उलझन
उलझन
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सुबह होते ही
उठकर चल देते हैं
कई उलझे कामों को सुलझाने को
धीरे-धीरे
कामों को सुलझाते जाते
खुद को जैसे
हल्का करते जाते
लगता जब
सुलझ गया सब
फिर बैठकर आनंद लेते ।
पर ये क्या
कई उलझन
मानस पटल पर
घूमने लगते
फिर तो
ऐसा लगता जैसे
कुछ भी सुलझा नहीं
सब मन का भ्रम था
हम भ्रम में घूम रहे हैं
उलझन तो
सुलझा ही नहीं
जो सुलझाया वो तो
सुलझा ही था
खुद को ही हम
छलते जाते
ये जीवन है एक ऐसी गुत्थी
जितना सुलझाओ
हम उतना ही
उलझते जाते
फिर भी हम
उलझन को सुलझाने में
वक्त जाया करते
पर मुँह चिढ़ाती
खड़ी रहती जीवन की
"उलझन"।