वतन मेघवर्ण – सी…
वतन मेघवर्ण – सी…
भारत ! कोई मुझसे पूछा, आखिर क्या है यह ?
मैं असमंजस में ठहरा, त्वरित गया इति के सार में
जहाँ हिमालय किरीटिनीम्, वसुधैव कुटुम्बकम् जगा
वहीं जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी भारती
अमृत महारत्न छिपा जिस भूमि में, सिंचता रहता सदा
मैं अमूल्य हूँ कण-कण में, मेरा अस्तित्व पंचभूत सार
नयन-नयन से अश्रु गिरे , हो जाता वों गंगा की धार
दिशः ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमाङ्गल्यमूर्तये रहें हम
रत्नाकराधौतपदां हिन्द जिसके धोता दिव्य चरण
तीन ओर आर्यावर्त घिरा जिसके , मैं उसका मेष जहाँ
नीलकण्ठ विष हरे जिसे , यह गरल कौन बहा रहा जिस धार ?
भोर-सान्ध्य लगें उच्चार महाकाल के , यह फिर गूंज है किसका ?
नुपूर की रूनझुन-रूनझुन स्वर खिलें अम्बर के क्षितिज किरणो में
विहग भी प्रस्मृत यहाँ , देखें वात-गिरि-अंभ-मही-वह्नि अगवानी के
लहू-रक्त धोएँ अश्म के , हिम-हिमाचल-अरुण- अरुणाचल के पन्थ निर्मल पखार
शीलं परमं भूषणम् हरेक जन में , सौन्दर्य छायी मेघवर्ण-सी हर कोने के वतन
महाशून्य के लय में लहर दें , लहर दें भूधर में , सकल नव्य दें हुँकार
कोटि-कोटि कण-कण में, कल-कल भरें मन्दिर-मस्जिद भव के
जिस ओर राह चली, बढ़ें चलो-बढ़ें चलो , उन ऊर्ध्वङ्ग शिखरों तक
मधुमय दिव्य बहे जगतधार के , कर्म-कर्तव्य-सत्यमेव जयते सार
आम्र मंजरी झड़े वसन्त के दर में , बीत गई वों पतझर भला
वन-वन में घूम-घूम के , दिखा मधुकर भी कर रहें किसका पान ?
यह उपवन में क्या शबनम दिखा ! मिला वो त्रिदिव-सी स्वप्निल दिवस
ज़रा केतन उठा लूँ ऊर्ध्वङ्ग में , मातृभूमि भारती की श्री चरणों में
