शर्म
शर्म
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जबसे बसी हूँ तेरी साँसों में
लगता है समा सुहाना
जबसे उतरीहूँ तेरे दिल में
मिल गया जीने का बहाना ||
तुम्ही से होती है सुबह
शाम भी होती है तुम्ही से
रातों कीं नींद भी आती है
गुजर के तुम्हारी गली से ||
झाँकती हूँ तुम्हारे सपनो में
बाँहों में देखती हूँ खुद कॊ
शर्म सी आती है थोडी
भूल जाती हूँ हूँ सारे जहाँ कॊ ||
