दोहा गीतिका
दोहा गीतिका
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बैठी चंचल साधिका, कोमल मन के द्वार ।
आखर आखर दे रही, भावों को आकार ।।
आती जाती नाँव है, यह पावन संसार ।
जिसके ऊपर चल रहा, साँसों का व्यापार ।।
मन से जाता दूर तक, सत्कर्मों का नूर ।
रोंके से रूकती नही, यह प्रकाश की धार ।।
नेह दीप जगमग करे, चमके मन आवास ।
सुचिता रूपी चेतना, हर्षित मुदित अपार ।।
माटी माटी चाक पर, चढ़ा बना कर देह ।
सुन्दर-सुन्दर रच रहा, रूप अनूप कुम्हार ।।
राम कृष्ण को खोजते, बीती सारी उम्र ।
घर घर रावण ले रहे, कलयुग में अवतार ।।
धर्म कर्म की नीति है, लेनदेन इस भाँति ।
मन के सूने गाँव में, चन्दन का व्यापार ।।