सेवा ....
सेवा ....
निः स्वार्थ भाव से कर्म की हो भावना|
निश्छल रह करे त्याग जो, ऐसी हो मन की साधना ||
विजय ह्रदय के भावों पर, न लज्जा कर्म करने में हो|
सहानुभूति हो सभी से, पर कर्तव्य ही बस मन में हो||
अपने विचारों से दे सको तुम सबको प्रेरणा|
जड़ को जागृत कर सको, ऐसी हो तुम में संवेदना ||
परहित रखो सर्वोपरि, निष्पाप तुम बढ़ते रहो|
कर्म के रथ पर हो सवार, लगातार तुम चलते रहो||
न हो उत्तेजित क्षणिक प्रतारणा से |
ऊपर उठो पतित करती हर धारना से||
शक्ति खुद में सम्मिलित करो |
भाव मात्र सब कुछ नहीं, बल को भी तुम संचित करो ||
बढ़ चलो अपनी राह पे, किसी आडम्बर से तुम ना डरो ||
समृधि लाओ हर दिशा में, देशहित हरदम करो |
कुछ इस तरह से तुम, इस देश की सेवा करो ||
