"राह अपनी मैं चला"
"राह अपनी मैं चला"
कश्मकश का है
सफ़र ये ज़िन्दगी,
रण में जो धीर हो,
तो होगी बुलंदगी।
डराए मुझको जमाना,
मैं क्यों डरूँ ?
ख़ूबी ये मुझमें,
तो धीर क्यों न मैं धरूँ।
दुनिया उसी की है,
जो ख़ुद में सब ढाले चला
मौसम बदले तो क्या ?
राह अपनी मैं चला I
कपटी राहें तो क्या ?
छल न मुझे सकें,
मन में साधा है जो,
इरादे वो बदल न सकें I
भला - बुरा पहचानता हूँ.
इसी दुनियाँ में हूँ पला बढ़ा,
ज्वार को खबर तो क्या ?
राह अपनी मैं चला I
सोना तपे,
कुंदन बने I
है सच्चा राही वही,
चले जो बिना रुके।
नज़रों में है तिर रही,
अटल मंज़िल मेरी,
इम्तिहां की डगर तो क्या ?
राह अपनी मैं चला I
बढ़ते गए की यूँ कदम,
और कुछ साथी मिले I
कथा कही , व्यथा सुनी,
ज़ख़्म कुछ तो भरे,
कुछ हुए हरे I
आई मंज़िल करीब,
काफ़िला बिख़र चला I
बिछड़े हुए का ग़म क्या ?
राह अपनी मैं चला I
