*"बाल मनोविज्ञान"*

*"बाल मनोविज्ञान"*

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हर एक के जीवन में बचपन के दिन सबसे अच्छे दिन होते हैं। जिसमें छोटी-छोटी अठखेलियां, भाई-बहन का प्यार, लड़ाई-झगड़े, गिले-शिकवे, सुख-दुख शामिल होते हैं।

‘बचपन’ एक ऐसा शब्द जो हर प्रकार की चिंता, फिक्र, तनाव से मुक्त होता है। यह चंचल हिरणी के जैसा होता है, जिसकी अल्हड़ता जीवन के अंतिम सांस तक याद रहती है। वह तो किसी पक्षी की भांति उड़ना जानता है। समस्त दुखों से दूर उसकी अपनी ही उड़ना होती है, ऐसी ही उड़ान भरती एक बच्ची की कहानी है।


‘बाइसकोप’ जिसे देखने का बहुत अधिक शौक था। जो बाइसकोप देखने के लिए क्या-क्या प्रयास करती है।

सर्दी का मौसम था, चारों ओर गुनगुनी धूप खिली थी सुबह के कुछ 11 बजे थे। रविवार का दिन था और कुछ लड़कियां गप्पा खेलने में लगी थीं। बड़े दिन की छुट्टियों का बच्चे आनंद उठा रहे थे। वह अलग-अलग खेलों में टोली बनाकर खेल रहे थे। कोई सब्जी ले लो कहकर ठेले पर सब्जी बेच रहा था, तो कोई जल्दी-जल्दी कहीं जा रहे थे। सभी अपने-अपने कामों में लगे थे परंतु बच्चे इन सबसे बेपरवाह अपने खेल में ही लगे थे। तभी कहीं दूर से आवाज़ आई बाइसकोप देख लो! बच्चों आओ बाइसकोप देख लो!

आओ आओ! अरे भाई एक रुपये में एक बार बाइसकोप देख लो आओ... आओ! सभी बच्चे जो अपने-अपने आंगन में खेल रहे थे, बाइसकोप वाले के पास दौड़े... बाइसकोप वाला बोला- जाओ पहले एक रुपया लाओ फिर लाईन में लग जाओ नहीं तो जाओ। सभी बच्चे दौड़े-दौड़े घरों में गये, चिक्की भी अपने घर में दौड़ी और माँ से कहने लगी- ‘‘माँ...माँ मेरी प्यारी सी माँ, मुझे एक रुपया दे दो। मुझे बाइसकोप देखना है। माँ ने कहा- देखो सिर्फ एक बार दूंगी और तुम मुझसे फिर बार-बार पैसा नहीं मांगोगी ठीक है। माँ ने बड़ी कठोर स्वर में कहा। चिक्की ठीक है मैं दुबारा नहीं मांगूंगी अभी तो दे दो। माँ ने एक रुपये दे दिया जैसे ही रुपये हाथ में आये मानो चिक्की की खुशी का ठिकाना न रहा वह तो हवा के पंख लगाये पैरों से दौड़ी चली जा रही थी।

चिक्की जरा संभल कर जाओ देखो गिर मत जाना।


-(उधर सावधान करते हुए बोल रही थी।)


चिक्की दौड़ते हुये बिना रुके बोली-माँ आप चिंता मत करो! क्योंकि चिक्की को तो सिर्फ बाईसकोप देखना था मन में चिंता बाईसकोप वाला चला न जाये वह तो इसी उधेड़बुन में दौड़ी-दौड़ी बाईसकोप वाले पास जाकर ही सांस ली। तेजी से दौड़ने के कारण दिल जोरों से धड़कने लगाता और सांस फूल रही थी। चिक्की ने भीड़ को चिरते हुये अपना हाथ बाईसकोप वाले के पास ले जाकर बोली- लो भाई मेरे 1 रुपये अब दिखाओ। वह बोला देख नहीं रही हो काफी लोगों ने मुझे रुपये दे चुके हैं, चलो इन सबके पीछे लाइन में लग जाओ। चिक्की लाइन बड़ी देखकर,

