राजनारायण बोहरे

Others

2.5  

राजनारायण बोहरे

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अस्थान

अस्थान

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               सामने मिठाई का दौना है जिसमें से परसादी पाने लगे हैं । दो-चार ग्रास पेट में पँहचे तो चैन हुआ। पेट की अगन कुछ सिराने लगी । दो दिन गुजर गए, उस स्थान पर पंगति में बैठकर भेाजन पाया था। बस तब के क्षण हैं और आज की ढलती साँझ, वे भोजन से ‘भेले’  नहीं हुए । जाने कौन मनहूस का मुँह देखा है,या कौन बख्त मुँह से उलट-सुलट निकला , सेा अन्न देवता के दरसन-परसन को तरस रहे हैं ।

               हालाँकि साधुशाही रिवाज के मुताबिक तो वे उलट-सुलट ही बोले थे,लेकिन ओमदास बाबा उसे गलत नहीं मानते। वो तो सच  बात थी । अरे भाई ,साधु-बैरागियों का देह-वासना से क्या लेना -देना ? ये भी मिट्टी , वो भी मिट्टी, हर तन मिट्टी !

                ये तो दुर्जन के काम हैं , तो शास्त्रों में कहा गया -दुर्जनं दूरतः परिहरेत। अब दूर से ही त्याग आए हैं वे दुर्जनों को ,बल्कि उस समाज के सब जनों को। अघा गए वे उन सारे रीति-रिवाजों और प्रदर्शनों से ।

               सामने की मिठाई उदरस्थ हो चुकी थी, लेकिन बाबा का मन छूट-छूटकर मालवा की सस्य-श्यामला धरती में बने महन्त किरपादास के आश्रम में जा पहुँचता था और वे मन को खींचकर पटरियों पर दौड़ रही इस रेल में वापस लाने का यत्न कर रहे थे।इसी खींचतान में आँखों के आगे फिर से तैर उठा था-महन्त किरपादास के स्थान पर बीता समय।

               पिछले कुम्भ में प्रयागराज में ओमदास की भेंट किरपादास से हुई थी कुछ सत्संग भी हुआ था। दोनों ने साथ-साथ पंचाग्नि तपी थी और भभूत मलकर गंगा माई के तट तक भी साथ-साथ गए थे। तब के क्षणों में किरपादास बोले थे-सन्तजी ,हमने भी कुछ भगत जगत चेताए हैं । मालवा में एक अच्छा स्थान बनवा दिए हैं । ठाकुरजी की सेवा-टहल और साधु सेवा होती है। कभी फुरसत में आइएगा अस्थान पर। कुछ दिन सतसंग होगा। रमते जोगी और बहते पानी का क्या ठिकाना । बाबा ओमदास वह न्यौता भूल गए और छः वर्ष बीत गए।

               तब वे एक जमात के साथ जातरा पर निकले थे । विंध्याचल की घाटी में बने एक स्थान पर जमात कुछ दिन रुकी और वहीं किरपादास के स्थान की चर्चा चली तो बाबा ओमदास को कुम्भ याद आया, । झोली में से पुस्तक निकालकर उस पर लिखा बाबा किरपादास के स्थान का पता देखा। जमात के महन्त से जाने की अनुमति लेकर बाबा बिदा हुए ।

               महन्त किरपादास का स्थान खूब लम्बा चौडा था मन्दिर में ऊँचे-ऊँचे शिखर दूर से ही दिखते थे । स्थान पर हमेशा चहल-पहल बनी रहती थी । महन्त जंगल में मंगल कर दिया था। 

    

               काँधे पर आसन बाँधे और हाथ में चिमटा कमण्डल लिए बाबा ओमदास ने दूर से ही हाँक लगाई -”दण्डवत..त.!“

              ”दण्डवतsssssssss..त..“अस्थान किसी साधु ने जबाब दिया था और वे प्रसन्न होकर आगे बढ़ गए थे ।

               वे सीधे महन्त की गद्दी पर पहुंचे । किरपादास उन्हें नहीं पहचान पाए थे और अजनबी महात्मा को अजब निगाहों से ताक रहे थे। ओमदास ने देखा था कि छह बरसों में महन्त किरपादास का हुलिया बिल्कुल बदल गया था। बदन चिकना हो गया था और खूब लम्बी तोंद भी निकल आई थी, उनके जटाजूट अब पंचकेश में बदल गए थे तिलक भी बडे करीने से लगाने लगे थे।

               धरती पर तीन बार लेटकर ओमदास ने गद्दी की दण्डवत की और जतन से धरा एक रुपया झोली से निकालकर महन्त जी के चरणों में भंेट अर्पण की ।

