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स्वप्न

स्वप्न

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कुछ छूट गये, कुछ रूठ गये
कुछ स्वप्न अधूरे टूट गये।
 
मन की बड़ी विषमता थी,
कुछ हल्की कहीं विफलता थी,
कुछ मानस का ओछापन था,
कुछ गैरों का अपनापन था।
कुछ रिश्ते नये निभाने में
कुछ अपने नये बनाने में
सच्चे रिश्ते भी छूट गये...
कुछ स्वप्न अधूरे टूट गये।
 
तब घोर निराशा छाती थी,
कहीं राह नज़र न आती थी।
बस जहां देखता दूर तलक
मुंह बोली कह दी जाती थी।
खुद की बोली लगाने में
अपना ही सत्य दिखाने में
वो रूठ गये, हम टूट गये
कुछ स्वप्न अधूरे टूट गये।
 
"कुछ बन जाऊं" ये विश्वास लिये
सपनों का इक साम्राज्य लिये
यूं निकल पड़ा अनजानों में
इक छोटी-सी पहचान लिये
सपनों का नगर बसाने में
दिन-रात पिसा अनजाने में
छिटक पड़े वे छूट गये
कुछ स्वप्न अधूरे, टूट गये।
 
मानव का मन निर्मल कैसा?
मानव होता जाने कैसा?
मानव का अर्थ मिला मुझको,
"मत नया करो" समझो इसको
मन की हार भुलाने में
फिर दुनिया नयी बसाने में
निर्झर आँखों से फूट गये...
थे स्वप्न अधूरे, टूट गये...
थे स्वप्न अधूरे टूट गये।


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