दास्तां लग्नेत्तर इश्क की
दास्तां लग्नेत्तर इश्क की
पारस और सगाई दिव्या की सगाई के दस दिन बाद पारस ने दिव्या से मिलने के लिए कहा, दिव्या परिवार की अनुमति लेकर मिलने गई, मगर आस्था साथ गई, क्योंकि दिव्या की मां उसे अकेले नहीं जाने देना चाहती थी।
दिव्या ने आते ही आस्था से मिलवाया, पारस आस्था को देखता ही रह गया, दिव्या का गोरा- चिट्टा रंग, आस्था सांवला रंग, दिव्या का भरा -भरा बदन, और आस्था नार्मल सी मगर तीखे नैन-नक्श, पारस तो आस्था में ही खो गया । दिव्या ने पारस को दो बार पुकारा तब जाकर पारस को जैसे होश आया हो।
आस्था," हैलो जीजु"
,"आस्था, प्लीज़ मुझे पारस कहो"
,"ओ.के. पारस "
इस तरह अक्सर पारस दिव्या को मिलने के लिए किसी रेस्टोरेंट या पार्क में बुलाता और आस्था भी साथ होती, वो दिव्या की बेस्ट फ्रेंड थी, एक दिन आस्था को बुखार था, दिव्या के साथ उसका छोटा भाई गया, पारस ने आते ही, " दिव्या आज आस्था क्यों नहीं आई"?
"उसे बुखार है "
ये सुनकर पारस का चेहरा उतर गया,"ओह" उस दिन पारस को अच्छा नहीं लग रहा था। पारस रात भर सो नहीं पाया, उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है, उसने महसूस किया कि शायद उसे आस्था से प्रेम हो गया है। सुबह होते ही उसने दिव्या से आस्था का हाल जानने के लिए आस्था का फोन नम्बर लिया।
" हैलो कैसी हो आस्था"
" मैं ठीक हूं, मगर आप कौन हैं? और आपके पास ये नम्बर कैसे आया"? एक ही सांस में बोल गई आस्था।
" अरे,अरे , सांस तो लो, बताता हूं, मैं पारस हूं, और दिव्या से मैंने तुम्हारा नम्बर लिया है"!
और दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे, अब तो अक्सर पारस आस्था को फोन कर देता और दोनों घण्टों बातें करते रहते, धीरे-धीरे आस्था को भी पारस से लगाव सा महसूस हुआ, मगर वो उसकी बेस्ट फ्रैंड का मंगेतर है, ये सोचकर वो अपना कदम पीछे खींच लेती। एक दिन पारस, दिव्या और आस्था तीनों ही पिक्चर देखने गए तो पारस दिव्या के बजाए आस्था की साइड जाकर बैठ गया, ये देख दोनों को हैरानी हुई, तो पारस ने कहा, " अरे हम दोनों तो सगाई करके सेफ हो गए, मगर आस्था तो अभी सिंगल है ना, अगर कोई इसके साथ आके बैठ जाएं और बदतमीजी करें तो? इसका ध्यान हमें रखना है ना, एक तरफ तुम बैठो एक तरफ मैं"!
पिक्चर के दौरान एक -दो बार पारस ने आस्था को छू लिया और सॉरी कह दिया कि वो भूल गया था कि उसके साथ वाली सीट पर दिव्या नहीं आस्था है। आस्था और दिव्या ने इसे नार्मल लिया।
आखिर शादी वाला दिन भी आ गया, शादी की तैयारियां चलने लगी दोनों घरों में, इधर दिव्या बहुत खुश थी, मगर पारस को जैसे कोई कमी महसूस हो रही थी, उसके चेहरे से वो खुशी नहीं झलक रही थी, जो दिव्या के चेहरे पर थी।
शादी हुई, दिव्या और पारस की गृहस्थी की गाड़ी चल पड़ी। पारस और आस्था को चैन नहीं, दोनों अक्सर घण्टों फोन पर बातें करते,कभी दिव्या के सामने तो कभी दिव्या से चोरी।
दिव्या के पांव भारी हो गए, सब परिवार के लोग बेहद खुश थे, पारस की मम्मी नहीं थी, परिवार के नाम पर पारस और उसके पापा ही थे, दिव्या की तबीयत अक्सर खराब रहने लगी, तो उसकी देखभाल के लिए पारस कभी-कभी आस्था से आने को कह देता, आस्था भी पारस की नजदिकियां तो चाहती ही थी, ये तो सोने पे सुहागा हो गया। पारस को भी मन चाही मुराद मिल जाती, दिव्या तो रूम में रहती, पारस किचन में किसी ना किसी बहाने जाता और आस्था के आसपास मंडराता, साथ में कभी -कभी उसे छू लेता था , मगर अब आस्था को उसका छूना अच्छा लगता, वो कुछ ना कहती,तो पारस की हिम्मत भी बढ़ जाती, कभी उसे प्यारी साली कहता और कभी मेरी बीवी की जान तो मेरी भी जान हुई ना, ऐसे कहता और इसी बहाने कभी उसे बाहों में भी भर लेता था। आस्था का आनाजाना लगा रहता।
आज दिव्या को नोवां महीना लग गया तो पारस," दिव्या, आस्था को बुला लेना चाहिए अब हमें, डिलिवरी कभी भी हो सकती है"!
" नहीं, हर समय आस्था को क्यों परेशान करें, और अब तो मुझे भी थोड़ा चलने को डाक्टर ने कहा है, ताकि डिलिवरी और आसान हो जाए, जिस दिन अस्पताल जाना होगा, तब बुला लेंगे, आपका और पापा का ख़्याल रखने के लिए"
पारस बेसब्री से डिलिवरी के दिन का इंतजार कर रहा था, इधर आस्था बेकरार। आ गया वो समय भी जिसका दो मूक प्रेमी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, दिव्या को अस्पताल छोड़कर पारस आस्था को ले आया। सभी अस्पताल पहूंच गए थोड़ी देर में डिलिवरी हो गई, नर्स ने आके बताया," बधाई हो, चांद सी बेटी आई है, सभी खुश थे, दिव्या की देखभाल का ज़िम्मा अस्पताल वालों का है, इसलिए अस्पताल में ठहरने को मना किया गया तो सब घर चले गए, खाना खाया और सब सो गए । मगर दो जवान दिल तेज़ी से धड़क रहे थे, मिलने को बेकरार, एक आग इधर सीने में है तो एक उधर, मौका-ए-परस्त भी है, आखिर कब तक दोनों अकेले तड़पते, रहा नहीं गया, पारस आ गया आस्था के कमरे में, आस्था भी अभी सोई नहीं थी, नींद दोनों की ऑंखों से कोसों दूर थी, आव देखा ना ताव, तपते जिस्म एक - दूजे में समाने को तड़प उठे, लिपट गए एक-दूसरे से, आस्था के लरज़ते होंठों ने छू लिया पारस के होंठों को तो मानो एक ज़लज़ला आ गया, ये सिलसिला रोज़ चलता रहा, दिव्या के घर आने के बाद जब आस्था वापस चली गई, तब भी यही सिलसिला चलता रहा, तब ये मिलन किसी होटल के कमरे में होता, इधर जब दिव्या की बेटी पैदा हुई तो तारा डूबा था, इसलिए उसका नामकरण दो - तीन महीने नहीं हो सकता था।आज दिव्या की बेटी का नामकरण संस्कार है, उसने आस्था को भी बुलाया है, लेकिन वो आस्था को देखकर आश्चर्यचकित हैं।
आस्था का बढ़ा हुआ पेट कह रहा है त्रिकोणीय प्रेम की दास्तां।