”कहाँ से आना हुआ संन्त जी का?“ महन्त किरपादास की आवाज में एक रूखापन था ।

”एक जमात के संग-तीरथ-जातरा करके लौट रहे थे कि आपके स्थान पर आने की इच्छा जागरत हुई ,सो दरसन-परसन करने हाजिर हो गये हैं ।“े

               कहकर बाबा ओमदास ने सोचा कि स्मरण दिलाऊँ-अभी छःवरस पहले ही तो हम दोनों प्रयागराज में कुम्भ के अवसर पर गंगा-तट पर भेंट कर चुके हैं, आपके न्यौते पर अपने राम आये और बुला के पूछते हो कि...... । फिर सोचा कि छोड़ो साधुशाही की परम्परा और टकसाली विधान के अनुसार परिचय के पहले कुछ कहना नियम के प्रतिकूल है , यह समझकर वह चुप ही रहे ।

              ”सन्तजी का नाम और अखाडा द्वारा कौन सा है?“

              ”संसार परब्रह्म परमात्मा का , सम्प्रदाय गादी महाराज का, आशीर्वाद गुरू महाराज का, साधु-समाज और आप सबका दिया हुआ मेरा नाम श्री ओमदास है।“ एक पल को रुक वे अपना गुरु स्थान बखान उठे -

              ”आदि आचार्य महाराज के सम्प्रदाय में दादा गुरू एक हजार आठ श्री श्री गंगादास जी महाराज के शिष्य श्री श्री एक सौ आठ श्री प्रयागदास महाराज ही हमारे गुरू महाराज हैं ।अखाड़ा द्वारा राजस्थान है-महाराज ।“

               ठीक से उत्तर पाकर महन्त ने समझ लिया साधू टकसाली है,खडिया नहीं है । उनके चेहरे पर सन्तोष झलका। बोले -”ठीक है सन्तजी, सन्त-निवास में आसन जमाइए,पारखत मले हो रहे हैं । आप भी कुआँ पर जाकर स्नान बना लीजिए, दर्शन कीजिए और पंगति पाइए।“ बाबा ने माथा झुकाकर सम्मति प्रकट की और अस्थान के पिछले हिस्से में बने सन्त-निवास की और चल दिए। स्थान सचमुच बडा सुन्दर था। चारों ओर से पेड़ों से घिरा हुआ था। बस्ती से तीन मील से भी दूरी के एकान्त मन्दिर होने से फालतू की चें-चें,पैं-पैं से मुक्ति थी यहाँ। भजन करने के लिए एकदम उम्दा स्थान थे ।

               मन्दिर के पीछे भण्डारग्रह था और उसी से लगी हुई गौ शाला । औमदास का मन प्रसन्न हेा उठा यानि कि स्थान पर गौ सेवा भी होती है। सन्त-निवास देखकर तो तबियत टन्न हो उठी । स्सफ सुथारा ,लिपा पुता , जालीदार दरवाजा, मच्छर की टिकिया से महकता खूब लंबा कमरा था, कितने सारे तख्त और चबूतरे थे वहां ! कई साधु सन्त-निवास में विश्राम कर रहे थे ।

               एक चट्टी पर आसन जमाकर उन्होंने कमण्डल लिया और चांपा कल पर चले गए । खूब मल-मलकर स्नान बनाए ।

               कोंपीन बदली और अपना दैनिक पाठ करते हुए ही वे भीतर मन्दिर में पहुँचे। आहा! क्या खबसूरत चिन्ह पधराए हैं । बस देखते ही रहो ।प्रणाम करके परिक्रमा में गए तो कोने में खुलता हुआ  एक दरवाजा दिखा


यों तो किरपादास की उम्र ज्यादा नहीं है । वे भी ओमदास की ही उम्र के हैं लेकिन दोनों में कितना अन्तर है। इधर तो बाबा ओमदास गुरू कृपा से ब्रह्ममुहूर्त में ही जग जाते हैं और सूर्योदय तक अपने नेम-धर्म से निवृत हो लेते हैं ।उधर बडे आलसी हैं बहुत ममतालु हैं ,किरपादास अपनी गादी के लिए। नेम-धर्म के लिए तो समय ही नहीं उनके पास। गुसाई महाराज सच कह गए हैं जाके नख और जटा विसाला,सोई तापस प्रसिद्ध कलिकाला ।

               साधना तो नागा साधुओं की जाकर देखो वसन और वासना से दूर रहकर कैसे वे अपने शरीर को तपा-तपाकर कंचन बना लेते हैं । कुम्भ में और सम्प्रदायों के लोग भी आए थे । रामानन्द सम्प्रदाय ,रामानुज सम्प्रदाय,निम्बाकाचार्य, एक-से-एक तपेश्वरी साधु ।हर सम्प्रदाय के साधु सच्चे ब्रतधारी और पूरे बैरागी! पर ओमदास को खुद के सम्प्रदाय में सब बावन गज के लगते हैं ।

