दुनियादारी(लघुकथा)
दुनियादारी(लघुकथा)
"अरे, यह कैसी कामवाली रखी हुयी है तुमने!
न कोई राम-राम, न कोई दुआ सलाम!
चोरों की तरह चुपचाप आती है और कब काम समाप्त करके चली जाती है, किसी को कुछ पता नहीं चलता। कितनी बार कहा, इसे बदल लो, न अक्ल न शक्ल।"
पति की ऐसी बातें बार-बार सुन कर थक-हार चुकी पत्नी क्रोधित होकर बोली, "अच्छी है, सीधी है, पर दुनियादारी सब समझती है।"
एक दिन छुट्टी करके अपने बीमार भाई का पता लेने गई, मुझसे कहती कि बिरादरी में सब देख आये, मैं ही रह गई, जाने दो मैडम मुझे। मैंने छुट्टी दे दी।"
"बेवकूफ बनाकर गई तुम्हें, हँसकर पतिदेव बोले।
"हाँ हाँ! तुम्हारे जैसी नहीं हूँ चुस्त चालाक!"
पर भावनाएं समझती हूँ हर किसी की।"...
"क्या मतलब तुम्हारा? साफ-साफ बोलो।" आवेश में आये पति महोदय चिल्ला कर बोले।
"माँ बीमार है, अस्पताल से हो आई, और हम अभी तक उनका हालचाल फोन पर ही पूछते हैं कभी- कभार, "पत्नी बोली।
"और एक यह कामवाली?
1500रुपये महीना लेती है, सारा घर साफ करती है, कपड़े धोती है, बर्तन मांजती है, और आजकल दोपहर के वक्त कोई काम करने वाली नौकरानी मिलती भी कहाँ है जल्दी, कभी गुस्सा करो, तो भी कुछ नहीं कहती।"
"अभी चार दिन पहले छुट्टी लेकर भाई को देखने गई थी तुम! और अब फिर कल की छुट्टी।"
कामवाली और पत्नी की बातचीत सुनकर पति महोदय बोले, "अब तो पक्की चोरी पकड़ी गई, मैंने तो पहले ही कहा था, यह झूठ बोलती है।"
साहब, "भाई अब मर गया है, वही एक सहारा था, मुझ सीधी सादी का, अंतिम बार छुट्टी दे दो।"
कामवाली दया की दृष्टि से देख रही थी।
