द्राक्षालता- एक ऐतिहासिक कहानी

द्राक्षालता- एक ऐतिहासिक कहानी

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"ऐं क्या कहा अमात्य ? शकराज महादेवी को मांगता है ?" रामगुप्त ने कहा।

"हाँ महाराज, दूत का यही संदेश है। उसका कहना है कि शकराज से महादेवी ध्रुवस्वामिनी का विवाह संबंध पूर्व में स्थिर हो चुका था लेकिन बीच में ही आर्य समुद्रगुप्त की विजय यात्रा में महादेवी के पिताजी ने उपहार में उन्हें गुप्तकुल में भेज दिया।" अमात्य शिखर स्वामी ने बात स्पष्ट की।

"इसका मतलब महादेवी शकराज की थीं। अच्छा इसके अलावा वह कुछ और भी सहायता मांग रहा है....।" यह कहकर रामगुप्त ने द्राक्षासव का पात्र अपने होंठों से लगाया।

"नहीं देव, अपनी इस अशिष्ट याचना-पूर्ति के अलावा वह और कुछ नहीं मांग रहा है"-शिखर स्वामी ने सिर झुकाया।

"तो आपका क्या कहना है अमात्य जी...?" रामगुप्त ने द्वार की तरफ दृष्टि घुमाई।

"महाराज ! मुझे तो आगे गर्त और पीछे कूप नजर आ रही है। शत्रु-पक्ष के संधि-संदेश को अस्वीकार करने पर युद्ध ही एक विकल्प दीख रहा है।" शिखरस्वामी ने जवाब दिया।

"युद्ध ! ओ... मुझे इस युद्ध शब्द से घृणा है। कितनी क्षति होगी युद्ध से ! तमाम बेगुनाह मारे जायेंगे... आर्थिक क्षति अलग से होगी... । महादेवी का क्या है वह तो द्राक्षालता हैं इस वृक्ष पर नहीं तो उस वृक्ष पर...क्यों अमात्य....।" पुनः मदिरा पीने लगता है।

"देव ! महादेवी गुप्तकुल की मर्यादा हैं, लेकिन राष्ट्र हित सर्वोपरि है।" शिखर स्वामी ने कहा।

"ओ अमात्य.... आप जाइये। हमें आराम चाहिए। कल हम इस संबंध में विचार करेंगे।" रामगुप्त पुनः द्वार की ओर दृष्टि डालता है।

"जी देव ! अवश्य..।" शिखर स्वामी चला जाता है।

"दिग्विजयी, ओ दिग्विजयी...!" दासी को आवाज लगाता है।

"जी महाराज !" दासी दौड़ती हुई आती है।

"जाओ, कामदेवी को लेकर आओ।"

"जो आज्ञा महाराज।" दासी जाती है और रामगुप्त मदिरा के एक के बाद एक कई घूंट पी जाता है।

कुछ ही क्षणों में दासी अल्प वस्त्र धारण की हुई अतीव सुंदर व मोहक छवि वाली युवती कामदेवी को लेकर आती है और उसे द्वार पर छोड़कर स्वयं वापस चली जाती है। रामगुप्त कामदेवी को नृत्य करने का आदेश देता है और वह नृत्य करने लगती है। रामगुप्त मदिरा पात्र हाथ में लिए मदिरामय नेत्रों से उसके नख से शिख तक के अंग-प्रत्यंग, भाव-भंगिमा का सूक्ष्म अवलोकन करता है। बीच-बीच में 'वाह, सुंदरी वाह' का उद्बोधन शिविर कक्ष के भीतर गूंजता है।


***


ऊंची-नीची पहाड़ियों के मध्य से निर्झर झर-झर करता हुआ बह रहा है। झरने के नीचे मालिनी और मधुलिका जलक्रीड़ा कर रही हैं। झरने के ताल में मछली-सी तैरती दोनों सखियाँ आपस में बातचीत कर रही हैं।

मधूलिका- "सखी, ये राजा-महाराजा किसी के नहीं होते !"

मालिनी- "संगिनी, ऐसा क्यों कह रही हो ?"

