बांसुरी
बांसुरी
फोन पर अपनी चचिया सास शारदा चाची की बातें सुनते ही विनीता की आँखों से चिंगारियाँ निकलने लगीं , हृदय गति बढ़कर तेज - तेज साँसों के साथ ताल मिलाने लगीं। गुलाब की पंखुड़ियों से गालों पर अश्रु काँटों पर शबनम की बूंदों की तरह थरथराने लगे। सिर चकराने लगा और वह बिस्तर पर गिर कर छटपटाने लगी फिर अपनेआप को सम्हालते और समझाते हुए कहती है नहीं - नहीं ऐसा नहीं हो सकता अविनाश मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकते अरे उन्होंने तो मेरे अलावा किसी की तरफ़ नज़र उठाकर देखा तक नहीं था फिर कैसे मेरे विश्वास को तोड़ सकते हैं जरूर शारदा चाची को कुछ गलतफहमी हुई है आखिर वो हैं तो पुराने खयालात की ही न? ज़रा सा अविनाश कामना की स्थिति पर तरस खाकर मदद क्या कर दिये कि........... छिः आजकल किसी की मदद करना भी नाजायज है।
विनीता साइड टेबल पर रखे हुए बोतल को खोलकर सारा पानी गटागट पी गई तो भी प्यास थी कि बुझ ही नहीं रही थी। विनीता कि मति शारदा चाची की कही हुई बातों के धागों को सुलझाने लगी जो कि बार - बार और भी उलझती जा रही थी क्योंकि दिल कुछ और कर रहा था और दिमाग कुछ और इसप्रकार एक तरह से विनीता के दिल दिमाग में जंग छिड़ गई थी । नहीं - नहीं ऐसा नहीं हो सकता कभी-कभी आँखों देखा भी पूर्ण सत्य नहीं होता विनीता अपने आपको समझाने लगी फिर भी स्त्री मन अपने सुहाग को बांटने की कल्पना मात्र से सिहर जता है और फिर बिना चिंगारी के धुआँ तो उठता नहीं है कुछ न कुछ तो सच्चाई होगी ही ऐसा सोचकर विनीता अपने पति और कामना के पिछले कई महीनों के क्रियाकलापों को खंगालने लगी। कुछ - कुछ सबूत भी मिलने लगे जो शारदा चाची की बातों को सत्य सिद्ध कर रहे थे ।
अभी कुछ साल भर ही तो हुए होंगे कामना को वैधव्य की चादर ओढ़े हुए तब विनीता ही उसके साथ खड़ी होकर सामाजिक रीतियों को तिलांजलि देते हुए उसके माथे पर बिंदी और सूनी कलाइयों में चूड़ियाँ पहना दी थी फिर भी माँग में सिंदूर भरने का साहस नहीं जुटा पाई थी। तब विनीता को यह कहाँ पता था कि जिसकी जिंदगी संवारने चली थी वही उसकी जिंदगी उजाड़ने लगेगी और जिस खाली माँग को भरना चाहती थी वह उसी के सिंहोरे का सिंदूर अधियाने लगेगी।
जब कामना का तीन वर्षीय बेटा पिता को मुखाग्नि देकर लौटा था तो अपनी माँ को मूर्छित अवस्था में पाया, तब विनीता ही उस बच्चे को सीने से लगाकर मन ही मन में प्रण कर ली थी कि अब यह बच्चा मेरी जिम्मेदारी है और क्रिया कर्म के पश्चात उस माँ बेटे को अपने साथ ही शहर लेती गई थी ताकि कामना को कोई कष्ट न हो और सोची कि वह जब काॅलेज में पढ़ाने जायेगी तो घर में कोई तो रहेगा साथ ही घर के काम में भी मदद मिल जायेगा। तभी विनीता के पिता की हृदय गति अवरुद्ध हो जाने के कारण मृत्यु हो गई तो उसे अचानक अपने मायके जाना पड़ा। यूँ तो विशाल उसे एक दिन के लिए भी नहीं छोड़ता था लेकिन वहाँ की स्थिति देखकर कुछ दिनों के लिए विनीता को वहीं छोड़ दिया था ताकि वह अपनी माँ और मायका सम्हाल सके। तब विनीता भी निश्चिंत हो गई थी कि चलो घर पर कामना तो है ही।
