Sandeep Sharma

Others

5.0  

Sandeep Sharma

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किरायेदार

किरायेदार

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 "कालू इस बार कोई अच्छा-सा किरायेदार ढूढ़ियो।" राजेन्द्र ने कहा।

"भाई ये कहना तो मुश्किल है कि कौन अच्छा है कौन बुरा है। फिर भी कोशिश करूंगा।" कालू ने इत्मिनान से कहा।

कालू की समझ में नहीं आया कि अच्छा-सा किरायेदार का मतलब क्या है। लेकिन कालू की किस्मत अच्छी थी कि राजेंद्र की। एक शर्मा परिवार को कालू पीछले पांच-सात साल से जानता था। उन्होंने अपना घर बदलना था। कालू राजेन्द्र का घर दिखाने ले गया। दोनों को ही सब-कुछ ठीक-ठाक लगा। दोनों ही ब्राह्मण परिवार। मांस-मछली से दूर। शर्मा जी सुशिक्षित लेकिन राजेन्द्र मिश्रा परिवार बस ऐसे ही था। आधा-अधूरा ज्ञान। लेकिन साहब मकान मालिक है और वह भी राजधानी दिल्ली में। उसके ज्ञान के सामने सब फीके हैं। खैर, तय हो गया। किराया तय हो गया। शर्मा जी ने पहले ही साफ-साफ कह दिया था कि किराये का तकादा मत करना। 

तीस तारीख को शर्मा परिवार मिश्रा के यहां आ गया। एक महीने सब ठीक-ठाक चलता रहा। इसके बाद शुरू हुआ न खत्म होने वाला खेल शुरू हुआ। एक शाम राजेन्द्र की पत्नी सीता आई। बोली - "आंटी प्याज है क्या ? इन्हें न बिना प्याज के खाना अच्छा नहीं लगता।" शर्माइन का मन तो नहीं था। उस समय भी प्याज अस्सी रुपए किलो के भाव से मिल रही थी। फिर यह सोचकर शर्माइन ने एक प्याज की गांठ दे दी की पहली बार मांगने आई है। हां, देते वक्त शर्माइन ने इतना तो कह दिया था कि - "आजकल तो प्याज में आग लगी हुई है।"

"आप चिंता मत करो आंटी। मैं आज तो बाजार नहीं जा पाई थी। कल जाऊंगी तो लेकर आऊंगी। फिर दे दूंगी।" सीता कहकर चली गई।

 थोड़ी देर बाद राजेन्द्र की भतीजी लल्ली आई। बोली - "आंटी मैं दुकान पर गई थी लेकिन टमाटर नहीं मिले। अगर आपके पास टमाटर हों तो दो-तीन  शर्माइन ने दो टमाटर देते हुए कहा - "मेरे पास इतने ही हैं। हां, हरी मिर्च अदरक और लहसुन चाहिए तो दूं।" लल्ली झेंप गई। उससे जवाब देते नहीं बना। चली गई।

 अब यह खेल रोज खेला जाने लगा। शर्मा जी भी परेशान हो गए। किया तो किया क्या जाए। शर्माइन थोड़ा रहम दिल थी। उन्होंने मामले को शांत रखना ही बेहतर समझा। लेकिन शर्माइन ने अब एक काम ऐसा किया कि मकान मालिक के किसी भी सदस्य को यह पता नहीं होने दिया कि वह बाजार से क्या-क्या सामान-सब्जी लाईं हैं। 

मिश्रा परिवार हमेशा इस जुगत में लगा रहता कि कैसे पता चले कि शर्माइन क्या-क्या लाईं हैं। शर्माइन सतर्क हो गई थी। बाजार से आने के बाद कमरा बंद करके सारा सामान फ्रीज में रखे दिया करतीं। लेकिन मिश्रा परिवार के मांगने की आदत गई नहीं। एक रोज़ शर्मा जी ने हिसाब लगाया तो पता चला कि पिछले चार महीने में पंद्रह सौ रुपए की सब्जी चट कर गए हैं मकान मालिक परिवार के सदस्य। दाल, चावल, चीनी, और मसाले तो हिसाब थे ही नहीं। ऐसा करीब-करीब साल-सवा साल चलता रहा। जब तक शर्मा जी वहां रहे। शर्मा जी ने जब अपना फ्लैट खरीदा तो गृह-प्रवेश में मिश्रा परिवार आया। खाली हाथ। शर्मा जी भी संतोषी इंसान थे। अपने नये फ्लैट में जाते समय शर्मा जी ने कोई दो हजार रुपए मिश्रा के रोक लिए। बाद में देने का वायदा करके घर खाली कर दिया।

एक दो महीने तो मामला ठंडा रहा। इसके बाद मिश्रा परिवार फिर हरकत में आया और किसी न किसी बहाने कुछ न कुछ मांगने का सिलसिला शुरू हो गया। अब तो शर्माइन एकदम तलवार खिंचें हुईं थीं। शर्मा जी शर्माइन को अपनी सारी योजना पहले ही बता दी थी। 

जैसा शर्मा जी ने कहा था वैसा ही हो रहा था। शर्माइन भी मिश्रा परिवार की कलाकारियों का आंनद लेने लगीं थीं। शर्मा जी ने भी दो हजार देने में दो साल लगा दिए। दिए सारे, लेकिन किश्तों में। जैसे ही पूरे दो हजार रुपए मिश्रा परिवार को मिल गये उसके बाद मिश्रा परिवार के सदस्यों ने शर्मा जी के यहां आना-जाना बंद कर दिया।



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