सम्भव ही नहीं
सम्भव ही नहीं
मैं फूल नहीं जो स्वाभिमान खोकर चरणों में गिर जाऊँ ।
अनुचित की मान प्रतिष्ठा में, अपने वचनों से फिर जाऊँ ।
नैतिकता के पावन घट का, चौराहे पर अपमान करूँ ।
सम्भव ही नहीं हठी, निष्ठुर, दुर्जन का मैं गुणगान करूँ ।
गुणगान करें जिनको खुद की, सुचिता का कुछ भी भान नहीं ।
गुणगान करें जो स्वाभिमान का, कर सकते सम्मान नहीं ।
गुणगान करें जो चाटुकारिता में सब कुछ कर सकते हैं ।
गुणगान करें जो स्वार्थ हेतु, दो कौड़ी में मर सकते हैं ।
गुणगान करें जो स्वान सरीखे चरण चाटते फिरते हैं ।
यों तो खुद का भी ज्ञान नहीं, पर ज्ञान बाँटते फिरते हैं ।
मैं स्वाभिमान हूँ सुचिता का, नैतिकता का अनुपालक हूँ ।
मैं क्रांति शिखा का द्योतक हूँ, मैं परिवर्तन का चालक हूँ ।
मैं धर्म ध्वजा की रक्षा में, निज प्राण गँवा भी सकता हूँ ।
मैं सत्य न्याय रक्षार्थ गरल, हँसते-हँसते पी सकता हूँ ।
करुणा की सत्ता नहीं जहाँ, उन हृदयों का सम्मान करूँ ?
सम्भव है क्या दो कौड़ी के चिंतन का मैं गुणगान करूँ..?
जिनमें 'मैं' को समझाने का, थोड़ा सा भी सामर्थ्य नहीं ।
सच को भी सच कह जाने का, थोड़ा सा भी सामर्थ्य नहीं ।
जो विद्वानों की सभा बीच, अज्ञानी सा व्यवहार करे ।
जो सज्जन के मृदु वचनों पर, कर्कश तीरों का वार करे ।
जो मद में ऐसा चूर, ज्ञान के आगे झुकना भूल गया ।
जो हठ की खातिर पर्वत के सम्मुख भी रुकना भूल गया ।
सच पूछो तो ऐसा मानव अज्ञानी है, अभिमानी है ।
वह स्वार्थ भरे घट का गंदे कीचड़ के जैसा पानी है ।
वह भूल गया हाथी मद में यदि बर्बरता कर सकता है ।
तो चींटी की हिम्मत से वह गिर सकता है मर सकता है ।
दुर्योधन का मद एक दिवस झुक जाता है, यह निश्चित है ।
तो चाटुकार शकुनी भी ठोकर खाता है, यह निश्चित है ।।l