आधी बात की पूरी बात ....
आधी बात की पूरी बात ....
कल ऑफिस में एक कलीग से बात हो रही थी। चाय के साथ शुरू हुयी हमारी बातचीत ऑफिस के बदले हालात से लेकर घर परिवार और बच्चों तक जा पहुँची। हँसते हुए वह अपने बच्चों की बातें सुनाने लगा। उस बातचीत में मेरे हँसते हँसते पत्नी के बारे में पूछने पर वह बताने लगा की पत्नी ने बच्चे होने के बाद जॉब छोड़ दी है और अब वह घर में रहती है।" मेरे अंदर की फेमिनिस्ट फौरन जाग गयी। मैंने झट उससे कहा, "बच्चों के थोड़े बड़े होने पर पत्नी को जॉब करने के लिए जरूर कहना। बच्चों के लिए कोई न कोई सलूशन निकल आएगा।" वह कुछ खामोश हुआ। बात बेबात बिटवीन द लाइन पढ़ने वाली मैं उसकी इस खामोशी को समझ कर कुछ कहती कि उसके फ़ोन की घंटी बजी। वह फ़ोन को बंद करते हुए कहने लगा, "शाम को ऑफिस में जब भी लेट होता हूँ पत्नी बार बार फ़ोन करती रहती है।" मैंने कहा, पत्नियाँ होती ही पजेसिव!" वह फीकी सी हँसी के साथ कहने लगा, "इतनी भी क्या पूछताछ? कभी कभी तो दम घुटने जैसे लगता है।" वह और भी बात करना चाहता था.....
मेरा यह कलीग कभी नमस्ते के अलावा कोई बात नहीं करता था।
लेकिन आज ?
आज न जाने क्यों वह ये सब बातें कर रहा था। मुझे लगने लगा की कुछ मामलों में हम औरतें मर्दों से बेहतर हालात में होती है क्योंकि हम बातें करके खुद को हलका कर लेती है। लेकिन पुरुष ? पुरुष अपनी बातें किसे बताएँ? कैसे बताएँ? पुरुष अक्सर अपने दर्द अंदर रख लेते है... उनका ब्रॉट अप ही ऐसा होता है। आम बोलचाल में हम सुनते नहीं क्या की मर्द रोते नहीं... मर्द को दर्द नहीं होता ...
पाठक मुझसे मिलने पर अक्सर कहते है कि आप की ज्यादातर कहानियाँ स्त्रियों पर होती है। पुरुषों के भी इश्यूज होते है, आप उनके बारे में क्यों नहीं लिखती है? अक्सर ऐसी बातों को मैं हँस कर टाल देती हूँ....