मधूलिका- "सखी मैंने सुना है कि महाराज शकराज ने संधि हेतु गुप्त राजा से उनकी अर्धांगिनी की मांग की है। सुनने में तो यहाँ तक आया है महाराज उससे प्रेम करने लगे हैं।"

मालिनी- "अगर तुमने सुना है तो सच ही होगा।"

मधूलिका- "फिर भी तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।"

मालिनी- "प्रेम त्याग, तपस्या और समर्पण मांगता है। मैं महाराज से प्रेम करती हूँ। मेरा प्रेम निस्वार्थ है मधूलिके। मैं अब महाराज की हो चुकी हूँ और जीवन भर उन्ही की रहूंगी।"

मधूलिका- "तुम प्यार में अंधी हो चुकी हो।"

मालिनी- "प्यार अंधा ही होता है सखी।"

यह कहकर मालिनी ताल से बाहर आ गई। उसके पीछे-पीछे मधूलिका भी। दोनों की देह में बसंत आ चुका था। वह कभी उनके गीले उत्तरीय के भीतर से मुस्कुराता हुआ दीखता तो कभी अंतरीय के हिलने-डुलने से बाहर झांकता नजर आता। उनके ताल से बाहर आते ही ताल स्थिर हो चुका था। मानो उससे उसकी सारी खुशियाँ छीनी जा चुकी हों।


***


शकराज के दुर्ग के समीप एक सुंदर उपवन था। उपवन में आम्रकुंजों के अलावा गुलाब, चंपा, चमेली, गेंदा आदि तमाम तरह के फूलों के बगीचे थे। उपवन में इस वक्त पंछियों की चहचहाट के अलावा किसी कन्या की हल्की-हल्की ध्वनि सुनाई दे रही थी। यह कन्या कोई और नहीं बल्कि मालिनी थी, जो उपवन में बैठी हुई गीत गुनगुना रही थी-


माथे से मेरी बिंदिया लेकर

नयनों से मेरी निंदिया लेकर

प्रिय तुम कहाँ गये ?


मैं मुरझाई, मैं अलसाई

तेरी चाह में, मैं भरमाई

मेरा केश रंग श्याम लेकर

मेरे हिय का आराम लेकर

प्रिय तुम कहाँ गये ?


उपवन में उदासी है

बिन तेरे मीन प्यासी है

मेरी मृदुल ओष्ठ चहक लेकर

मेरी कपासी देह महक लेकर

प्रिय तुम कहाँ गये ?


गीत समाप्त होते ही वह स्वत: बुदबुदाने लगती है- "मधु ठीक ही तो कह रही थी। आजकल कितने बदल गये हैं वो....!"

अचानक ही शकराज का आगमन होता है- "मालिनी ! तुम यहाँ बैठी क्या कर रही हो ?"

मालिनी- "कुछ नहीं महाराज बस यूँ ही.. आप बताइये क्या आज्ञा है ?"

शकराज- "मैं सोच रहा हूँ कि दुर्गम अभी क्यों नहीं आया। कहीं रामगुप्त के सैनिकों ने उसे पकड़ तो नहीं लिया ?"

मालिनी- "आ जायेगा महाराज। आप चिंता ना करें।"

तभी दुर्गम अपने सैनिकों सहित आ जाता है।

दुर्गम-"महाराज की जै हो।"

शकराज-"कहो दुर्गम क्या समाचार लाये हो ?"

दुर्गम- "महाराज, उन्होंने एक दिन का समय मांगा है। जल्द ही वे हमें सूचित करगें।"

शकराज- "अच्छा। बहुत खूब। कल तक इंतजार कर लेते हैं। तब तक के लिए सेना को सचेत कर दो।"

दुर्गम- "जो आज्ञा महाराज !"

दुर्गम चला जाता है। शकराज और मालिनी आपस में बातचीत करने लगते हैं।


***


रामगुप्त भीतर से निश्चिंत है, किंतु चेहरे पर चिंता के भाव हैं। उसके समीप ही महादेवी ध्रुवस्वामिनी विराजमान है। शिखर स्वामी इनसे कुछ दूरी पर बैठे हुए कुछ सोच रहे हैं। शिविर कक्ष में नि:शब्दता छाई हुई है। अचानक ही शिखर स्वामी इस नि:शब्दता को तोड़ता है- "क्षमा करें देव, मैं आपका निर्णय जानने के लिए उत्सुक हूँ।"

