नदी के दो किनारों से बहते यूँ तो आ गए पास कितने
अपने सुर "सस्वी-पुन्नु" में बहुत मारमिक अंदाज में पेश किया है।
रूपा, आशा से लिपट कर रो पड़ती है, जैसे कोई बेटी विदा होते समय अपनी माँ से लिपट कर रोती है।
जैसा कि अभी कुछ दिन पहले हुआ था अपना मिलन एक विवाह समारोह में। फिर कब मिलोगी ?
किस्मत की लकीरों में एक दूसरे का नाम लिखने लागे।
उसने कहा- “बुद्धू, अब कभी बहनजी मत कहना”.