रंग उभरते ही नहीं
रंग उभरते ही नहीं
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201
कल्पना की कूची से
धरती के कागज पर
उकेरना चाहता हूँ एक चित्र।
मगर, रंग उभरते ही नहीं।
सूख गया है आँखों का पानी
भावनाओं से दिल पसीजते ही नहीं।
और संवेदनाओं की मिट्टी
गीली ही नहीं होती!
रचना चाहता हूँ
भाव भरे प्रणय-गीत।
मन की कोमलता से
शब्द ले-लेकर।
मगर, अक्षर उतरते ही नहीं।
अनुभूतियों की स्याही
सूख गयी हो जैसे
इस संवेदना शून्य समय में।
रूक गया हो जैसे
प्रेम का झरना
आस-विश्वास के इस मरूस्थल में !