"निर्णय ! निर्णय क्या अमात्य ! निर्णय हम पहले ही ले चुके हैं। अपना सर्वस्व लुटाकर भी प्रजा की रक्षा करो। राजनीति यही तो कहती है। क्यों आमात्य ?" शिखर स्वामी की ओर देखकर सवाल करता है।

"सही कहा देव किंतु महादेवी आपकी अर्धांगिनी हैं। आपको इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।" शिखर स्वामी ने महादेवी की ओर देखकर कहा।

"गंभीरता.... हाँ.... गंभीरता.... आमात्य आपको पता है। हम बिना आसव ग्रहण किये सही निर्णय नहीं ले पाते।" मदिरा पात्र खोलकर पीने लगता है। महादेवी उसकी ओर घृणा की दृष्टि से देखती है।

"अब हम हिजड़ों, कुबड़ों और बौनों का नृत्य देखना चाहेंगे....।" रामगुप्त मदिरा पात्र पुनः होठों में लगाता है।

"क्षमा करें देव निर्णय लेना आवश्यक है, वरना दुश्मन के आक्रमण का भय है। नृत्य आप निर्णय के पश्चात देख लीजिएगा।" शिखर स्वामी ने सचेत किया। "आमात्य ! हम निर्णय लेंगे। इसीलिए तो हम वातावरण तैयार कर रहे हैं। सही निर्णय के लिए सही वातावरण होना आवश्यक है.. अच्छा कामदेवी को ही आमंत्रित कीजिए...कामदेवी ओ कामदेवी..!" स्वयं कामदेवी को आवाज लगाता है।

ध्रुवस्वामिनी, जो अभी तक रामगुप्त की कायरता और विलासिता पर भीतर ही भीतर आक्रोशित हो रही थी, उठ खड़ी हुई- "महाराज, आप निर्लज्जता और विलासिता की पराकाष्ठा को पार कर रहे हैं..!"

"महादेवी... ठीक है। मैं कामदेवी को नहीं बुलाता। सोचता हूँ..."- चिंतन की मुद्रा बनाता है फिर शिखर स्वामी की ओर देखता है- "बताइये आमात्य जी ! आपका क्या कहना है इस विषय पर... ?"

"मैं क्या कहूँ देव ! मैं स्वयं असमंजस की स्थिति में हूँ। शिविर दोनों ओर से घिर चुका है। अब एक ही उपाय है या तो दुश्मन की बातें मानिए या मरकर भी अपनी कुल मर्यादा की रक्षा कीजिये। निर्णय आपको लेना है...।" शिखर स्वामी ने कहा।

"क्या ! और कोई उपाय नहीं। ऊँ हूं तब तो महादेवी से पूछिए-" रामगुप्त ने कहा।

"महादेवी से पूछिए ! आप क्या पूछेंगे महादेवी से। मैं स्वयं पूछती हूँ आप लोगों से। गुप्त कुल की मर्यादा को शत्रु शिविर में भेजने के विचार से ही आप लोगों के रोंगटे खड़े नहीं होते ? आखिर हो क्या गया है आप लोगों को ?"- महादेवी ने कहा।

रामगुप्त झेंपता है और आसव की घूंट हलक से नीचे उतारते हुए कहता है- " महादेवी, आप ही बताइये मैं क्या करूँ ? युद्ध करूँ ? स्वयं को और स्वयं की जनता को अग्निकुण्ड में झोंक दूं ? ना-ना यह मुझसे नहीं होगा !!"

"आपसे कुछ नहीं होगा महाराज! गुप्त कुल की मर्यादा और सम्मान का अंत करने के सिवा आपसे कुछ नहीं होगा"-ध्रुवस्वामिनी ने उदास होकर ने कहा।

"आमात्य ! देखिए, क्या कह रहीं हैं महादेवी! अगर हमने राज्य हित में दुश्मन की संधि शर्तों को मान लिया तो क्या हमने गुप्त कुल के सम्मान का अंत किया ? बताइये आमात्य ?- " रामगुप्त ने कहा। शिखर स्वामी मौन है। ध्रुवस्वामिनी शिखर स्वामी की ओर देखकर कहती है- "आमात्य, आप कुछ क्यों नहीं कहते ?"

