आधी रात की वो दोस्तीवाली रसोई
आधी रात की वो दोस्तीवाली रसोई
मेरी ज़िन्दगी की पहली रसोई जिसमें मैंने अपने प्यार का जायका मिलाया था और बदले में ढेर सारी दुआओं का हाथ मेरे सर पर पड़ा था, वह मायके या ससुराल में नहीं बल्कि अपनी एक सहेली के घर की यादें ताज़ा कर देती है।उस दिन जाना था कि...रसोई में कैसे पकते हैं,रिश्ते जो बाद में दिल में रिल मिल जाते हैं।आशी यानि आशिमा खान मेरी कॉलेज में नई नई बनी दोस्त एक साल में ही मेरी पक्की दोस्त बन चुकी थी।एक बार हम सभी सहेलियों का उसके घर जाने का प्रोग्राम बना। दरअसल उसकी आपा की दो दिन बाद सगाई थी,सो उसकी बहुत सारी रिश्ते की बहनें आईं हुई थी। बारी बारी से सब एक दूसरे को मेहंदी लगाने वाली थी और हमें बड़ा मज़ा आने वाला था।चुँकि मैं बहुत अच्छा मेहँदी लगाती थी तो मेरी डिमांड कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई थी।तो आशी के घर सभी सहेलियों को एक रात रुकना था।पर मम्मी...?मम्मी को मनाना इतना आसान कहाँ था।उनकी अनुमति लेने के लिए कितना तो मस्का लगाना पड़ा था। बड़ी मुश्किल से माँ राज़ी हुई थी। उन दिनों कुंवारी लड़की का यूँ किसी सहेली के घर रात भर रुकना कोई मामूली बात नहीं थी।हम सबने सोच लिया था कि सब एक दूसरे को मेहँदी लगाएंगी और उस दिन कोई सोयेगा भी नहीं।
खैर.....रात लगभग दस बजे से शुरू हुआ मेहँदी लगाने का कार्यक्रम। उसमें मुझे बहुत महारत हासिल था। सो मैंने ही सबसे पहले अपनी सहेली आशी को ही मेहँदी लगाना शुरू किया। मेहँदी तो अच्छी लग रही थी। पर ज्यों ज्यों रात बीत रही थी सबको थोड़ी थोड़ी भूख सी लगने लगी थी।जो सहेलियाँ मेहँदी लगवा चुकी थीं वह क्या खाऊँ... क्या खाऊँ कह रही थीं। चुँकि मैं सबको मेहँदी लगा रही थी,इसलिए सबकी आशाएं मुझ पर आ टिकी थीं। क्योंकि मैं ने अपने हाथों में मेहँदी नहीं लगाया,इसलिए मेरे दोनों हाथ फ्री थे।थोड़ा स्नैक्स, बिस्किट खाने के बाद हमने डांस किया।पर ये क्या......?डांस, मस्ती और उछलकूद से तो भूख और जोर से लग आई। अब तक तो सबके पेट में पड़ोस से भी चूहे आकर नाचने लगे थे।मेरे हाथ सबको मेहंदी लगाके लाल हो चुके थे इसलिए मैंने सोचा, एक दिन बाद ज़ब यह ललाई हल्की पड़ेगी तभी रचाऊँगी सुन्दर सी मेहँदी।अब सबसे भूख बर्दास्त नहीं हो रहा था तो मैंने सोचा कि मैं कुछ बना दूँ।क्योंकि थोड़ी थोड़ी भूख तो मुझे भी लग आई थी।मुझे ज़्यादा कुछ तो नहीं बनाना आता था। पर आपत्तिकाल का सोचकर माँ ने मुझे कचौड़ी और आलू की सब्जी बनाना सिखा दिया था। वह हुनर आज काम आनेवाला था।आशी से पूछ पूछकर रसोई में सब सामान इकठ्ठा किया और सोचा कि...सबसे पहले तो आलू उबालकर रसोई के कार्यक्रम का फीता काट लूँ। सब बहुत खुश थे और उत्साहित भी कि कुछ टेस्टी सा पकनेवाला है।सबसे पहले कुकर में आलू उबालने को चढ़ा दिया।तब तक कचौड़ियों के लिए आटा गूंथने लगी। आलू उबलने को चढ़ाया ही था कि कुकुर की सीटी बजते ही घर के कुछ बुज़ुर्ग जाग गए थे।कचौड़ी और आलू की सब्जी बनते बनते घर में लगभग सब जाग चुके थे। अब सबको खिलाने के चक्कर में ज़्यादा आटा सानना पड़ा। अब तक मुझे भी कुछ ज़्यादा ही भूख लग आईं थीं। सबको खिलाया, साथ में खुद भी खाया। जिनके हाथों में मेहँदी लगी थी, उन्हें मैंने अपने हाथों से खिलाया। उस रात बड़ों की खूब दुआएं मिली। सबका बहुत सारा प्यार। मैंने रसोई में उस दिन प्यार पकाया था। एक ऐसा आनंद मिला मुझे उस रात जिसे ताउम्र नहीं भुलाया जा सकता। बुजुर्गों की दुआओं से मेरा दामन भर गया।सच... रसोई में खाने के साथ पकता है प्यार और नज़दीक आते हैँ दिलों के रिश्ते।कहना ना होगा कि....आज भी आशी और उसका परिवार मेरे दिल के बेहद करीब है। और मैं भी यक़ीनन उन सबके दिल के बहुत करीब हो गई थी।आखिर प्यार का एक रास्ता... जिह्वा के स्वाद से होकर पेट तक जो जाता है।मैं उस रात अपने हाथों में मेहँदी तो नहीं लगवा पाई थी। पर सबको खिलाकर जो संतुष्टि मुझे मिल रही थी वह अनमोल था।प्यार के रिश्ते सबसे ज़्यादा रसोई में ही तो पकते हैँ..... यह उस रात एक बार फिर से जाना था।आधी रात की वो रसोई मेरे जेहन में हमेशा के लिए एक मीठी याद बनकर अपनी अमिट छाप छोड़ गई जिसकी खुशबू से आज भी मेरी और आशी की दोस्ती की दुनियाँ महकती है। इसकी बानगी दुर्गापूजा के रसगुल्ले से लेकर ईद की सेवइयों तक में देखने और चखने को मिल जाती है।मेरे प्यारे दोस्तों...उस आधी रात की रसोई जीवन का एक गूढ़ पाठ मुझे बड़े चुपके से सिखा गई कि...."जाति धर्म, कौम से परे भी होती है एक रसोई जहाँ पकता है अनहद प्यार और वो है दोस्ती का अनोखा संसार।"
