उलझन गुड़िया की
उलझन गुड़िया की
एक नवयौवना इस उम्र की अटखेलियों से अनजान झुलस रही है,
परिवर्तन की क्षितिज पे खड़ी दोहरे भाव से लिपटी,
मासूमियत तब्दील हो रही थी एक अनजान जोश में..!
तन परिवर्तित हो रहा था, कोई कहता था तू अभी बच्ची है
माँ कहती है तू बड़ी हो गई ढंग से उठ बैठ..!
नहीं कर पाती थी अभिव्यक्त कोई भावना,
मन ही मन गुत्थी सुलझाती उम्र के पड़ाव पे खड़ी
मन के कैनवास पर हज़ारों रंग आवाजाही करते है
कौन से रंग में ढालूँ खुद को...!
बचपन छूटता जा रहा है,
पगली दबोच रही है तितली से
बचपन को थामकर खिलौनों संग..!
खेल कूद के तौर तरीके बदल रहे है
गुड़िया से खेलने वाली घर घर खेल रही है..!
एक पैर बचपन में तो दूजा जवानी की चौखट पे
मन बालक सा पगला,
तन कदम बढ़ा रहा है जवानी की
दहलीज़ को फांदने उत्सुक..!
उन्मादी दिल झुक रहा है किसी विपरीत सेक्स के प्रति
कुछ अनजाने स्पंदनों में बहता,
सखियों की बातें मोह जगा रही थी मन में,
वक्ष छुपाते आवरण के प्रति,
कभी अखरती है किसी अपने की अजीब छूअन
ना कह सकती है ना सह सकती है,
है छोटी पर समझ सकती है छूअन की भाषा
थोड़ी बड़ी जो हो गई है..!
ये क्या आज पगली रोये जा रही थी
बारबार नहाये जा रही थी,
माँ के पूछते ही फ़फ़क पड़ी देखो ना माँ
ना कहीं गिर पड़ी ना कोई घाव लगा,
खून बंद ही नहीं हो रहा माँ मुस्कुराते बोली
मेरी गुड़िया जवान हो चली..!
कान्हाजी ने नवाजा है तुझे एक वरदान से तू निर्माण कर सकती है
अपनी कोख में ईश के अंश का तू काबिल हो गई है तू सक्षम हो गई है..!
समझ से परे माँ के शब्द है
पर दिल में उमड़ रही उथल-पुथल और व्यथा को बाँटना चाहती है,
परिवर्तन स्वीकृत नवयौवना की कश्मकश
बेकरार है उम्र के हसीन मंज़र को जीने..!
पर संकोचवश हर हर्फ़ जुबाँ तक आने को कतरा रहा क्या बोलूँ..
किससे पूछूँ क्या हूँ मैं, छोटी हूँ की बड़ी ?