सुकून-ऐ-जिन्दगी
सुकून-ऐ-जिन्दगी
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रास्ते में चलते- चलते खो गई
एक सुबह एक मोड़ पर
सुकून-ऐ-जिन्दगी जरा सोच
रोज कलियों को खिलते देखा
किसी को रोया किसी को हंसते देखा
कोई पूछे मेरा पता सबको जरा बोल देना
सवालों सा रहने में मजा
सबकी सुनती हूं मेरी भी सुनो
खामोशियों से जरा बात होने दो
वो बचपन का जमाना था
तितली की तरह उड़ना था
बारिशों में कागजों की नाव बनती थी
हर मौसम में अपना अलग रंग बिखेरना था
सब में खुशियों का खजाना था
चाँद को पाना और लोगों को दीवाना बनाना
अपना अलग जमाना था ।
