महफूज़ रहे जहाँ बिटिया मेरी, कोई ऐसा भी कोना देखा? महफूज़ रहे जहाँ बिटिया मेरी, कोई ऐसा भी कोना देखा?
मानव को बनाकर शायद अब विधाता भी बहुत, बहुत पछताते हैं। मानव को बनाकर शायद अब विधाता भी बहुत, बहुत पछताते हैं।
कभी सामाजिक परम्पराओं की आड़ पर। पीती वह रोज अपमान का कड़ुआ जहर कभी सामाजिक परम्पराओं की आड़ पर। पीती वह रोज अपमान का कड़ुआ जहर