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Bhawna Kukreti Pandey

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Bhawna Kukreti Pandey

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शहर मे गाँव

शहर मे गाँव

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बढ़ रहे हैं

थके हुए काफ़िले रात के,

भागने को तैयार सुबहों की तरफ,

और मैं बीच मे अड़ी खड़ी

गुनति हूँ दिन भर

अक्सर

शहर मे गाँव को।


वो गांव

जो ठहरा सा है यादों मे ,

उस गाँव में भी तारों ने अपना

शामियना समेटा होगा। 

आंगन मे किरनें

अब भी बुहारती होंगी अन्धेरा,

द्वार पर बादल

छिडकता होगा

जल उम्मीदों का,

खुलेते होंगे हर बाग मे,

'पर' फिर पंछियों के,

सवेरा चहचहाता होगा।


खेतोंं मे

मुस्कराते होंगे

पसीने जवां माथों पर,

अंजुली मे

मीठे सपनो सा

मेहनत का अमृत होता होगा।


रिश्तों की

लगायी-बुझाई

बतियाते कूएँ

छलकाते होंगे नयन,

घरों की घरघराती चक्कियों मे

पिसती होगी बड़बड़ाहट,

ओखल मे कुटता

होगा विरह गीत,

आंगन मे बछड़े भगाता बचपन ,

और कोने मे

खाट पर ऊंघता बुढापा होगा।


हर घर

माथे पर नए पुराने

आँचल के हाथों से

तुलसी के ताकों पर

साँझ का दिया

रात का हरकारा होता होगा।


धुले जाते

जूठे बर्तनों मे

मिले भीगे निवालों पर

एक उम्र का उलाहना होता होगा।


बिस्तर

पर ताकती राह नींद

लिये आती होगी सपने,

फिर से माँ की बातों मे ,

दुलारे का बहाना होता होगा।




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