तो क्या उसी समय छिः....... कामना का फिर सिर चकराने लगा। धीरे-धीरे उसके मन की गुत्थी सुलझने लगी और जैसे - जैसे गुत्थी सुलझने लगी उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। उसकी खुशियों की चिकनी मछली उसके हाथ से फिसलकर समय के गड़ास में समा चुकी थी। तभी उसे याद आया एक टोटका जो कि उसकी माँ अपने बिस्तर के सिरहाने रखा करती थी जिसे बचपन में वह बजाने के लिए लेकर भागी थी तो माँ कितना नाराज हुईं थीं तभी दादी ने बताया था कि सिरहाने बांसुरी रखने से पति- पत्नी में प्रेम बढ़ता है। इस बात पर उसे तब बड़ी हँसी आई थी और तब क्या अब तक अंधविश्वास को लेकर उसकी हमेशा माँ से बहस छिड़ जाती थी लेकिन जब बात अपने सुहाग की आई तब उसे समझ में आई यह बात और व सीधे घर के पूजा घर की तरफ़ बढ़ गई फिर कृष्ण की बांसुरी उठा कर अपने सिरहाने रख कर मन ही मन में मन्त्र जपने लगी।
तब अविनाश किसी काम के सिलसिले से बाहर गये थे। विनीता कामना के मायके में काॅल करके उसके भाइयों को बुलवाई और बड़े प्यार से बोली कि इसे अपने साथ ले जाओ ताकि इसका मायके में दिल बहल जायेगा। कामना का दिल बिल्कुल भी जाने का नहीं हो रहा था लेकिन विनीता की तीखी नजरों के सामने उसके कण्ठ के स्वर कण्ठ में ही रह गये और वह सीधे पैकिंग करने के लिए चली गई। कामना के जाने के बाद विनीता उसके भाई के हाथ में कुछ बचत किये गये रुपये पकड़ाते हुए बोली कि इसकी शादी करवा दो आखिर यह अपनी जिंदगी कैसे काटेगी जो भी खर्च आयेगा उसमें मैं भी मदद करूंगी। यह सुनकर तो विनीता के भाइयों को विनीता बिल्कुल देवी लग रही थी लेकिन उन्हें क्या पता था कि यह सब विनीता अपने लिये कर रही है।
हफ्ते भर बाद अविनाश आये तो विनीता के रूप लावर्ण्य को एकटक देखते रह गये जिसके माँग में सिंदूर की नदी उसे अपने आप में डुबो रही थी वह विनीता को अपने वक्ष से लगा लिया। तभी पलंग के सिरहाने उसे बांसुरी दिखी। अविनाश विनीता को और भी कसकर पकड़ लिये उनकी आँखों से अश्रुओं की बरसात होने लगी यह सोचकर कि इतनी आधुनिक विचारों वाली तथा सुलझी हुई विनीता आज मेरी गलतियों की वजह से अंधविश्वास में घिर कर टोटके का सहारा लेने लगी, कैसे मुझसे इतनी बड़ी गलती हो गई। लेकिन विनीता की दिल की दरारें उन आँसुओं की मिट्टी से पटने लगीं, आँखों की बरसात में भीग कर सारी कड़वाहटें धुल गईं, तृप्ति का आभास होने लगा उसे , माफ़ कर दिया उसने अपने पति की भूल को क्यों कि वह नहीं चाहती थी कि अविनाश की एक गलती या भूल की सजा वे दोनों जिंदगी भर पायें और भूल गई विनीता अपनी पीड़ाएँ। दोनों की सांसों के आरोहों और अवरोहों में बांसुरी की धुन गूंज उठी, संजोग के सरगम में दोनों बेसुध हो गये ।