खुशियां पिता संग
खुशियां पिता संग
पिता घर का आधार स्तम्भ होता है। ठीक नारियल के समान जो बाहर से कठोर और भीतर से जल के समान निर्मल । मेरे पिता पर तो यह बात शत-प्रतिशत खरी उतरती है।
पापा अनुशासन में बहुत कठोर थे, शायद आर्मी में होने के कारण हम दोनों बहनें पापा से बहुत डरती थीं।
पापा जितने कठोर थे उतने ही भावुक भी थे। उन्हें गज़ल लिखना और सुनना पसंद था अक्सर घर में जब भी कोई खुशी का मौका होता तो गाना गाने का सिलसिला शुरू हो जाता। यही नहीं जो सबसे बेहतर गाता पापा उसे शगुन के तौर पर पैसे भी देते। हम बच्चों में (बुआ, चाचा सभी के बच्चे) भी प्रतियोगिता
शुरु हो जाती।
मुझे पता था कि पापा को ज्यादा गज़ल पसंद है मैं और मेरी बहन जगजीत सिंह की ग़ज़ल सुना देते
कई बार हमने इनाम भी जीते। वो पल बड़े खुशियों से भरे थे। जब तक पापा रहे अक्सर ऐसा माहौल घर में रहता था। सच में वो सबके साथ खुशियां बांटकर जीने वालों में से थे। घर में विवाह आदि के मौके पर तो हम बड़े हाॅल में एक बड़ा सा घेरा बनाकर बैठ जाते। हर सदस्य को कुछ न कुछ प्रस्तुत करना पड़ता। पता है जब फिल्म -हम आपके हैं कौन आई थी और उसमें भी जब वो कुशन फेंकते हैं और जैसे ही संगीत रुकता तो जिसके हाथ में वो कुशन होता उसे कुछ न कुछ प्रस्तुत करना पड़ता । मुझे पापा पर बहुत गर्व हुआ कि देखो कि आज जो पूरी दुनिया ने इस फिल्म में यह देखा होगा वो तो कब से हमारे घर में चलता आ रहा है।
आज पापा हमारे बीच नहीं पर खुशियां बांटकर जीने की उनकी कला हमेशा मेरे चेहरे पर मुस्कराहट बिखेर देती है।