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Mridula Chandra

Others

4.5  

Mridula Chandra

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रोज़ाना

रोज़ाना

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जितनी अन्धेरी रात है ,

उतनी ही जिन्दगी भी है ,

लगता है जैसे दिल में कुछ चुभ रहा है ,

कुछ नुकीला,कुछ तीर की तरह,

जो रोज़ मुझे थोड़ा थोड़ा मारता है ,

लेकिन मौत आती नहीं ,

सांस बेचारी जाती नहीं ।

लेकिन तकलीफ रोज़ होती है ,

और दर्द भी बहुत होता है ,

मैं तिल तिल मर रही हूँ ,

चेहरे पे हंसी है ,

ज़ुबाँ पे गीत ,

मुझे दर्द छुपान आता है ,

बहुत अच्छे से।

मुझे गीत गाना आता है,

बहुत अच्छे से ।

पर मन गीत नहीं गाता ,

दिल खुश नहीं है ,

सालों से।

एक आदत सी है ,

बिना खुशी के भी ,

जिन्दगी काट लेने की ,

जी लेने की ,

क्या करूँ?

मेरे पास कोई और चारा नहीँ है ,

रोज़ ही ऐसा कर लेती हूँ ,

रोज़ ही चेहरा बदल लेती हूँ ।

पता नहीं क्या छुपाती हूँ ?

याद नहीं अब क्या क्यो कैसे ?

काफी पहले से ही छुपा लेने की आदत पड़ गई।

झूठी हंसी हंसने की आदत पड़ गई।

न जाने कब से क्या करूँ अब ?

अब तो आदत सी है ,

अब यही जिन्दगी है ।

झूठी है तो क्या हुआ ?

कुछ तो है ,

कुछ नहीं से तो कुछ होना अच्छा है न,

चलो कुछ तो है ।

जब तक सांस है ,

तब तक ये दिखावा है ,

जब तक राज़ है ,

तब तक ये रोजाना है ।

अब आदत सी है,

रोज़ ही झुक जाने की ,

रोज़ अपमान सहने की ,

कुछ भी सुन लेने की,

कुछ करना चाहती हूँ ,

लेकिन क्या पता नहीं ?

या शायद पता है ,

पर छुपाती हूँ ,

क्योंकी छुपा लेंने की अब आदत है ।



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