शिखर स्वामी- "क्या कहूँ महादेवी ! मैं स्वयं राजधर्म से बंधा हुआ हूँ।"

"आमात्य कुछ तो जवाब दीजिये... क्या कहता है आपका राजधर्म... बताइये...?"- ध्रुवस्वामिनी ने सवाल किया।

"महादेवी, राजधर्म कहता है कि संकट के समय राजा निजी हितों की कुर्बानी देकर भी राज्य की रक्षा करे"- शिखर स्वामी ने जवाब दिया।

"आमात्य आप भी.. आपसे हमें यह उम्मीद न थी...सब गुप्त कुल की मर्यादा को नीलाम करने पर तुले हुए हैं.. आमात्य आप अपने मंत्रणा गृह में जायें। मैं रानी से पहले एक स्त्री हूँ। एक स्त्री अपने पति से कुछ कहना चाहती है। आप जायें..."- ध्रुवस्वामिनी निराश हो उठती है।

शिखर स्वामी चला जाता है। ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त से कहती है- "प्रिय ! देखिए मेरी ओर.. क्या मैं आपकी अर्धांगिनी नहीं हूँ !!"

"महादेवी...युद्ध से श्रेष्ठ है कि हम संधि की शर्तों को मानकर तुम्हें दुश्मन को उपहार स्वरूप भेंट दे दें। तुम्हें वहाँ किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होगा। नारी द्राक्षालता के समान है जिसे अपने जीवन में अनेक पुरुषों का सहारा लेना पड़ता है। तुम वहाँ आनंद से रहोगी। फिर तुम्हारे साथ तुम्हारी सखियाँ भी तो उपहार में दी जा रही हैं"-रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी को मनाने का प्रयास करता है।

"हे देव ! दया करो। मैं आपकी हूँ। गुप्त कुल की वधू बनकर इस राजपरिवार में आई हूँ। मुझे इस तरह मत ठुकराओ..."- रामगुप्त के चरणों में गिर पड़ती है।

"दूर हटो... मुझे यह सब नहीं सुनना"- रामगुप्त दो कदम पीछे हट जाता है।

"स्वामी ऐसा मत कीजिये । आप इतने हृदयहीन और निष्ठुर कैसे हो सकते हैं ! एक पुरूष भला कैसे अपनी पत्नी का विक्रय कर सकता है ! नहीं यह नहीं हो सकता। यदि आप मेरी रक्षा नहीं कर सकते, आर्य समुद्रगुप्त का मान, अपनी कुल मर्यादा और नारी का गौरव नहीं बचा सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते हो।

नारी न तो द्राक्षा है और न द्राक्षालता। पुरूषों ने उसे द्राक्षालता बनने के लिए मजबूर किया है, लेकिन मैं द्राक्षालता नहीं बनूंगी। हाँ, मैं स्वयं यहाँ से कहीं दूर चली जाऊंगी... "- ध्रुवस्वामिनी ने कहा।

" नहीं, तुम अब कहीं नहीं जा सकती। तुम उपहार में देने की वस्तु हो। आज मैं तुम्हें किसी दूसरे को भेंट करना चाहता हूँ, तो तुम्हें आपत्ति क्यों हो ? मैं राजा हूँ..."-रामगुप्त ने कहा।

"राजा... आप राजा नहीं असुर हो... निर्लज्ज असुर...! मैं अब जान चुकी हूँ कि मेरा कोई रक्षक नहीं है। मैं अपनी रक्षा स्वयं करूंगी ! मैं न तो उपहार में देने की वस्तु हूँ और न ही द्रक्षालता। मेरे हृदय में भावनाओं की नदी बहती है। विचारों में आत्मसम्मान की लौ जगमगाती है। मैं दिखाऊंगी आपको कि नारी द्राक्षालता नहीं, बल्कि वटवृक्ष है, जिसकी शीतल छांव तले सम्पूर्ण जगत चैन की नींद सोता है"-

कटि से कटार निकालती है।

"महादेवी, आप मारेंगी मुझे ! अपने प्राणेश्वर को मारेंगी आप...बचावो.. बचावो.... "- चिल्लाता हुआ भागता है।

"ओह, आप तो मेरे पति परमेश्वर हैं। नहीं-नहीं आपको नहीं मार सकती। मैं स्वयं की ही जीवन लीला समाप्त कर देती हूँ। ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बांसुरी।"- वह कटार की ओर देखती है।