बहुत ही मायूस होकर लाइन में लगकर अपना नम्बर आने का इंतजार करने लगी, पर जो बच्चे बाईसकोप देखकर आ चुके उन बच्चों का खिलखिलाता चेहरे देख उसे और अधिक प्रसन्न कर देता था,वह बड़े ही जोरों सोरों से कल्पनाओं के पंख से बाईसकोप में क्या-क्या तस्वीरों होंगी। की कल्पना में मगन थीं चलो अब आपका नम्बर आ गया आगे आओ।

अब तो चिक्की की मुराद पूरी होने वाली थी वह जल्दी से जैसे आगे बढ़ी तभी उसके बड़े भाई साहब हवा की तेजी से बाइसकोप में मुंह ड़ाले देखने लगे। चिक्की जोरों से चिल्लाई-अरे भाई साहब मुझे देखने दो ना! वह बोले में सिर्फ थोड़ा सा ही देखूंगा फिर तुम देखना ठीक है। चल अब शांति से चुपचाप खड़ी रहो। वह डर के मारे खड़ी हो गई जब मन में काफी देर से बाइसकोप देखने की चाह थी,और देखने नहीं मिल पा रहा है यह सोचकर चिक्की बहुत ही बेचैन हो रही थी। चिक्की का सब्र का बांध टूटे जा रहा था।


भाईसाहब अब तो मुझे देखने दो ना।

-(वह बेचैनी में बहुत ही रुआसे शब्दों में बोली।) 


उधर भाई साहब बाइसकोप से टस से मस न हुए। चिक्की के आँखें से गंगा-जमुना बहने लगी। बड़े होने का फायदा भाई साहब ने खूब उठाया था, पूरा रुआब के साथ डटे थे। 

यह देख बाइसकोप वाले ने *बाल मनोविज्ञान* को समझते हुए चिक्की के चेहरे के एक-एक भाग को पढ़ रहे थे,भाई साहब से कहा- देखो वह लड़की रो रही है,चलो हटो अब दो-तीन पिक्चर ही बची है वह बोले हां-हां चलो चिक्की अब तुम देख लो।


'बड़े होने के नाते भाई साहब अकड़ते हुए बाइस्कोप से कुछ हटकर बाहर खड़े हो गये।'


'चिक्की रोते हुये जैसे आगे आई तो आँखों में भरे आँसू सब कुछ धुंधला कर रहे थे। वह आँखें पौंछते हुये देखती है तो कुछ तीन-चार पिक्चर के बाद ही बाइसकोप बंद हो जाता है।'


बाइसकोप देखना है भैया मुझे दिखाओ ना। 

-(बाइसकोप वाला से चिक्की बोली।)


"बिटिया और देखना है तो और रुपया लाओ। मुझे और मोहल्लों में भी दिखाना है।"

-(बाइसकोप वाला बोला)


'ऐसा कहकर वो बाइसकोप लेकर चल दिया।'


चिक्की सीने पे पत्थर रखकर सोचने लगी,..... माँ ने तो पहले ही कह चुकी थी, और रुपये नहीं देंगी। 

 "क्या हुआ?बड़ी ही उदास दिख रही हूं।"

-(माँ ने चिक्की से बोली)


चिक्की ने सविस्तार बता दिया तो माँ ने कहा- तो क्या हुआ वह तुम्हारा बड़े भाई साहब हैं, चिक्की बड़े मासूम सी अपनी माँ की ओर देख रही थी,.. उसे लगा माँ, भाई साहब को डांटेगी परंतु उन्होंने तो कहा -अच्छा तो क्या हुआ वह तुम्हारे बड़े भाई हैं! 

चिक्की बड़े उदास मन से सोचने लगी,...... 'अच्छा! क्या बड़े भाई साहब है तो आप मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर सकते हैं। मेरे हिस्से की खुशियों को अपने हिस्से कर लेंगे।' 