               उठकर खिड़की से झाँका, तो विस्मय हुआ। महन्त किरपादास बाहर खडे थे ,कमर में केवल कोपीन था शेश सारा वदन उघारा था। सामने एक नया चेला था। गोरा चिकना -सा,चेला भी नंगे वदन केवल कोपीन लगाए था।महन्त के कमरे के आगे खडे दोनों हँस-हँसकर बतिया रहे थे।

              ...च्च...च्च...च्च। तो बड़ी गलती बात है। अभद्र तरीका है।ऐसे भी खड़ा हुआ जाता है। वे बुदबुदाए।

               विचार आया कि सन्त -निवास से बाहर निकलकर उधर ही जा पहँचें पर दूसरे पल ही सोचा कि अपने को क्या करना ,अपनी करनी पार उतरनी ।लेकिन उनका मन कब इस जुमले को स्वीकार करता है !अगर ऐसा होता तो उस विसरामपुर वाले स्थान की बदनामी न होने देते । हालाँकि गुरू महाराज कहते थे , ”ओमदास तुम्हें तो कहावत सारी के पाँव पकड़कर बैठ गए। भले आदमी ऐसी बातें तेा कायर सोचते हैं । आलसियों के विचार हैं जो तो ।े



               एक बार बड़े ने उन्हें टोका कि अच्छे -खासे किसान होने के बाबजूद काहे के लिए पराश्रितों की तरह साधु भिखमंगे बने फिरते हैं । पप्पू ने भी बडे का समर्थन किया तो उनका मन बिल्कुल खिन्न हो गया । वे खेती बाडी के काम से कतई दूर रहने लगे । घर में उनकी हेंसियत गैरजरूरी जीव की तरह हो गई थी । ज्यों-ज्यों घर से उनका मन दूर होता गया,भजन-पूजा में उन्हें आनन्द आता गया । उन्हें यह दुनिया स्वार्थी और विशयी लगने लगी थी ऐसा ही झगड़ा चलते एक दफा वे सन्न रह गए, जब उन्हें भाइयों ने पागल करार दे दिया और एक अखवार में छपा भी दिया ।इच्छा तो हुई कि इस अन्याय का जमकर प्रतिकार करें लेकिन मन में बस गए वैराग्य ने उन्हें रोक दिया।

               उन्हीं दिनों एक साधु जमात के साथ वे घर छोड़कर भाग निकले थे ।बिसरामपुरा का स्थान उनका पहला गाँव था। जमात ने उन्हें वहाँ छोडा और आग निकल गई । जमात के महन्त ने स्पश्ट कहा था कि वे टकसाली साधु नहीं बने हैं ,खडि़या ही हैं। ,क्योंकि न उन्हें सिद्धान्त पट ल को ज्ञान है न ठाकुर टहल का निगुरे तो हैं ही।

               उन दिनों बिसरामपुर की गद्दी पर महन्त किशोरदास थे । अस्थान पर जनता की भारी भीड़ इकट्ठा होती थी ।संजा-आरती में एक डेढ़ सौ भगत हर मौसम में मौजूद रहते ।हाँ स्थान पर साधु-सन्यासी कम रहते थे ।महन्त एक दिन से किसी को ज्यादा टिकने ही नहीं देते थे । ओमसिंह को पाकर किशोरदास ने सोचा कि इस हट्टे-कट्टे आदमी को चेला मूढ लो ,अच्छा सेवा टहल करेगा। उन्हें अस्थान पर रुकने के लिए अनुमति दे दी थी

               बिसरामपुर का यह स्थान बस्ती से पाँच किलोमीटर दूर था और बीच रास्ते में थोड़ा जंगल पडता था ।साधुओं और जमातों का आना जाना कम ही था ।इसलिए यहाँ साधुशाही रिवाजो ं की फिकर कोई नहीं करता था। महन्त ने एक औरत रख छोडी़ थी ,जो प्रगट में तो स्थान पर गोबर समेटने का काम करती थी ,लेकिन ओमसिंह ने उसे कई दफा ‘रात-विरात’जब महन्त के कमरे से निकलते देखा तेा नफरत से भर गए थे।एक रात तो जीप में आठ-दस बन्दूकधारी आए थे, किशोरदास से मिलने। तब ओमसिंह वहाँ की गड़बड शाला में उलझ ही गए थे-ये क्या ?

 

               उस दिन बिल्कुल सुबह के केले के पत्ते की कोपीन बनाने के लिए जब फुलवारी में किशोरदास मौजूद था। उसने वहीं से पुकार कर कहा था -”इधर मत आना भाई । आना निशेध है ।“ विस्मित ओमसिंह ने सोचा था कि बगिया में एसी कोई चीज होगी , जिसे टकसाली साधु ही छू पाते हैं ।वे चुपचाप लौटकर अपनी नित्यक्रिया में लग गए थे।




























































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