इसी वक्त कुमार चंद्रगुप्त का तीव्रता से आगमन होता है।

"क्या हुआ महाराज, आप कहाँ भाग रहे हैं ?"- चंद्रगुप्त अपने भ्राता से पूछते हैं।

"देखो ना चंद्र ! देखो ना ! महादेवी मुझे मारना चाहती है"- ध्रुवस्वामिनी की ओर इशारा करके कहता है।

ध्रुवस्वामिनी की दृष्टि चंद्रगुप्त पर पड़ती है।

"ओह कुमार, तुम्हें भी इसी समय आना था... अब मैं क्या करूँ... "-दुविधा की स्थिति में आ जाती है।

" महादेवी ये कटार मुझे दे दीजिए.. आप ऐसा नहीं कर सकतीं.."-ध्रुवस्वामिनी के हाथ से कटार छीन लेता है।

"कुमार ! तुम क्यों आये ? तुम्हें देखते ही मुझे अंधेरे में रोशनी नजर आने लगती है। महाराज से मुझे अब कोई उम्मीद नहीं। ये तो मुझे विक्रय की वस्तु समझकर दुश्मन के गले का हार बनाना चाहते हैं..ओह कितनी अभागी हूँ मैं...."- ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त को स्थिति से अवगत कराती है।

"देव ! क्या यह सच है ?"- चंद्रगुप्त रामगुप्त से पूछते हैं।

रामगुप्त- "हाँ, तो इसमें बुरा क्या है ? ध्रुवस्वामिनी मेरी पत्नी हैं। मैं उन्हें बेचूँ या ना बेचूँ ! यह मेरा निर्णय है।"

चंद्रगुप्त- "धिक्कार है आपको ! ऐसी बात करते हुए आपको शर्म नहीं आती।"

रामगुप्त- "ही ही ही... शर्म... शर्म तो चंद्र तुम्हें आनी चाहिए। अब मैं निर्णय ले चुका हूँ।"

चंद्रगुप्त- "महाराज लगता है आप गुप्त वंश की प्रतिष्ठा को धूमिल करके ही छोड़ेंगे, लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। महादेवी आप चलिए यहाँ से..।"

चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी चले जाते हैं। रामगुप्त ठगा सा रह जाता है।


***


रात्रि का समय है। चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी के मध्य किसी योजना पर बातचीत चल रही है।

ध्रुवस्वामिनी- "कहीं शकराज ने आपको पहचान लिया तो..?"

चंद्रगुप्त- "आपको अब भी हम पर शक है देवी !"

ध्रुवस्वामिनी- "शक नहीं, भय है क्योंकि हम आपको खोना नहीं चाहते हैं।"

चंद्रगुप्त- "तो इस भय को आप अपने हृदय से निकाल फेंकिए। निश्चय ही विजय श्री हमारा वरण करेगी।"

ध्रुवस्वामिनी- "क्या आपको पूर्ण विश्वास है कुमार ?"

चंद्रगुप्त- "नि:संदेह महादेवी ! कल सूर्य अस्त होने के साथ-साथ शकराज के जीवन का सूर्य भी अस्त होगा और शक दुर्ग पर हमारा पूर्ण आधिपत्य होगा।"

ध्रुवस्वामिनी- "ईश्वर करे ऐसा ही हो....।"


***


दूसरे दिन प्रातः ही रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी और उसकी सौ सखियों को शकराज के दुर्ग में भेज देता है और स्वयं सुरापान में व्यस्त हो जाता है। वह समझ नहीं पाता कि आखिर एक ही रात में ध्रुवस्वामिनी में इतना परिवर्तन कैसे आया ? वह कल तक तो शकराज के दरबार की शोभा बनने से साफ मना कर रही थी और आज प्रातः स्वयं आकर वहाँ भेजने का आग्रह करने करने लगी। जरूर दाल में कुछ काला है। खैर चाहे दाल में काला हो या फिर पूरी दाल ही काली हो, हित तो मेरा ही है। मैंने संधि की समस्त शर्तें पूरी कर ली हैं। ध्रुवस्वामिनी सहित सभी उपहार की वस्तुएँ दुश्मन को भेज दी हैं। अब युद्ध से मैं पूरी तरह बच गया। ओह... कितनी सुखद घड़ी है मेरे लिए। कामदेवी... ओ कामदेवी..... कामदेवी आती है और गीत गाती हुई नृत्य करती है-

