भरी सर्दी घना कोहरा

भरी सर्दी घना कोहरा

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बात तकरीबन 2 साल पहले की है समेस्टर के पेपर चल रहे थे. भयंकर सर्दी की सुबह थी और मैं नाह-धो के कॉलेज जा रहा था. अब जान लेवा सर्दी मैं नहाने का दर्द तो आप समझ ही सकते है. खैर जो भी है नहने के बाद दिमाग तो थोड़ा चलता ही है. जेब मैं पेन और रोल नंबर जेब ठूस के और हाथो मैं सैंपल पेपर लिए 40 नंबर के जुगाड़ मे निकल पड़े थे कॉलेज तरफ की हर बार की तरह टेम्पो वही खड़ा था. भयंकर सर्दी घना कोहरा के बीच बिना देर किये मैं टेम्पो मैं बैठ गया.

सैंपल पेपर खोल के गहन अध्ययन शुरू कर दिया आखिर 40 नंबर की बात है. टेम्पो हिलने लगा. पता लगा टेम्पो वाले भाई ने मोटर मैं रस्सी डाल के खींच दी इसी के साथ चारो तरफ धुक- धुक का शोर शुरू हो गया। और मेरा ध्यान बिना हिले किताब में गड़ा रहा, पूरे 100 मीटर ही चला होगा टेम्पो इतने मे भाई ने गाना " इस जहाँ की नहीं है तुम्हारी ऑंखें आसमा से ये किसने उतारी आँखे " बस हो गयी आज की पढाई ये सोचते हुए मैंने सैंपल पेपर बंद कर दिया। और देखा की आस पास क्या चल रहा है. जैसे ही मेरी नजर एकदम सामने गयी. तो एक खूबसूरत कन्या नीली आँखों वाली बैठी हुई थी. पूरा मुँह अलकायदा के आतंकवादियों की तरह ढका हुआ बस आँखे ही कहर ढा रही थी. तभी मैंने मुंडी टेम्पो पर लगे सर्दी से बचाने वाले परदे से बहार निकलके देखा। भयंकर सर्दी थी घना कोहरा था. अंदर फिर भी माहौल गरम नज़र आने लगा. मन में ख्याल आ रहे थे की आज अच्छा मौका है बेटे बात कर ले. लग रहा था गाना भी स्पेशल ही अपने लिए ही बजाया गया हो पर बता दू लड़कियों के मामले में मेरा हिसाब कच्चा ही रहा है. पर उस टाइम दिल का सारा सिस्टम हैंग हो गया था कुछ समझ ही नहीं आ रहा था और सच बताऊ तो पता ही नहीं लगा की कब 8 किलोमीटर कब निकल गए और कॉलेज आ गया. कसम से भयंकर सर्दी थी घना कोहरा था. मौसम भी पूरा रोमांटिक हो रहा था.

उतरते टाइम मैंने 10 का नोट भाई को दिया. किराया 8 रुपए हुआ करता था. तो भाई ने कहा " भाई खुल्ले नहीं है खुल्ले दे दे " मैंने भी कहा रख ले भाई आज तो तेरे वैसे 100 रूपये बनते है"


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