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सूखी मिट्टी की गीली शिकायत

सूखी मिट्टी की गीली शिकायत

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तेरे शहर की मिट्टीयां भी,

एक दिन ढीठ हो जायेगीं,

पानी, आग से घूस लेके,

ईंट हो जायेगीं।


उन्हें शायद अच्छा नहीं लगता,

ये खाली शहर,

और उन्हें आखिरी बार,

चूमते हुए वो लोग,

जो पलायन कर गये,

दफन करके बचपन।


उसे याद है चांट के पत्ते,

और मेले की जलेबी,

कंचो की लकीरें,

गुल्ली डंडा के गड्ढे,

अखाड़े की कुश्ती,

औंधे मुंह वाली सुस्ती।


स्टम्प के निशान और

कच्ची मिट्टी के घरौंदे,

मिट्टी लगे पके गूलर

और खट्टे कच्चे करौंदे,

साईकिल से गिरने के निशान,

गुड्डे गुडिया के मकान।


ये सब कैद हैं,

उसकी सैकड़ों परतो में जिनसे,

यादों की खुशबू और

नाराज़गी की गरदा

हर रोज़ निकलती है।


इस इंतजार में कि शायद,

कोई आंधी पहुंच जाए उन सब तक,

जो उसे देखते ही लोट जाने का,

इरादा हर साल करते हैं,

और अपने को अभी भी,

माटी का लाल कहते हैं।


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