रोज़ाना
रोज़ाना
जितनी अन्धेरी रात है ,
उतनी ही जिन्दगी भी है ,
लगता है जैसे दिल में कुछ चुभ रहा है ,
कुछ नुकीला,कुछ तीर की तरह,
जो रोज़ मुझे थोड़ा थोड़ा मारता है ,
लेकिन मौत आती नहीं ,
सांस बेचारी जाती नहीं ।
लेकिन तकलीफ रोज़ होती है ,
और दर्द भी बहुत होता है ,
मैं तिल तिल मर रही हूँ ,
चेहरे पे हंसी है ,
ज़ुबाँ पे गीत ,
मुझे दर्द छुपान आता है ,
बहुत अच्छे से।
मुझे गीत गाना आता है,
बहुत अच्छे से ।
पर मन गीत नहीं गाता ,
दिल खुश नहीं है ,
सालों से।
एक आदत सी है ,
बिना खुशी के भी ,
जिन्दगी काट लेने की ,
जी लेने की ,
क्या करूँ?
मेरे पास कोई और चारा नहीँ है ,
रोज़ ही ऐसा कर लेती हूँ ,
रोज़ ही चेहरा बदल लेती हूँ ।
पता नहीं क्या छुपाती हूँ ?
याद नहीं अब क्या क्यो कैसे ?
काफी पहले से ही छुपा लेने की आदत पड़ गई।
झूठी हंसी हंसने की आदत पड़ गई।
न जाने कब से क्या करूँ अब ?
अब तो आदत सी है ,
अब यही जिन्दगी है ।
झूठी है तो क्या हुआ ?
कुछ तो है ,
कुछ नहीं से तो कुछ होना अच्छा है न,
चलो कुछ तो है ।
जब तक सांस है ,
तब तक ये दिखावा है ,
जब तक राज़ है ,
तब तक ये रोजाना है ।
अब आदत सी है,
रोज़ ही झुक जाने की ,
रोज़ अपमान सहने की ,
कुछ भी सुन लेने की,
कुछ करना चाहती हूँ ,
लेकिन क्या पता नहीं ?
या शायद पता है ,
पर छुपाती हूँ ,
क्योंकी छुपा लेंने की अब आदत है ।