चिक्की उस दिन सारे समय उदास रही। परंतु उसने मन ही मन निर्णय ले लिया था वह अब की बार बाईसकोप वाला आयेगा तो वह देखकर ही रहेगी। उसका निर्णय बड़ा सच्चा था। वह अपने छोटे से दिमाग पर जोर देती है कि एक बार जब उनके घर मामाजी आये थे तो वापस जाते समय चिक्की को एक रुपया दे गये थे। चिक्की ने वही रुपया एक छोटी सी चिन्दी में बांधकर, (चिक्की का घर सीमेंट के चादरों का था और इसी चादरों के बीच में छत से लगी दीवारों पर छोटे-छोटे छेद थे) जहां पर दिवार से सटी एक ईंट की अलमारी थी जिस पर चढ़कर चिक्की ने उन छेदों में एक से छेद में अपने रुपया छुपाकर रख दिये थे। जैसे ही उसे याद आया वह जोरों-शोरों से उसे ढूढ़ने लगती है,परंतु जहां उसने रुपये अपने भाई के भय से छुपाया था, वह उसे नहीं मिल रहा था। वह रोने लगी तभी मम्मी का आना हुआ- चिक्की ने रोते हुये माँ को बताया कि- मुझे मेरे रुपये जो मामाजी ने दिये थे वह नहीं मिल रहा है, मैं उस रुपये से बाइसकोप देखूंगी।


'चिक्की की आँखों से निकले आंसुओं से उसके गालों को गीला कर रही थी। चिक्की की माँ ने कहा- तुम रोना बंद करो मैं देखती हूं। अब माँ ने भी सब जगह देखा परंतु वह रुपया उन्हें नहीं मिला। चिक्की बड़ी उदास हो बाहर जाकर बैठ जाती है,उसी रात अलमारी से लगे पलंग पर जब चिक्की सो रही थी, "तभी न जाने कब नींद में उसका हाथ मच्छरदानी से बाहर आ गया। अचानक एक चूहा अंधेरे में चिक्की की चिटी ऊंगली में काटकर भाग जाता है। 

चिक्की लगभग चीखते हुये उठ जाती है, माता-पिता उसके पास आते हैं, तो देखते हैं चिक्की की छोटी उंगली से खून निकल रहा था,माँ उसे दवाई लगकर सुला देती है। माँ सुबह उठते से ही हर कोने की सफाई में लग जाती हैं,जहां माँ को गेहूँ की टंकी के पीछे एक चूहे का बिल नजर आता है जहां लाल-हरे रंग के कपड़ों के कुछ टुकड़े बिल से बाहर नजर आ रहे थे यह देख चिक्की खुशी से उछल पड़ी और बोली- माँ-माँ!! ऐसे ही रंग के कपड़े में मैंने रुपया बांधा था। आप और कचरा बाहर निकालो... जैसे जैसे कपड़ा बाहर निकाला जाता है उसमें से एक रुपया बाहर आ जाता है। चिक्की रुपया पाकर बहुत खुश हो जाती है माने उसे कोई खजाना मिल गया हो।


चिक्की बड़ी बेताबी से हाथ में रुपया ले बाइसकोप वाले का इंतजार कर रही थी पर वह बाइसकोप वाला नहीं आया।" 


दूसरे दिन चिक्की के घर में गुरुवार की पूजा थी घर पर सब नहा धोकर तैयार हो गये थे। पंडितजी गुरु भगवान की पूजा करा रहे थे माँ- पिता और घर के सभी सदस्य कथा सुनने में लगे थे। परन्तु चिक्की का ध्यान बरबस बाइसकोप वाले की आवाज़ की ओर लगा था। तभी बाइसकोप वाले की आवाज़ आती है,चिक्की उठने लगती है तो माँ ने इशारे से कहा- पूजा पूरी होने के बाद जाना। चिक्की बड़ी ही बैचेनी से पूजा होने का इंतजार करती रहीं और जैसे ही पूजा पूरी हुई तो उसने प्रसाद खाया और हाथों की बंद मुटठी में रुपये लेकर बाइसकोप वाले के पास भागी। हांफते हुए लगभग- अंकल आज पूरा बाईसकोप मुझे ही दिखाना। बाइसकोप वाले अंकल ने कहा- हां बेटी सांस तो ले लो। उस रोज के लिये मुझे भी बहुत दुख हुआ था परंतु क्या करता! उस रोज से मेरी तबीयत भी खराब थी।

इसलिये मैं आ नहीं पाया था। पर बेटी आज तुम पूरा बाईसकोप देखना। चिक्की आज बहुत खुश थी... कि आज उसे पूरा बाइसकोप देखने को मिल रहा था।

बस इतनी सी थी बचपन की छोटी-छोटी खुशियों से भरी *बाल मनोविज्ञान* यह कहानी।



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