"मैं द्राक्षा मीठी-मीठी, तू मुझे चख ले।

हूँ तेरी देह वल्ली, तू मुझे रख ले।

यौवन का जाम ऐसा कि छलकता जाये

वस्त्रों से दिव्य रूप धन झलकता जाये

भूप से बनकर चोर तू मुझे चख ले।


रामगुप्त कामदेवी को आलिंगनबद्ध करने का प्रयास करता है, किंतु सुरा के नशे में चूर होने के कारण गिर पड़ता है।


***


उधर शकराज को जब पता चलता है कि गुप्त राजा ने उसकी सारी शर्तें मान ली हैं और ध्रुवस्वामिनी आज ही रात्रि में उसकी हो जायेगी, तो वह फूला नहीं समाता।

शकराज- "इस सुंदर समाचार के लिए मैं तुम्हें 100 स्वर्ण मुद्राएँ पुरस्कार में देता हूँ।"

दुर्गम- "धन्यवाद महाराज। दूत का यह भी कहना है कि ध्रुवस्वामिनी के साथ सौ सामंत कुमारियां भी हमारे दुर्ग की ओर प्रस्थान कर चुकी हैं।"

शकराज- "तो जाओ। जश्न की तैयारी शुरू करो। आज की रात हमारे विजय की रात होगी।"

दुर्गम- "जो आज्ञा महाराज !"

दुर्गम चला जाता है। तीव्र कदमों के साथ मालिनी का आगमन होता है।

मालिनी- "महाराज, आपकी विजय के लिए आपको बधाई, किंतु महाराज क्या मालिनी के प्रेम का कोई मोल नहीं ?"

शकराज- "प्रिये, तुम मेरी हो और मेरी ही रहोगी। इन सुखद पलों के समय यह प्रश्न क्यों ?"

मालिनी- "महाराज, मुझे आपकी चिंता है। आप गुप्त राजवंश की कुलवधू का कहीं अपमान तो नहीं कर रहे ?"

शकराज- "कैसा अपमान प्रिये ?"

मालिनी- "महाराज, दूसरे की पत्नी को अपनी पत्नी बनाना कहाँ तक उचित है ? शास्त्रों में इसे निंदनीय बताया गया है।"

शकराज- "राजा के लिए कुछ भी निंदनीय नहीं है मालिनी।"

मालिनी- "महाराज, आप सचेत रहें। दुश्मन को अपने से कम ना आंकें। संसार का प्रत्येक व्यक्ति आपके अहित के विषय में सोच सकता है किंतु मालिनी नहीं, क्योंकि वह आपसे सच्चा प्रेम करती है। सच्चा प्रेम कभी प्रतिदान नहीं मांगता। आप भले ही किसी और के हो जाएं किंतु मालिनी के हृदय पटल पर सदैव आपकी की छवि अंकित रहेगी।"

यह कहते हुए उसके नेत्रों से अश्रुकण छलक पड़ते हैं।


***


ध्रुवस्वामिनी सौ सहेलियों सहित शकराज के दुर्ग के समीप पहुँच चुकी है। सबसे आगे ध्रुवस्वामिनी है और उसके साथ ही स्त्री वेश में चंद्रगुप्त। उसके बाद स्त्री वेश धरे शिखर स्वामी और सामंत कुमारों का काफिला। शकराज ने ज्यों ही ध्रुवस्वामिनी का घूंघट खोला, त्यों ही चंद्रगुप्त ने कटार के एक ही वार से उसे परलोक पहुंचा दिया। उसी समय अमात्य शिखर स्वामी सहित सभी सामंत कुमारों ने शक सैनिकों पर हमला बोल दिया। चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी की जै के नारों से वातावरण गुंजायमान हो उठा। थोड़ी ही देर में समस्त शक सैनिकों ने हथियार डाल दिए और दुर्ग पर चंद्रगुप्त ने कब्जा कर लिया। मालिनी के आग्रह पर शकराज का शव उसे दे दिया गया। वह उसके शव को गले से लगाकर घंटों रोती रही- "कहा था ना, पर स्त्री का अपमान मत करो.. अब कैसे जिऊंगी आपके बिना मैं.. ऐ बेरहम वक्त क्यों नहीं हर लेता मेरे भी प्राण....?"


