनकी बिटियन कौ ब्याह है रहो है। ”

तभी दूसरी अम्मा भी तिलमिला उठी- “जिनकी छाती पे कंड्डा जरें । पूरे 100 रुपया खर्चु है गये किराये भाडे में, जाड़े में मरी सो अलग और कम्बर दे रहे हैं 70-80 रुपट्टी कौ... जाय ओढिकें खाजु हैजागी, खाजु। मोए पतो होती कै नाशमिटे अपने बापकौ कफनु देंगे तो हुं नहीं आती... ।”


दोनों माताओं की गालियां सुनकर मेरी हिम्मत न हुई कि तीसरी से बात करूं कि अम्मा तालियां बजाओ ना । पूरे दो घंटे सम्मान समारोह चलता रहा और कम्बल के हकदार मन ही मन गालियां देते रहे । दें भी क्यों ना... बेचारे सुबह से आस लगाए बैठे थे कि अब कंबल मिलेंगे, तब कंबल मिलेंगे पर कंबल देने वालों को एक दूसरे की पीठ थपथपाने से फुर्सत कहां थी । आखिरकार मियां मिट्ठुओं को कंबल वितरण की सुध आई और कम्बल वितरण कार्यक्रम संपन्न हो गया । दूसरे दिन तमाम जीरो लगाकर खबर छपी, अब गरीबों से डरकर भागेगी सर्दी...।


 कार्यक्रम तो सफलतापूर्वक संपन्न हो गया, परंतु जिन्होंने विधायकी व सांसदी के टिकट के लालच में चंदा दिया था । वे बड़े हताश नजर आये । क्योंकि जनता ने तालियां ही नहीं बजाईं । न जाने क्यों जनता लटके हुए मुंह लेकर कंबल ग्रहण कर रही थी । लोग कम्बल तो ले रहे थे पर कंबल देने वालों को ऐसे देख रहे थे मानो कुंतलों आशीषों की जगह गालियां दे रहे हों...।


एक समाजसेवी ने संस्था के पदाधिकारियों से सवाल दाग दिया "हमने जो हजारों का चंदा दिया और तुम लोगों ने बदबूदार खुजली वाले कंबल बांट दिये, बाकी पैसा कहां गया ? हमें हिसाब दो!"


तभी पीछे से आवाज आई जो ये भव्य सम्मान समारोह हुआ वो क्या नानी के पैसों से हुआ था।



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