बरगद की छाँव
बरगद की छाँव
आज मैं आपको गोपी की कहानी बताती हूँ| वह बनारस के दशाश्वमेध घाट पर रहता। उसके पिता की पेड़े की दुकान थी। तीर्थ के सीज़न में पिता को कहाँ फुरसत होती, बस अपनी माँ से ही चिपका रहता और माँ भोलेनाथ से।गोपी और माँ, घाट पर मंदिर के पास बरगद की छाँव में बैठे रहते। माँ महादेव से बस पुत्र को सही राह दिखाने की ही प्रार्थना करती रहती, साथ ही उसे भी पढ़ने के लिए प्रेरित करती। गोपी स्कूल से सीधा वहीं आता और एक ओर बैठकर पढ़ने लगता। देखते-देखते गोपी ने इंटर पास कर लिया और उसे ग्रैजुएशन की पढाई के लिए दिल्ली भेजा गया। माँ हर समय उसकी प्रेरणा बन सपनों में आतीं और साथ ही आते भोले शंकर, जो सदा ही उसका मार्ग प्रशस्त करते। क्या करता वह ऐसी ही नगरी से था जहाँ गुड मॉर्निंग की जगह हर-हर महादेव गुंजायमान होता है।
माँ-बाप पैसे भेजते रहे और लड़का पढ़ता रहा। जब दिल घबराता तो माँ को याद करता और याद करता बरगद की वह शीतल छाँव। जो अभिभावक के समान आशीर्वाद व स्नेह की शीतलता देती। प्रशासनिक सेवाओं की परिक्षाएं चल रही थीं।
वह शुभ दिन भी आ गया, जब उसका सेलेक्शन आईएफएस में हो गया। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। वह दौड़ा-भागा माँ के चरणस्पर्श करने बनारस पहुँचा। बेचारी भोली माँ क्या जाने, बेटे ने कौन सा तीर मार लिया है। बस इतना ही बोला "बनारसे रहत बिटवा, नौकरिया तो यही कर लेत!"
"अरे अम्मा! तुम नहीं समझोगी, हमें आशीर्वाद दो! तुम्हें विदेश घुमाऊंगा।"
"अ बाबू!" "पेड़ा बेचने दो उन्हें" "काशी नगरी छोड़के कहूँ ना जाब!"
माँ को अचरज से देखता गोपी वापस आ गया। पहली ही पोस्टिंग जेद्दाह एम्बेसी में मिली। दो वर्षों में ही बहुत पैसे बना लिए उसने। माँ से मिलने आया। साथ लाने की ज़िद करने लगा, पर काशी छोड़ने को राजी न हुईं। तब उसे दुख भी हुआ पर माँ के पूजा के लिए उसने घाट पर एक मन्दिर का निर्माण कराया। माँ के हाथों प्राण-प्रतिष्ठा कराते हुए उसके शब्द थे। "माँ तुमने बड़े कष्ट उठाये। पिता अर्थोपार्जन में थे,अकेली तुमने मेरे सभी दुख-सुख संभाले। तुम्हारे उपकार से उऋण होने के लिए तुम्हारे लिए यह मंदिर बनाया। अब यहाँ कोने में नहीं तुम सामने में बैठना। अपने भोले दानी से बातें करना और खुश रहना। मेरी फ्लाइट का वक़्त हो गया है, निकलता हूँ।"
मिडनाइट की फ्लाइट थी, पहले दिल्ली पहुंचना था। वह जल्दी ही माँ से विदा लेकर एयरपोर्ट पहुंच गया था। अगली सुबह माँ नहा-धोकर मंदिर पहुँची तो अज़ब नज़ारा था। आधा मंदिर गंगा में समाहित था । बाबा जल निमग्न हो गये थे। मंदिर में प्रवेश संभव न था। ऊपरी ध्वजा हवा में लहराती यही संदेश दे रही रही कि माँ के ऋण से उऋण होना इंसान क्या देवताओं के भी बस की बात नहीं।
आज बरगद भी उससे क्रुद्ध था। उसे अपनी छाया में पले-बढे बच्चे से इस नादानी की उम्मीद नहीं थी।