***

शकों पर विजय के उपरांत चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी ने विवाह बंधन में बंधने का निर्णय लिया। इस विवाह से सर्वाधिक आपत्ति राजपुरोहित को थी। उनका मानना था कि पहले पुरुष के रहते हुए पत्नी दुसरा विवाह नहीं कर सकती।

चंद्रगुप्त- "क्यों नहीं कर सकती पुरोहित जी। जब पति अपनी ही पत्नी के मान-सम्मान की धज्जियाँ उड़ाने पर तुला हुआ हो !"

राजपुरोहित- "क्योंकि यह बात शास्त्रों के विरूद्ध है। स्त्री और पुरूष का बंधन सात जन्मों का है।"

ध्रुवस्वामिनी बीच में बोल पड़ती है- "अच्छा तो अभी आपको सात जन्मों के बंधन की याद आई। मैं पूछती हूँ कि जिस समय हमारे महान पति परमेश्वर महाराज ने हमें शकराज की शैय्या की शोभा बढ़ाने के लिए भेज दिया था, तब आप कहाँ थे। कहाँ था आपका शास्त्र ? सदियों से पुरुष स्त्री को अपनी गौशाला की गैया समझता रहा है। ऐ गुप्तवंश के क्लीब शासक मैं तुम्हें भी बता देना चाहती हूँ कि मैं तुम्हारी गौशाला की गैया नहीं हूँ। मैं उपहार की वस्तु भी नहीं हूँ और न ही मैं द्राक्षालता हूँ। मैं सिंहनी हूँ। मैं प्रेम की वस्तु हूँ। मैं वटवृक्ष हूँ। मैं तुझ जैसे कायर, क्लीब और मद्यप को गुप्त वंश का शासक मानने से इनकार करती हूँ।"


राजपुरोहित निरूत्तर हो जाता है। रामगुप्त किंकर्तव्यविमूढ़ होकर देखा रह जाता है- "ऐं... ई क्या हो गया शिखर ? कैद कर लो इस नीच अबला को !"


शिखर स्वामी सिर झुका लेता है।

चंद्रगुप्त- "भ्राता ! अब आपका कोई साथ नहीं देगा। आपने गुप्त वंश के गौरव पर कालिख पोतने की कोशिश की है। इसके लिए आप क्षमादान के भी पात्र नहीं हैं।"

रामगुप्त- "तू भाई है मेरा या कुछ और...।"

रामगुप्त चंद्रगुप्त पर वार करने की कोशिश करता है, किंतु उससे पहले ही एक सामंत कुमार का अस्त्र उसके सीने को पार कर जाता है। धरती पर गिरते ही उसके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। उसी समय कुछ सामंत कुमार राजा चंद्रगुप्त की जै और महादेवी ध्रुवस्वामिनी की जै के नारे लगाते हैं।


***

विवाह बंधन में बंधने के बाद चंद्रगुप्त पाटलिपुत्र के सिंहासन पर आरूढ़ होते हैं। उनके साथ उनकी अर्धांगिनी महादेवी ध्रुवस्वामिनी भी सिंहासन पर आरूढ़ होती हैं। शिखर स्वामी आमात्य के रूप में और अधिक सराहनीय कार्य करता है। सम्राट चंद्रगुप्त ने पूर्व में बंगाल से लेकर उत्तर में बल्ख प्रदेश तथा उत्तर-पश्चिम में अरब सागर तक के समस्त प्रदेशों में विजय प्राप्त की और विजयों से प्रसन्न होकर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।

चंद्रगुप्त जब भी अपने साम्राज्य विस्तार के अभियान पर निकलते थे, तब राज्य का शासन महादेवी ध्रुवस्वामिनी संभालती थीं। वह एक प्रजाप्रेमी शासिका थी। रामगुप्त की उपेक्षित द्राक्षालता अब वटवृक्ष बन चुकी थी। एक ऐसी वटवृक्ष जिसकी छांव में सम्पूर्ण गुप्त साम्राज्य निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर था।


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